ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 10
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒मी य ऋक्षा॒ निहि॑तास उ॒च्चा नक्तं॒ ददृ॑श्रे॒ कुह॑ चि॒द्दिवे॑युः। अद॑ब्धानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ वि॒चाक॑शच्च॒न्द्रमा॒ नक्त॑मेति॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मी इति॑ । ये । ऋक्षाः॑ । निऽहि॑तासः । उ॒च्चा । नक्त॑म् । ददृ॑श्रे । कुह॑ । चि॒त् । दिवा॑ । ई॒युः॒ । अद॑ब्धानि । वरु॑णस्य । व्र॒तानि॑ । वि॒ऽचाक॑शत् । च॒न्द्रमाः॑ । नक्त॑म् । ए॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः। अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥
स्वर रहित पद पाठअमी इति। ये। ऋक्षाः। निऽहितासः। उच्चा। नक्तम्। ददृश्रे। कुह। चित्। दिवा। ईयुः। अदब्धानि। वरुणस्य। व्रतानि। विऽचाकशत्। चन्द्रमाः। नक्तम्। एति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
य उपरि लोका दृश्यन्ते, ते कस्योपरि सन्ति केन धार्यन्त इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
वयं पृच्छामोऽमी य उच्चा केन निहितास ऋक्षा नक्तं न ददृश्रे, ते दिवा कुह चिदीयुरिति। यानि वरुणस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा अदब्धानि व्रतानि यैर्नक्तं विचाकशत् संश्चन्द्रमाः—चन्द्रादिनक्षत्रसमूह एति प्रकाशं प्राप्नोति, स रचयिता स च प्रकाशयितास्तीत्युत्तरम्॥१०॥
पदार्थः
(अमी) दृश्यादृश्याः (ऋक्षाः) सूर्याचन्द्रनक्षत्रादिलोकाः। ऋक्षास्त्रिभिरिति नक्षत्राणाम्। (निरु०३.२०) (निहितासः) ईश्वरेण स्थापिताः। अत्र आज्जसरेसुग् इत्यसुक्। (उच्चाः) ऊर्ध्वं स्थिताः (नक्तम्) रात्रौ (ददृश्रे) दृश्यन्ते। अत्र दृशेर्लिटि। इरयो रे (अष्टा०६.४.७६) इति सूत्रेणास्य सिद्धिः। (कुह) क्व। अत्र वा ह च छन्दसि। (अष्टा०५.३.१३) अनेन किमो हः प्रत्ययः। कु तिहोः। (अष्टा०७.२.१०४) इति कुरादेशश्च। (चित्) वितर्के (दिवा) दिवसे (ईयुः) यान्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (अदब्धानि) अहिंसनीयानि (वरुणस्य) जगदीश्वरस्य सूर्यस्य वा (व्रतानि) कर्माणि नियमा वा (विचाकशत्) विशिष्टतया प्रकाशमानः (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्तम्) रात्रौ (एति) प्रकाशं प्राप्नोति॥१०॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। अत्र पूर्वार्द्धेन प्रश्न उत्तरार्द्धेन समाधानं कृतमस्ति, यदा कश्चित् कंचित् प्रति पृच्छेदिमे नक्षत्रलोकाः केन रचिताः केन धारिता रात्रौ दृश्यन्ते दिवसे न दृश्यन्त एते क्व गच्छन्ति तदैतस्योत्तरमेवं दद्यात्, येनेमे सर्वे लोका वरुणेनेश्वरेण रचिता धारिताः सन्ति। एतेषां मध्ये स्वतः प्रकाशो नास्ति, किन्तु सूर्यस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिता भवन्ति, नैवैते क्वापि गच्छन्ति, किन्तु दिवस आव्रियमाणा न दृश्यन्ते, रात्रौ च सूर्यकिरणैः प्रकाशमाना दृश्यन्ते, तान्येतानि धन्यवादार्हाणि कर्माणि परमेश्वरस्यैव सन्तीति वेद्यम्॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
जो लोक अन्तरिक्ष में दिखाई पड़ते हैं, वे किस के ऊपर वा किसने धारण किये हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हम पूछते हैं कि जो ये (अमी) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (ऋक्षाः) सूर्य्यचन्द्रतारकादि नक्षत्र लोक किसने (उच्चाः) ऊपर को ठहरे हुए (निहितासः) यथायोग्य अपनी-अपनी कक्षा में ठहराये हैं, क्यों ये (नक्तम्) रात्रि में (ददृश्रे) देख पड़ते हैं और (दिवा) दिन में (कुहचित्) कहाँ (ईयुः) जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर-जो (वरुणस्य) परमेश्वर वा सूर्य के (अदब्धानि) हिंसारहित (व्रतानि) नियम वा कर्म हैं कि जिनसे ये ऊपर ठहरे हैं (नक्तम्) रात्रि में (विचाकशत्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान होते हैं, ये कहीं नहीं जाते न आते हैं, किन्तु आकाश के बीच में रहते हैं (चन्द्रमाः) चन्द्र आदि लोक (एति) अपनी-अपनी दृष्टि के सामने आते और दिन में सूर्य्य के प्रकाश वा किसी लोक की आड़ से नहीं दीखते हैं, ये प्रश्नों के उत्तर हैं॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है तथा इस मन्त्र के पहिले भाग से प्रश्न और पिछले भाग से उनका उत्तर जानना चाहिये कि जब कोई किसी से पूछे कि ये नक्षत्र लोक अर्थात् तारागण किसने बनाये और किसने धारण किये हैं और रात्रि में दीखते तथा दिन में कहाँ जाते हैं, इनके उत्तर ये हैं कि ये सब ईश्वर ने बनाये और धारण किये हैं, इनमें आप ही प्रकाश नहीं किन्तु सूर्य्य के ही प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं और ये कहीं नहीं जाते, किन्तु दिन में ढपे हुए दीखते नहीं और रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं, ये सब धन्यवाद देने योग्य ईश्वर के ही कर्म हैं, ऐसा सब सज्जनों को जानना चाहिये॥२०॥
विषय
जो लोक अन्तरिक्ष में दिखाई पड़ते हैं, वे किस के ऊपर वा किसने धारण किये हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
वयं पृच्छामः अमी य उच्चा केन निहितास ऋक्षा नक्तं न ददृश्रे ते दिवा कुहचित् ईयुः इति। यानि वरुणस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा अदब्धानि व्रतानि यैः नक्तं विचाकशत् सन् चन्द्रमाः चन्द्रादिनक्षत्रसमूहः एति प्रकाशं प्राप्नोति, स रचयिता स च प्रकाशयिता अस्ति इति उत्त्तरम्॥१०॥
पदार्थ
(वयम्)=हम (पृच्छामः)= पूछते हैं कि, (अमी) दृश्यादृश्याः= प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, (य)=जो ये, (उच्चा)=ऊपर को ठहरे हुए, (केन)=किस (निहितासः) ईश्वरेण स्थापिताः=ईश्वर ने स्थापित किये हैं, (ऋक्षाः) सूर्याचन्द्रनक्षत्रादिलोकाः=सूर्य्यचन्द्रतारकादि नक्षत्र लोक, (नक्तम्) रात्रौ=रात्रि में, (न)=नहीं, (ददृश्रे) दृश्यन्ते= देख पड़ते हैं, (ते)=वे, (दिवा) दिवसे=दिन में, (कुहचित्) कहाँ, (ईयुः) यान्ति=जाते हैं, (इति)=ऐसे, (यानि)=जो, (वरुणस्य) जगदीश्वरस्य सूर्यस्य वा=परमेश्वर वा सूर्य के, (अदब्धानि) अहिंसनीयानि= हिंसारहित, (व्रतानि) कर्माणि नियमा वा=नियम वा कर्म हैं (यैः)=जिनके द्वारा, (नक्तम्) रात्रौ=रात्रि में, (विचाकशत्+सन्)=अच्छे प्रकार प्रकाशमान होते हुए, (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः=चन्द्र लोक, (एति) प्रकाशं प्राप्नोति=प्रकाश को प्राप्त करता है, (सः)=वह, (रचयिता)=निर्माण करने वाला, (च)=और, (सः)=वह, (प्रकाशयिता)=प्रकाशित करता, (अस्ति)=है, (इति)=ऐसे, (उत्त्तरम्)=प्रश्नों के उत्तर हैं॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है तथा इस मन्त्र के पहिले भाग से प्रश्न और पिछले भाग से उनका उत्तर जानना चाहिये कि जब कोई किसी से पूछे कि ये नक्षत्र लोक अर्थात् तारागण किसने बनाये और किसने धारण किये हैं और रात्रि में दीखते तथा दिन में कहाँ जाते हैं, इनके उत्तर ये हैं कि ये सब ईश्वर ने बनाये और धारण किये हैं। इनमें आप ही प्रकाश नहीं किन्तु सूर्य्य के ही प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं और ये कहीं नहीं जाते, किन्तु दिन में ढके हुए दीखते नहीं और रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं, ये सब धन्यवाद देने योग्य ईश्वर के ही कर्म हैं, ऐसा सब सज्जनों को जानना चाहिये ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(वयम्) हम (पृच्छामः) पूछते हैं कि (अमी) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (य) जो (उच्चा) ऊपर को ठहरे हुए लोक हैं, (केन) ये किस (निहितासः) ईश्वर ने स्थापित किये हैं। (ऋक्षाः) सूर्य्यचन्द्रतारकादि नक्षत्र लोक कैसे (नक्तम्) रात्रि में (न) नहीं (ददृश्रे) दिखाई पड़ते हैं। (ते) वे (दिवा) दिन में (कुहचित्) कहाँ (ईयुः) जाते हैं। (इति) ऐसे (यानि) जो (वरुणस्य) परमेश्वर या सूर्य के (अदब्धानि) हिंसारहित (व्रतानि) नियम या कर्म हैं, (यैः) जिनके द्वारा (नक्तम्) रात्रि में (विचाकशत्+सन्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान होते हुए (चन्द्रमाः) चन्द्र आदि लोक (एति) प्रकाश को प्राप्त करता है। (सः) वह (रचयिता) निर्माण करने वाला (च) और (प्रकाशयिता) प्रकाशित करने वाला (अस्ति) है। (इति) ऐसे (उत्त्तरम्) प्रश्नों के उत्तर हैं॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अमी) दृश्यादृश्याः (ऋक्षाः) सूर्याचन्द्रनक्षत्रादिलोकाः। ऋक्षास्त्रिभिरिति नक्षत्राणाम्। (निरु०३.२०) (निहितासः) ईश्वरेण स्थापिताः। अत्र आज्जसरेसुग् इत्यसुक्। (उच्चाः) ऊर्ध्वं स्थिताः (नक्तम्) रात्रौ (ददृश्रे) दृश्यन्ते। अत्र दृशेर्लिटि। इरयो रे (अष्टा०६.४.७६) इति सूत्रेणास्य सिद्धिः। (कुह) क्व। अत्र वा ह च छन्दसि। (अष्टा०५.३.१३) अनेन किमो हः प्रत्ययः। कु तिहोः। (अष्टा०७.२.१०४) इति कुरादेशश्च। (चित्) वितर्के (दिवा) दिवसे (ईयुः) यान्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (अदब्धानि) अहिंसनीयानि (वरुणस्य) जगदीश्वरस्य सूर्यस्य वा (व्रतानि) कर्माणि नियमा वा (विचाकशत्) विशिष्टतया प्रकाशमानः (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्तम्) रात्रौ (एति) प्रकाशं प्राप्नोति॥१०॥
विषयः- उपरि लोका दृश्यन्ते, ते कस्योपरि सन्ति केन धार्यन्त इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- वयं पृच्छामोऽमी य उच्चा केन निहितास ऋक्षा नक्तं न ददृश्रे, ते दिवा कुह चिदीयुरिति। यानि वरुणस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा अदब्धानि व्रतानि यैर्नक्तं विचाकशत् संश्चन्द्रमाः-चन्द्रादिनक्षत्रसमूह एति प्रकाशं प्राप्नोति, स रचयिता स च प्रकाशयितास्तीत्युत्तरम्॥१०॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। अत्र पूर्वार्द्धेन प्रश्न उत्तरार्द्धेन समाधानं कृतमस्ति, यदा कश्चित् कंचित् प्रति पृच्छेदिमे नक्षत्रलोकाः केन रचिताः केन धारिता रात्रौ दृश्यन्ते दिवसे न दृश्यन्त एते क्व गच्छन्ति तदैतस्योत्तरमेवं दद्यात्, येनेमे सर्वे लोका वरुणेनेश्वरेण रचिता धारिताः सन्ति। एतेषां मध्ये स्वतः प्रकाशो नास्ति, किन्तु सूर्यस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिता भवन्ति, नैवैते क्वापि गच्छन्ति, किन्तु दिवस आव्रियमाणा न दृश्यन्ते, रात्रौ च सूर्यकिरणैः प्रकाशमाना दृश्यन्ते, तान्येतानि धन्यवादार्हाणि कर्माणि परमेश्वरस्यैव सन्तीति वेद्यम्॥१०॥
विषय
सृष्टि का वैचित्र्य
पदार्थ
१. संसार में एक - एक वस्तु अद्भुत है । प्रभु की बनाई हुई प्रत्येक कृति उसकी विभूति है , परन्तु प्रकृति - निरीक्षण करनेवाले को यह विचित्र प्रतीत होता है कि (अमी ये - जो वे (ऋक्षाः) - तारे (उच्चा निहितासः) - ऊपर आकाश में रखे हुए हैं (नक्तम् ददृश्रे) - अरे , रात को दिखते थे , ये सब तारे (दिवा) - दिन में (कुह चित्) - कहाँ (ईयुः) - चले गये? ये तो अब दिख नहीं रहे , यह हुआ क्या? रात में सारे आकाश को इन्होंने आवृत किया हुआ था । टिमटिमाते हुए ये तारे उस प्रभु का स्तवन कर रहे थे , ये गये कहाँ?
२. इस प्रश्न का स्वयं उत्तर देते हुए वह अपने से कहता है कि (वरुणस्य) - उस सारे ब्रह्माण्ड के नियामक प्रभु के (व्रतानि) - व्रत (अदब्धानि) - अहिंसित हैं । प्रभु के नियमों को कौन तोड़ सकता है? देखो न , यह (विचाकशत्) - अत्यन्त चमकता हुआ (चन्द्रमा) - चाँद (नक्तम्) - रात्रि में (एति) - फिर आ जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - यह सारा काव्य कितना सुन्दर है कि रात में चमकते तारे न जाने दिन में कहाँ छिप जाते हैं और फिर रात में चमकता हुआ चन्द्रमा उदय हो जाता है ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये ) जो ( अमी ) ये ( ऋक्षाः ) नक्षत्रगण ( उच्चा ) ऊपर आकाश में ( निहितासः ) निश्चल रूप से स्थापित हैं जो (नक्तं) रात के समय तो ( ददृश्रे ) दिखलाई देते हैं और ( दिवा ) दिन के समय ( कुहचित् ) कहीं ( ईयुः ) चले जाते हैं, लुप्त हो जाते हैं । और ( विचाकशत् ) विशेष प्रकाश से चमकता हुआ ( चन्द्रमाः ) चन्द्र ( नक्तम् ) रात के समय ( एति ) आता जाता है, यह सब ( वरुणस्य ) उस सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के ( व्रतानि ) नियम ( अदब्धानि ) कभी नष्ट नहीं होते ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. या मंत्रात पहिल्या भागात प्रश्न व नंतरच्या भागात त्यांची उत्तरे आहेत. एखाद्याने प्रश्न विचारले की, हे नक्षत्रलोक अर्थात तारांगण कुणी निर्माण केलेले आहे? कुणी धारण केलेले आहे? हे सर्व लोक (गोल) रात्री दिसतात व दिवसा कुठे जातात? त्यांची उत्तरे अशी की हे सर्व ईश्वराने निर्माण केलेले असून, त्यानेच धारण केलेले आहे. या गोलांमध्ये स्वतःचा प्रकाश नसतो तर सूर्याच्या प्रकाशाने ते प्रकाशित होतात. ते कुठेही जात नाहीत. दिवसा दिसत नाहीत व रात्री सूर्याच्या किरणांनी प्रकाशमान होतात. हे सर्व ईश्वराला धन्यवाद देण्यायोग्य कर्म आहे हे जाणावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Those constellations of stars such as the Great Bear set in motion high and far, which are seen at night — where do they go in the day? Fixed, inviolable are the laws and rules of Varuna, rules of the stars. So the moon shines at night and moves on in its orbit.
Subject of the mantra
The worlds which appear in space are being possessed by whom and are placed above whom? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vayam)=we, (pṛcchāmaḥ)=ask that, (amī)= perceptible and imperceptible, (ya)=those, (uccā)=worlds placed above are, (kena)=by whom, (nihitāsaḥ)=have been established by the God, (ṛkṣāḥ)=the sun, moon, stars etc. constellation worlds, (naktam)=during the night, (na)=not, (dadṛśre)=are visible, (te)=they, (divā)=during the day, (kuhacit)=where, (īyuḥ)=go, (iti)=such, (yāni)=which, (varuṇasya)=of the God or sun, (adabdhāni)=non-violent, (vratāni)=rules or deeds are, (yaiḥ)=by whom, (naktam) =during the night, (vicākaśat+san)= being well illuminated, (san)=are, light, (saḥ)=that, (racayitā)=creator, (ca)=and, (prakāśayitā)=illuminator, (asti)=is, (iti)=such, (utttaram)=are answers of the questions.
English Translation (K.K.V.)
We ask that perceptible and imperceptible, those above placed worlds have been established by which God. How the Sun, moon, stars etc. constellation worlds are not visible during the night. Where do they go during the day. Such are non-violent rules or deeds of God or Sun by whom worlds are being well illuminated during the night. The Moon etc. worlds receive light. That creator is the illuminator. Such are the answers of the questions.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra and the question from the first part of this mantra and their answer from the second part should be known that when someone asks who created these constellations, that is, the stars and who are holding them. In these you only are not the light but are illuminated by the light of the Sun and they do not go anywhere, but are not seen being covered during the day and in the night they are illuminated by the rays of the Sun, all these are the deeds of God to be thanked, that is what all gentlemen should know.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The worlds above and the worlds below and by whom are they sustained is taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We ask whither by day depart the constellations, moon and stars etc. that shine at night, set high in heaven above us ? The holy laws of God are inviolable and Immutable and by whose command through the night the moon moves on in splendor ? The answer is that God is the Creator and Illuminator of the Universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
१ - (ऋक्षा:) चन्द्रनक्षत्रादिलोकाः = 1 Constellations, the moon. and stars etc. २ - (अदब्धानि) अहिंसनीयानि = 2 Inviolable, eternal. ३ -(व्रतानि ) कर्माणि नियमा वा = 3 Acts or laws. ४ -(वरुणस्य) जगदीश्वरस्य सूर्यस्य वा = 4 Of God or the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In the first half of this Mantra, a question has been raised which has been answered by the latter half. When some one asks a learned person by whom have these constellations been made, who upholds them and where do they go in day time when they are visible at night ? then he should answer the question in the following manner:- All these worlds are created and upheld by God who is called by the term of Varuna-the most acceptable and the Best. They have no light of their own, but they shine by the light of the sun. They do not go anywhere, but are not visible in day time being covered by the light of the sun. They are visible at night, illuminated by the rays of the sun. All these wonderful acts are of God, to whom All thanks are due. Here ends the 14th Verga of the 2nd anuvaka.
Translator's Notes
In his commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has interpreted. वरुणस्य as परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा Of God or the sun. That Varuna stands for God is clear by the statement of the Veda itself which says- इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ ऋ० १.१६४.४६ ) Which we have quoted already and where it is clearly stated that One God is called by the wise by the name of Indra, Mitra and Varuna etc. to denote His different attributes. That Varuna also means the sun is clear from the following passage of the Jaimineeyopanishad Brahmana 4.27.3 वरुण एव सविता ( जैमि० उ० ४.२७. ३ ) i. e. Varuna is सविता or the sun. The meaning of the third line of the Mantra therefore as explained by Rishi Dayananda and substantiated by the above authentic literature is that the laws of God and under His command, of the sun are inviolable and eternal.
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