ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 12
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तदिन्नक्तं॒ तद्दिवा॒ मह्य॑माहु॒स्तद॒यं केतो॑ हृ॒द आ वि च॑ष्टे। शुनः॒शेपो॒ यमह्व॑द्गृभी॒तः सो अ॒स्मान्राजा॒ वरु॑णो मुमोक्तु॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । नक्त॑म् । तत् । दिवा॑ । मह्य॑म् । आ॒हुः॒ । तत् । अ॒यम् । केतः॑ । हृ॒दः । आ । वि । च॒ष्टे॒ । शुनः॒शेपः॑ । यम् । अह्व॑त् । गृ॒भी॒तः । सः । अ॒स्मान् । राजा॑ । वरु॑णः । मु॒मो॒क्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥
स्वर रहित पद पाठतत्। इत्। नक्तम्। तत्। दिवा। मह्यम्। आहुः। तत्। अयम्। केतः। हृदः। आ। वि। चष्टे। शुनःशेपः। यम्। अह्वत्। गृभीतः। सः। अस्मान्। राजा। वरुणः। मुमोक्तु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
विद्वांसो यन्नक्तं दिवाऽहर्निशं ज्ञानमाहुर्यश्च मह्यं हृदः केत आविचष्टे तत्तमहं मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुनःशेपो विद्वानह्वत् येन वरुणो राजाऽस्मान् पापाद्दुःखाच्च मुमोक्तु मोचयति वा सम्यग्विदितः उपयुक्तः सन्नीश्वरः सूर्य्योऽपि तदा दारिद्र्यं नाशयति योऽस्माभिर्गृहीत उपास्य उपकृतश्च॥१२॥
पदार्थः
(तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम् (इत्) एव (नक्तम्) रात्रौ (तत्) शास्त्रबोधयुक्तम् (दिवा) दिवसे (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे (आहुः) कथयन्ति (तत्) गुणदोषविवेचकः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (अयम्) प्रत्यक्षः (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.४) (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये (आ) सर्वतः (वि) विविधार्थे (चष्टे) प्रकाशयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः। श्वा शुपायी शवतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः। (निरु०३.१८) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः। (निरु०३.२१) (यम्) परमेश्वरं सूर्यं वा (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडर्थे लुङ्। (गृभीतः) गृहीतः। हृग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वम्। अनेनात्रः हस्य भः (सः) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (मुमोक्तु) मोचयति वा। अत्रान्त्यपक्षे लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुरन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥१२॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवमुपदेष्टव्यं मन्तव्यं च विद्वांसो वेदा ईश्वरश्च मह्यं यं बोधमुपदिशन्ति, य चाहं शुद्धया प्रज्ञया निश्चिनोमि तमेव मया सर्वैर्युष्माभिश्च स्वीकृत्य पापाचरणाद्दूरे स्थातव्यम्॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
विद्वान् लोग (नक्तम्) रात (दिवा) दिन जिस ज्ञान का (आहुः) उपदेश करते हैं (तत्) उस और जो (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करनेवाले मेरे लिये (हृदः) मन के साथ आत्मा के बीच में (केतः) उत्तम बोध (आविचष्टे) सब प्रकार से सत्य प्रकाशित होता है (तदित्) उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान को मैं मानता कहता और करता हूँ (यम्) जिस को (शुनःशेपः) अत्यन्त ज्ञानवाले विद्याव्यवहार के लिये प्राप्त और परमेश्वर वा सूर्य्य का (अह्वत्) उपदेश करते हैं, जिससे (वरुणः) श्रेष्ठ (राजा) प्रकाशमान परमेश्वर हमारी उपासना को प्राप्त होकर छुड़ावे और उक्त सूर्य्य भी अच्छे प्रकार जाना और क्रिया कुशलता में युक्त किया हुआ बोध (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करनेवाले मुझ को प्राप्त होता है (सः) हम लोगों को योग्य है कि उस ईश्वर की उपासना और सूर्य्य का उपयोग यथावत् किया करें॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को इस प्रकार उपदेश करना तथा मानना चाहिये कि विद्वान् वेद और ईश्वर हमारे लिये जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं तथा हम जो अपनी शुद्ध बुद्धि से निश्चय करते हैं, वही मुझ को और हे मनुष्य ! तुम सब लोगों को स्वीकार करके पाप अधर्म करने से दूर रक्खा करे॥१२॥
विषय
फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
विद्वांसःयत् नक्तं दिवा अहर्निशं ज्ञानम् आहुः यः च मह्यं हृदः केतः आ वि चष्टे तत् तम् अहम् मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुनःशेपः विद्वान् अह्वत् येन वरुणः राजा अस्मान् पापात् दुखाःत्च मुमोक्तु (मोचयति वा) सम्यक् विदितः उपयुक्तः सन् ईश्वरः सूर्य्यः अपि तदा दारिद्र्यं नाशयति यः अस्माभिः गृहीतः उपास्यः उपकृतः च॥१२॥
पदार्थ
(विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (यत्)=जिस, (नक्तम्) रात्रौ=रात्रि में, (दिवा) दिवसे=दिन में, (अहर्निशम्)=दिनरात, (ज्ञानम्)=ज्ञान को, (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे=विद्या धन की इच्छा करनेवाले मेरे लिये, (यः)=जो, (च)=और, (मह्यम्)=मेरे लिये, (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये= मन के साथ आत्मा के बीच में, (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः=उत्तम बोध, (आ) सर्वतः=सब प्रकार से, (वि) विविधार्थे=विविध रूप से, (चष्टे) प्रकाशयति=प्रकाशित होता है, (तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम्=उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान को, (तत्) शास्त्र के बोध से युक्त, (तम्)=उस ज्ञान को, (अहम्)=मैं, (मन्ये)=मैं मानता हूँ, (वदामि)=बोलता हूँ, (वा)=अथवा, (करोमि)=करता हूँ, (यम्) परमेश्वरं सूर्यं वा=जो परमेश्वर या सूर्यं, (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत् इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य= अत्यन्त ज्ञानवाले विद्याव्यवहार के लिये प्राप्त, (सः) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः=पूर्वोक्त वेदविद्या के अभ्यास से उत्पन्न बोध वाले, (विद्वान्)=विद्वान् का, (अह्वत्) आह्वयति=आह्वान करता है, (येन)=जिसके द्वारा, (वरुणः) वरः=श्रेष्ठ, (राजा) प्रकाशमानः=प्रकाशमान, (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान्=हम पुरुषार्थियों और धार्मिकों को, (पापात्)=पाप से, (च)=और, (दुखाःत्)=दुख से, (मुमोक्तु) मोचयति वा=मुक्त करता है, (सम्यक्)=अच्छी तरह से, (विदितः)=विदित है, (उपयुक्तः+सन्)=उपयुक्त होते हुए, (ईश्वरः)=ईश्वरः और (सूर्य्यः)=सूर्य्य, (अपि)=भी, (तदा)=तब, (दारिद्र्यम्)=दरिद्रता को, (नाशयति)=नष्ट करता है, (यः)=जो, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (गृभीतः) गृहीतः=ग्रहण किये गये, (उपास्यः)=उपास्य, (च)=और, (उपकृतः)= उपकार करने वाले हैं॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को इस प्रकार उपदेश करना तथा मानना चाहिये कि विद्वान्, वेद और ईश्वर हमारे लिये जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं और हम जो अपनी शुद्ध प्रज्ञा से निश्चय करते हैं, वही मुझ को और सब मनुष्यों को तुम सब लोगों द्वारा स्वीकार करके पाप के आचरण से दूर रखना चाहिए॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(विद्वांसः) विद्वान् लोग (यत्) जिस (नक्तम्) रात्रि (दिवा) और दिन में (ज्ञानम्) ज्ञान और (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करने वाले मेरे लिये (च) और (हृदः) मन के साथ आत्मा के बीच में (यः) जो (केतः) उत्तम बोध (आ) सब प्रकार से (वि) विविध रूप से (चष्टे) प्रकाशित होते हैं। (तत्) उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान से युक्त (तम्) उस ज्ञान को (अहम्) मैं (मन्ये) मानता हूँ, (वदामि) बोलता हूँ (वा) और (करोमि) उसी के अनुसार [आचरण] करता हूँ। (यम्) जो परमेश्वर या सूर्यं (शुनःशेपः) अत्यन्त ज्ञानवाले विद्याव्यवहार के लिये प्राप्त (सः) पूर्वोक्त वेदविद्या के अभ्यास से उत्पन्न बोध वाले (विद्वान्) विद्वान् का (अह्वत्) आह्वान् करता है। (येन) जिसके द्वारा (वरुणः) श्रेष्ठ परमेश्वर, (राजा) प्रकाशमान (अस्मान्) हम पुरुषार्थियों और धार्मिकों को (पापात्) पाप (च) और (दुखाःत्) दुख से (मुमोक्तु) मुक्त करता है। (सम्यक्) अच्छी तरह से (विदितः) विदित और (उपयुक्तः+सन्) उपयुक्त होते हुए (ईश्वरः) ईश्वर [और] (सूर्य्यः) सूर्य्य (अपि) भी (तदा) तब (दारिद्र्यम्) दरिद्रता को (नाशयति) नष्ट करता है। वह ईश्वर (यः) जो (अस्माभिः) हमारे द्वारा (गृभीतः) ग्रहण किये गये, (उपास्यः) उपास्य (च) और (उपकृतः) उपकार करने वाले हैं ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम् (इत्) एव (नक्तम्) रात्रौ (तत्) शास्त्रबोधयुक्तम् (दिवा) दिवसे (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे (आहुः) कथयन्ति (तत्) गुणदोषविवेचकः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (अयम्) प्रत्यक्षः (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.४) (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये (आ) सर्वतः (वि) विविधार्थे (चष्टे) प्रकाशयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः। श्वा शुपायी शवतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः। (निरु०३.१८) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः। (निरु०३.२१) (यम्) परमेश्वरं सूर्यं वा (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडर्थे लुङ्। (गृभीतः) गृहीतः। हृग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वम्। अनेनात्रः हस्य भः (सः) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (मुमोक्तु) मोचयति वा। अत्रान्त्यपक्षे लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुरन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥१२॥
विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- विद्वांसो यन्नक्तं दिवाऽहर्निशं ज्ञानमाहुर्यश्च मह्यं हृदः केत आविचष्टे तत्तमहं मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुनःशेपो विद्वानह्वत् येन वरुणो राजाऽस्मान् पापाद्दुःखाच्च मुमोक्तु मोचयति वा सम्यग्विदितः उपयुक्तः सन्नीश्वरः सूर्य्योऽपि तदा दारिद्र्यं नाशयति योऽस्माभिर्गृहीत उपास्य उपकृतश्च॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवमुपदेष्टव्यं मन्तव्यं च विद्वांसो वेदा ईश्वरश्च मह्यं यं बोधमुपदिशन्ति, य चाहं शुद्धया प्रज्ञया निश्चिनोमि तमेव मया सर्वैर्युष्माभिश्च स्वीकृत्य पापाचरणाद्दूरे स्थातव्यम्॥१२॥
विषय
प्रभुस्तवन व मुक्ति
पदार्थ
१. (तत् इत्) - यह वरुण स्तवन की बात ही (नक्तम्) - रात्रि में (तत् दिवा) - उसी स्तवन की बात को दिन में (मह्यम्) - मुझे (आहुः) सब विद्वान् कहते हैं , अर्थात् दिन - रात सभी विद्वान् यही कहते हैं कि "वरुण का ही स्तवन करना चाहिए ।"
२. (अयम्) - यह (हृदः केतः) - मेरे अपने हृदय का ज्ञान भी (तत्) - इसी वरुणस्तवन की बात को (आविचष्टे) - बारम्बार कहता है ।
३. अतः मैं तो यही कहता हूँ कि (शुनः शेपः) - अपने - आपको सुखी बनाने की इच्छावाला यह पुरुष (गृभीतः) - इन विषयों से पकड़ा हुआ (यम्) - जिस वरुण को (अह्वत्) - पुकारता है , (सः वरुणः राजा) - वह नियामक प्रभु (अस्मान्) - हमें (मुमोक्तु) - इन विषय - बन्धनों से मुक्त करे ।
४. संसार के विषय इतने अधिक आकर्षक व प्रबल हैं प्रभु - कृपा से ही हम इनके बन्धनों से छूट सकते हैं , अतः हम निरन्तर प्रभु - स्तवन करते हुए इनसे बचने के लिए प्रयत्नशील हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्तवन ही हमें विषय - बन्धन से छुड़ा सकता है ।
विषय
शुनःशेप अर्थात् सुखाभिलाषी मुमुक्षु बद्ध जीव की प्रार्थना
भावार्थ
विद्वान् पुरुष, माता पिता, आचार्य गण और चारों वेद (नक्तम्) रात्रि को ( तत् ) उस परम ज्ञान का ही ( मह्यम् आहुः ) मुझे उपदेश करें। और वेही विद्वान् जन और वेद मन्त्र ( मह्यम् ) मुझे (दिवा) दिन के समय भी ( तत् ) उसी परमसुख प्राप्ति कराने वाले ज्ञान का ( आहुः ) उपदेश करें । ( अयं केतः ) जो वेद ज्ञान ( हृदः ) हृदय को ( आ विचष्टे ) सब प्रकार से प्रकाशित करता है। ( शुनः शेपः ) सुख और उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने वाला, परम सुखाभिलाषी मुमुक्षु और जिज्ञासु विद्वान् ( गृभीतः ) बन्धन में बंध कर ( यम् ) जिस परमेश्वर को ( अह्वत् ) पुकारता है, स्मरण करता है ( सः ) वह ( राजा ) सब में प्रकाशमान, सूर्य के समान तेजस्वी ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ( अस्मान् ) हम बद्ध जीवों को (मुमोक्तु) अन्धकार से सूर्य के समान अज्ञानमय बंधनों से मुक्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांना या प्रकारे उपदेश करावा व त्यांनी तो मानावा की विद्वान, वेद व ईश्वर आमच्यासाठी ज्या ज्ञानाचा उपदेश करतात व जो आम्ही पवित्र बुद्धीने निश्चय करतो तोच मी व हे माणसांनो, तुम्ही सर्वांनी स्वीकारावा व अधर्मापासून व पापापासून दूर राहावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Of that the wise men nightly speak to me. Day in and day out they sing of that for me. And the same presence this voice of the heart reveals to me. The sagely scholar, inspired and possessed, proclaims His honour and dominion. May the same ruling lord of glory, Varuna, deliver us from sin and slavery unto light and freedom.
Subject of the mantra
Then, what kind of that Vauņa (The supreme God) is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vidvāṃsaḥ)=The scholars, (yat)=which, (naktam)=night, (divā)= in the night, (jñānam)=knowledge, (mahyam)=for me who desire for wealth, (ca)=and, (hṛdaḥ)=between soul and mind, (yaḥ)=which, (ketaḥ)=good sense, (ā)=in all respects, (vi)=variously, (caṣṭe)=get revealed, (tat)=to same knowledge of Vedas, in other words, having specific knowledge, (tam)=to that wisdom, (aham)=I, (manye)=agree, (vadāmi)=I speak, (vā)=and, (karomi) = I behave accordingly, [ācaraṇa]=behavior, (yam)=that God or sun, (śunaḥśepaḥ)=achieved for extremely knowledgeable learning habit, (saḥ)=sense of wisdom yielded by afore said knowledge of Vedas, (vidvān)=of scholar, (ahvat)=I invoke, (yena)=by whom, (varuṇaḥ)=the supreme God, (rājā)=radiant, (asmān)=to industrious and religious us, (pāpāt)=from sin, (ca)=and, (dukhāḥt)=from sorrow, (mumoktu)=liberates, (samyak)=properly, (viditaḥ)=be known, [aur]=and, (upayuktaḥ+san)= being appropriate, (īśvaraḥ)=God, [aura]=and, (sūryyaḥ)=sun, (api)=also, (tadā)=then, (dāridryam)=to poverty, (nāśayati)=destroys, [vaha İshvara]=that God, (yaḥ)=that, (asmābhiḥ)=by us, (gṛbhītaḥ)=accepted, (upāsyaḥ)=worthy of worship, (ca)=and, (upakṛtaḥ)=is graceful.
English Translation (K.K.V.)
The scholars who desire for knowledge and wealth during night and day for me between soul and mind, which good sense in all respects, variously get revealed. To same knowledge of Vedas, in other words, having specific knowledge; to that wisdom, I agree, speak and accordingly I behave. That God or Sun, achieved for extremely knowledgeable learning habit, I invoke scholars having sense of wisdom yielded by aforesaid knowledge of Vedas. By whom the Supreme, Radiant God liberates industrious and righteous us from sins and sorrows. He is properly known and is befitting. God and Sun, being well-known and appropriate, then destroy poverty as well. The God, who is accepted by us is worshiped and is beneficent.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra. All men should preach and believe in such a way that the knowledge which the scholars, Vedas and God preach for us and what we decide by our pure intellect, that should be accepted by all of you, me and all men and must keep away from the conduct of sin.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the nature of that Varuna is again taught in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Learned persons who are desirous of knowledge by night and by day repeat this knowledge based upon the Vedas and other Shastras. This too the thought of my own heart, repeated. May He-the Sovereign God Whom a man with a touch of knowledge invokes or sincerely prays, release us from all sins. May the knowledge acquired from the study of the Vedas set us-industrious and righteous persons free from all sinful tendencies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(केतः ) प्रज्ञाविशेषो बोधः | केत इति प्रज्ञानाम ( निघo ३.४ ) = Good knowledge. (शुनः शेपः) शुन: विज्ञानवतः इव शेपः विद्यास्पर्शः, यस्य सः श्वा शुपायी शवतेर्वा स्याद गतिकर्मण: (निघo ३.१८ ) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मण (निरु० ३.२१) । = A man whose touch of knowledge is like a wise man's. (अस्मान् ) पुरुषार्थिनो धार्मिकान = To us industrious and righteous persons. (वरुण:) श्रेष्ठ: = Good.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should thus believe and preach to others. We should keep ourselves away from all sins by accepting what God, the Vedas and the learned persons tell us and which I also determine with pure intellect. You should accept the same.
Translator's Notes
शुन:-विज्ञानवत: is derived from शिव गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here the first meaning of knowledge is meant. It is wrong on the part of Sayanacharya, Wilson, Griffith and others to take the word शुनः शेप as the name of a particular person as there cannot be any historical reference in the Vedas, they being eternal. आख्या प्रबचनात्, परन्तु श्रुतिसामान्यम् ( मीमांसा १, ३१, ३३ ) These and other aphorisms of the Meemansa are quite clear on the subject. Shri Kapali Shastri a famous Vedic Scholar of the South and a pupil of Ramana Maharshi and Yogi Shri Aurobindo has given the following derivative meaning of शुनःशेप (Shunah Shepa ) in his Siddhanjana Commentary. शुन इति सुखनाम ( निघ० ३.६ ) शेपो रश्मिः अन्यत्र व्याख्यातम् शिपयो रश्मय उच्यन्ते (निरुक्ते ५.२.८) (ऋग्वेद प्रथमाष्टकस्य सिद्धाञ्जनभाष्ये श्री कपालिशास्त्रिकृते (व० १ पृ० २५८) । Shri Madhava Pundalika Pandit ( worthy disciple of Shri Kapali Shastri) in his illuminating essay on the 'Legend of Shunah Shepa" in the "Mystic Approach" to the Veda and the Upanishad throws further light on the subject and says regarding the term Shunah Shepa "What does Shunaha Shepa cannot ? Shunah denotes Bliss, Joy ( Sukha Shabda Vachi ) and Shepas ray ( Rashmi) P.96). Rishi Dayananda himself has given another meaning to the word "Shunah Shepa" which is akin to what we have given above according to Shri Kapali Shastri and Shri M. P. Panditin his commentary on Rig. 5.2.7. सुखस्य प्रापकम् = One who causes happiness or joy.
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