ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - सविता भगो वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
भग॑भक्तस्य ते व॒यमुद॑शेम॒ तवाव॑सा। मू॒र्धानं॑ रा॒य आ॒रभे॑॥
स्वर सहित पद पाठभग॑ऽभक्तस्य । ते॒ । व॒यम् । उत् । अ॒शे॒म॒ । तव॑ । अव॑सा । मू॒र्धान॑म् । रा॒यः । आ॒ऽरभे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे॥
स्वर रहित पद पाठभगऽभक्तस्य। ते। वयम्। उत्। अशेम। तव। अवसा। मूर्धानम्। रायः। आऽरभे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।
अन्वयः
हे परात्मन् ! भगभक्तस्य ते तव कीर्त्तिं यतो वयमुदशेम, तस्मात्तवावसा रायो मूर्द्धानं प्राप्यारभ आरब्धव्ये व्यवहारे नित्यं प्रवर्त्तामहे॥५॥
पदार्थः
(भगभक्तस्य) भगाः सर्वैः सेवनीया भक्ता येन तस्य (ते) तव जगदीश्वरस्य (वयम्) ऐश्वर्य्यमिच्छुकाः (उत्) उत्कृष्टार्थे (अशेम) व्याप्नुयाम। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाच्छपः स्थाने श्नुर्न। (तव) (अवसा) रक्षणेन (मूर्द्धानम्) उत्कृष्टभागम् (रायः) धनसमूहस्य (आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे। अत्र कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः (अष्टा०३.४.१४) अनेन ‘रभ’ धातोः केन् प्रत्ययः॥५॥
भावार्थः
येऽनुष्ठानेनेश्वराज्ञां व्याप्नुवन्ति त एवेश्वरात् सर्वतो रक्षणं प्राप्य सर्वेषां मनुष्याणां मध्य उत्तमैश्वर्य्या भूत्वा प्रशसां प्राप्नुवन्ति, कुतः? स एवेश्वरः स्वस्वकर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलं विभज्य ददात्यतः॥५॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर ही का प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे जगदीश्वर ! जिससे हम लोग (भगभक्तस्य) जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करनेवाले (ते) आपकी कीर्त्ति को (उदशेम) अत्यन्त उन्नति के साथ व्याप्त हों कि उसमें (तव) आपकी (अवसा) रक्षणादि कृपादृष्टि से (रायः) अत्यन्त धन के (मूर्द्धानम्) उत्तम से उत्तम भाग को प्राप्त होकर (आरभे) आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में नित्य प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर सकें॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपने क्रिया कर्म से ईश्वर की आज्ञा में प्राप्त होते हैं, वही उससे रक्षा को सब प्रकार से प्राप्त और सब मनुष्यों में उत्तम ऐश्वर्यवाले होकर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वही ईश्वर जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्यायव्यवस्था से विभाग कर फल देता है ॥५॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में परमेश्वर ही का प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे परात्मन् ! भगभक्तस्य ते तव कीर्त्तिं यतः वयम् उत् अशेम, तस्मात्त् तव अवसा रायः मूर्द्धानं प्राप्य आरभ आरब्धव्ये व्यवहारे नित्यं प्रवर्त्तामहे॥५॥
पदार्थ
हे (परात्मन्)=परमात्मा! (भगभक्तस्य) भगाः सर्वैः सेवनीया भक्ता येन तस्य= जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करनेवाले, (ते) तव जगदीश्वरस्य=आप जगदीश्वर की (कीर्त्तिं)=कीर्त्ति को, (यतः)=जिस से, (वयम्) ऐश्वर्य्यमिच्छुकाः=ऐश्वर्य्य के इच्छुक, (उत्) उत्कृष्टार्थे=अत्यन्त उन्नति के साथ (अशेम) व्याप्नुयाम=व्याप्त हों, (तस्मात्)=इसलिये, (तव)=तुम्हारे, (अवसा) रक्षणेन = रक्षण से, (रायः) धनसमूहस्य=धन समूह के लिये, (मूर्द्धानम्) उत्कृष्टभागम्=उत्कृष्ट भाग को, (प्राप्य)=प्राप्त होकर, (आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे=आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में, (नित्यम्)=नित्य, (प्रवर्त्तामहे)=प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर सकें ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो अपने क्रिया अनुष्ठान से ईश्वर की आज्ञा में प्राप्त होते हैं, वही ईश्वर के द्वारा सब प्रकार से रक्षा को प्राप्त करके सब मनुष्यों में उत्तम ऐश्वर्यवाले होकर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। कहाँ से वही ईश्वर जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्यायव्यवस्था से विभाग कर फल देता है ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (परात्मन्) परमात्मा! (भगभक्तस्य) जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करनेवाले (ते) आप जगदीश्वर के (कीर्त्तिं) कीर्त्ति को (यतः) जिस से (वयम्) ऐश्वर्य्य के इच्छुक हम (उत्) अत्यन्त उन्नति के साथ (अशेम) व्याप्त हों। (तस्मात्) इसलिये (तव) तुम्हारे (अवसा) रक्षण से (रायः) धन समूह के लिये, (मूर्द्धानम्) उत्कृष्ट भाग को (प्राप्य) प्राप्त होकर (आरभे) आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में (नित्यम्) नित्य (प्रवर्त्तामहे) प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर सकें॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (भगभक्तस्य) भगाः सर्वैः सेवनीया भक्ता येन तस्य (ते) तव जगदीश्वरस्य (वयम्) ऐश्वर्य्यमिच्छुकाः (उत्) उत्कृष्टार्थे (अशेम) व्याप्नुयाम। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाच्छपः स्थाने श्नुर्न। (तव) (अवसा) रक्षणेन (मूर्द्धानम्) उत्कृष्टभागम् (रायः) धनसमूहस्य (आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे। अत्र कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः (अष्टा०३.४.१४) अनेन 'रभ' धातोः केन् प्रत्ययः॥५॥
विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।
अन्वयः- हे परात्मन् ! भगभक्तस्य ते तव कीर्त्तिं यतो वयमुदशेम, तस्मात्तवावसा रायो मूर्द्धानं प्राप्यारभ आरब्धव्ये व्यवहारे नित्यं प्रवर्त्तामहे॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- येऽनुष्ठानेनेश्वराज्ञां व्याप्नुवन्ति त एवेश्वरात् सर्वतो रक्षणं प्राप्य सर्वेषां मनुष्याणां मध्य उत्तमैश्वर्य्या भूत्वा प्रशसां प्राप्नुवन्ति, कुतः? स एवेश्वरः स्वस्वकर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलं विभज्य ददात्यतः॥५॥
विषय
धन के शिखर पर
पदार्थ
१. हे [सवितः] - सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले प्रभो! (भगभक्तस्य) - धनों का विभाग करनेवाले (ते) - आपका (वयम्) - हम (उद् अशेम) - उत्कर्षेण व्यापन करें , अर्थात् हम इन धनों में आसक्त होने से ऊपर उठकर आपके उपासक बनें ।
२. हे प्रभो! (तव , अवसा) - आपके रक्षण से ही तो मैं (रायः) - धन के (मूर्धानम्) - शिखर को (आरभे) - [to reach or attain to] प्राप्त करता हूँ ,धन पर आरूढ़ होता हूँ और धन पर आरूढ़ होकर अपनी जीवन - यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण कर सकता हूँ । धन का पति बनकर लक्ष्मी - पति विष्णु के समान बननेवाला होता हूँ ।
३. आपके रक्षण से दूर होते ही यह धन मुझपर सवार हो जाता है और मैं लक्ष्मी का वाहन उल्लू बन जाता हूँ , मेरा ज्ञान नष्ट हो जाता है और मेरा अन्त निधन - मृत्यु में होता है । मैं जीवनभर धन का दास बना रहता हूँ , धन - निर्माण का यन्त्र - सा [Money - making machine] हो जाता हूँ , अतः हे प्रभो! मुझे आपका रक्षण सदा प्राप्त हो और मैं धन के शिखर पर रहूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - हम धनों के विभक्ता प्रभु का उपासन करें , प्रभु - रक्षण से धन के शिखर पर हों ।
विषय
ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे प्रभो ! हे राजन् ! ( भगभक्तस्य ) ऐश्वर्य के विभाग करने वाले ( ते ) तेरे ही ( वयम् ) हम ( अवसा ) रक्षण पालन और ज्ञान सामर्थ्य से ( उत् अरोम ) उन्नत, उत्कृष्ट पद को प्राप्त करें। और हम ( रायः ) ऐश्वर्य के ( मुर्धानम् ) शिरो भाग सर्वोच्च आदर प्रतिष्ठा के पद को ( आरभे ) प्राप्त करने में ( उत् अशेम ) उत्पन्न हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1078
ओ३म् भग॑भक्तस्य ते व॒यमुद॑शेम॒ तवाव॑सा ।
मू॒र्धानं॑ रा॒य आ॒रभे॑ ॥
ऋग्वेद 1/24/5
ऐश्वर्यशाली ऐ मेरे भगवन्,
हमको भी ऐश्वर्य दे,
हम चाहे जीवन को उन्नत बनाना,
हम सब को आश्रय दे,
की अपनेपन की जागृति मन में,
गुणवान् आत्माओं को तार दे
ऐश्वर्यशाली ऐ मेरे भगवन्,
हमको भी ऐश्वर्य दे
ऐश्वर्य प्रभु का सर्वत्र प्रवाहित,
प्राप्तकर्ता का उसी में है हित,
भगभक्त प्रभु करते ऐश्वर्य विभक्त,
मिलता यथा योग्य सबको हर वक्त,
या पापी हो या पुण्यात्मा,
अपना अपना जीवन सार्थक करना,
बारंबार जन्म या तो लो,
या तो लिया जन्म सार्थक करो,
जन्म मरण का जो बन्धन ना चाहो,
करो दूर चित्तवृत्तियां तम से
ऐश्वर्यशाली ऐ मेरे भगवन्,
हमको भी ऐश्वर्य दे
हे प्यारे प्रभु रक्षक!
झुक जाते हैं मस्तक,
ऐश्वर्य की चोटी पर पहुँचा दे,
उत्कर्ष रीति से ऐश्वर्य पा जाएँ ,
छल-छिद्र को मन से दूर करें,
होवे प्रचुरता ऐश्वर्य की,
आनन्द में डूबे उस माधुर्य की,
ईश्वर के सदृश भगभक्त बनें,
उसके ही मार्ग पे हर वक्त चलें,
पाया ऐश्वर्य हम दान करें,
प्रभु से पाया प्रभु को ही वार दें
ऐश्वर्यशाली ऐ मेरे भगवन्,
हमको भी ऐश्वर्य दे,
हम चाहे जीवन को उन्नत बनाना,
हम सब को आश्रय दे,
की अपनेपन की जागृति मन में,
गुणवान् आत्माओं को तार दे
ऐश्वर्यशाली ऐ मेरे भगवन्,
हमको भी ऐश्वर्य दे
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- ४.६.२०१२ ११.२० रात्रि
स्थल :- जीवन प्रभात गांधीधाम
राग :- दरबारी
गायन समय रात्रिका तीसरा प्रहर, ताल दादरा ६ मात्रा
शीर्षक :- हम ऐश्वर्य की चोटी पर चढ़ जाएं भजन ६५५ वां
*तर्ज :- *
700-0101
भग-भक्त = सेवा करने वाले भक्त
विभक्त = बराबर बांटना
छल-छिद्र = छल पूर्ण व्यवहार
प्रचुरता = अधिकता
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
हम ऐश्वर्य की चोटी पर चढ़ जाएं
इस मन्त्र में उसी भजनिय ऐश्वर्यवान परमेश्वर को दूसरे प्रकार से वर्णित किया गया है ।
मन्त्र में भगवान का एक विशेषण दिया गया है 'भगभक्त' भग -भक्त का अर्थ होता है भग अर्थात् भजन करने योग्य, सेवन करने योग्य, सुखदायक, ऐश्वर्य को विभक्त करने वाला, बांटने वाला। भगवान् सेवन करने योग्य ऐश्वर्य के विभक्ता हैं। अपने ऐश्वर्य को वे सब में विभक्त करते रहते हैं। वे अपने ऐश्वर्या से किसी को वंचित नहीं होने देते। क्षुद्र से क्षुद्र और बड़े से बड़े प्राणी को, सबको प्रभु का ऐश्वर्य यथा योग्य रूप में निरन्तर मिल रहा है। पापियों को भी वह मिल रहा है। उससे कोई भी वंचित नहीं है। तभी तो हम सब प्राणी अपना अपना जीवन धारण कर रहे हैं, और जीवन में न्यून अधिक सुख प्राप्त कर रहे हैं जिस क्षण में प्रभु हमें अपने ऐश्वर्य से पूर्ण रूप से वंचित करने का निश्चय कर लेते हैं,उसके आगे तो हमारा जीवन ही नहीं रह पाता। हमें मृत्यु के मुख में चले जाना पड़ता है। भगवान का ऐश्वर्य यथा योग्य रूप में सब में बढ़ रहा है ।मन्त्र में कहा गया है कि ऐश्वर्य के भजने वाले हे देव! आपके हम उपासक लोग आपकी रक्षा द्वारा ऐश्वर्य की चोटी को प्राप्त करें। भगवान के ऐश्वर्य की चोटी उन्हें प्राप्त होती हैं, जिनकी चित्तवृत्ति सदा भगवान् में लगी रहती है ।जो सदा भगवान को स्मरण रखते हैं। भगवान का रूप जिनके मन की आंखों के आगे सदा रहता है। और इसीलिए जो भगवान के गुणों से आकृष्ट होकर उन्हें अपने चरित्र में धारण करते हैं, और इस प्रकार जो भगवान के अपने बन जाते हैं, उन्हें भगवान का ऐश्वर्य पूर्णरूप से प्राप्त हो जाता है।
हमें जो बहुत बार दु:ख में दब जाना पड़ता है, हमसे जो सुख आनन्द बहुत बार दूर भाग गया होता है, उसका कारण यह होता है कि हम प्रभु के नहीं रहते। हम प्रभु से दूर चले जाते हैं । हमारा चरित्र प्रभु के गुणों से विरहित और इसलिए पापमय बन जाता है। जब तक हम प्रभु के रहते हैं प्रभु के सत्य न्याय दया ज्ञान बल आदि गुणों का समावेश हमने रहता है तब तक हमें प्रभु का ऐश्वर्य निरन्तर प्राप्त होता रहता है ।ज्यों ज्यों हम प्रभु से परे हटते जाते हैं त्यों त्यों हमसे ऐश्वर्य छिनने लगता है, और हमारा दु:ख संकट बढ़ जाता है। मन्त्र में कहा गया है कि आपके हम, आपकी रक्षा द्वारा ऐश्वर्य की चोटी को प्राप्त करें ।इसका भाव तो स्पष्ट ही है जो प्रभु के बनकर रहते हैं उन्हें प्रभु की रक्षा प्राप्त होती है। और उस रक्षा में रहकर खूब उन्नति करते हैं ।उन्हें खूब ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। ऐश्वर्य की चोटी पर चढ़ जाते हैं। इसके आगे यह है कि यह ऐश्वर्य हम छल- छिद्र से नहीं पायें। नाही पाप कर्म करके पाएं। केवल उत्कृष्ट रीति से हम इस ऐश्वर्य को प्राप्त करें ।मन्त्र में एक शब्द "रै" आता है यह शब्द 'रा' धातु से बनता है।
जिसका अर्थ दान होता है कि अश्व ऐश्वर्य का ग्रहण दान करने के लिए पाएं। हमारे पास जितने प्रकार का भी ऐश्वर्य हो हमें उसे औरों को भी देना चाहिए ।हमें अपनी शारीरिक शक्ति मानसिक शक्ति आत्मिक शक्ति और प्राकृतिक पदार्थों के संग्रह की शक्ति सब प्रकार के ऐश्वर्य की शक्ति दूसरों के कल्याण में लगानी चाहिए। जिस प्रकार भगवान भगतभक्त हैं, ऐश्वर्या को बांटने वाले हैं, उसी प्रकार हमें भी भग- भक्त होना चाहिए, जिससे लोगों का भला हो ।ऐसे लोगों को कई प्रकार भलाई के कार्यों में लगे रहना चाहिए । तभी हमारे ऐश्वर्यों की चरितार्थता होगी। तभी हमारे में रै पन आता है।
हे मेरे आत्मा तू भी अपने को भगवान का बना ले। फिर तुझे उनकी रक्षा प्राप्त हो जाएगी उस रक्षा में रहते हैं हुए तुझे पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त होंगे। तेरे सारे दारिद्र्य कट जाएंगे। तेरे अपने ही दारिद्र्य नहीं कट जाएंगे तू औरों के भी दु:ख दारिद्र्य काटने वाला बन जाएगा।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे आपले कार्य करताना ईश्वराच्या आज्ञा पाळतात त्यांचे रक्षण तोच करतो. सर्व माणसांमध्ये तीच उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करून प्रशंसेस पात्र ठरतात. कारण तोच ईश्वर जीवांना त्यांच्या कर्मानुसार न्यायव्यवस्थेप्रमाणे फळ देतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord of glory, we pray, let us receive our share of divine dispensation with your protection and grace in order to rise to the top in wealth and reach the glory of your presence.
Subject of the mantra
Even then, in this mantra as well God only has been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (parātman)=God, (bhagabhaktasya)=who deservedly divide serviceable goods of all, (te)=of You God, (kīrttiṃ)=bay, (yataḥ)=by which, (vayam)=desirous of majesty, we, (ut)=with great progress, (aśema)=pervade, (tasmātt)=therefore, (tava) =your, (avasā)=by protection, (rāyaḥ)=for wealth accumulation, (mūrddhānam)=to the best part, (prāpya)=having obtained, (ārabhe)=in start-up practices, (nityam)=always, (pravarttāmahe)=be inclined, in other words, always make efforts to achieve that.
English Translation (K.K.V.)
O God! Who deservedly divides serviceable goods of all and bay of You God, by which we desirous of majesty pervade with great progress. Therefore, by your protection for wealth accumulation to the best part, having obtained in start-up practices, always be inclined, in other words, always make efforts to achieve that.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those who are received under the command of God by performing their rituals, they, having received protection in all respects from God are praised by being the best of all human beings. From where does the same God give rewards to the living beings according to their deeds by dividing them by the ascertainment of the justice system.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, let us attain the reputation of Thee whose devotees become revered everywhere. Let us therefore be assiduous in attaining the surmit of affluence, through Thy protection who art the Possessor of wealth. Let us be engaged in doing noble works.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(भगभक्तस्य) भगाः सर्वैः सेवनीया भक्ता येन तस्य = By whose grace the devotees are revered by all. (आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे = In the work to be commenced.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who obey the commands of God, get His protections and possessing good wealth, become praiseworthy everywhere. Because, it is God alone Who gives fruit of actions done by the souls.
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