ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒बु॒ध्ने राजा॒ वरु॑णो॒ वन॑स्यो॒र्ध्वं स्तूपं॑ ददते पू॒तद॑क्षः। नी॒चीनाः॑ स्थुरु॒परि॑ बु॒ध्न ए॑षाम॒स्मे अ॒न्तर्निहि॑ताः के॒तवः॑ स्युः॥
स्वर सहित पद पाठअ॒बु॒ध्ने । राजा॑ । वरु॑णः । वन॑स्य । ऊ॒र्ध्वम् । स्तूप॑म् । द॒द॒ते॒ । पू॒तऽद॑क्षः । नी॒चीनाः॑ । स्थुः॒ । उ॒परि॑ । बु॒ध्नः । ए॒षा॒म् । अ॒स्मे इति॑ । अ॒न्तः । निऽहि॑ताः । के॒तवः॑ । स्यु॒रिति॑ स्युः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीनाः स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥
स्वर रहित पद पाठअबुध्ने। राजा। वरुणः। वनस्य। ऊर्ध्वम्। स्तूपम्। ददते। पूतऽदक्षः। नीचीनाः। स्थुः। उपरि। बुध्नः। एषाम्। अस्मे इति। अन्तः। निऽहिताः। केतवः। स्युरिति स्युः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वायुसवितृगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यः पूतदक्षो राजा वरुणो जलसमूहस्सविता वा बुध्ने वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते यस्य नीचीनाः केतव एषामुपरि स्थुस्तिष्ठन्ति पदान्तर्निहिता आप स्युस्सन्ति यदन्तःस्थो बुध्नश्च ते केतवोऽस्मेऽस्मास्वन्तर्निहिताश्च भवन्तीति विजानीत॥७॥
पदार्थः
(अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति। (निरु०१०.४४) (राजा) यो राजते प्रकाशते। अत्र कनिन्युवृषितक्षि० (उणा०१.१५४) अनेन कनिन्प्रत्ययः। (वरुणः) श्रेष्ठः (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य (ऊर्ध्वम्) उपरि (स्तूपम्) किरणसमूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः। (निरु०१०.३३) (ददते) ददाति (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः (स्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (उपरि) ऊर्ध्वम् (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः। बुध्न इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम् (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तमीस्थाने शे आदेशः। (अन्तः) मध्ये (निहिताः) स्थिताः (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा (स्युः) सन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्॥७॥
भावार्थः
न चैवायं सूर्य्यो रूपरहितेनान्तरिक्षं प्रकाशयितुं शक्नोति तस्माद्यान्यस्योपर्य्यधःस्थानि ज्योतींषि सन्ति, तान्येव मेघस्य निमित्तानि ये जलपरमाणवः किरणस्थाः सन्ति, यथा नैव तेऽतीन्द्रियत्वाद् दृश्यन्त एवं वाय्वग्निपृथिव्यादीनामपि सूक्ष्मा अवयवा अन्तरिक्षस्था वर्त्तमाना अपि न दृश्यन्त इति॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में वायु और सविता के गुण प्रकाशित करते हैं-
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम जो (पूतदक्षः) पवित्र बलवाला (राजा) प्रकाशमान (वरुणः) श्रेष्ठ जलसमूह वा सूर्य्यलोक (अबुध्ने) अन्तरिक्ष से पृथक् असदृश्य बड़े आकाश में (वनस्य) जो कि व्यवहारों के सेवने योग्य संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उस पर (स्तूपम्) अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है, जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः) किरणें (एषाम्) इन संसार के पदार्थों (उपरि) पर (स्थुः) ठहरती हैं (अन्तर्हिताः) जो उनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ (स्युः) हैं और जो (केतवः) किरणें वा प्रज्ञान (अस्मे) हम लोगों में (निहिताः) स्थिर (स्युः) होते हैं, उनको यथावत् जानो॥७॥
भावार्थ
जिससे यह सूर्य्य रूप के न होने से अन्तरिक्ष का प्रकाश नहीं कर सकता, इससे जो ऊपरली वा बिचली किरणें हैं, वे ही मेघ की निमित्त हैं, जो उनमें जल के परमाणु रहते तो हैं, परन्तु वे अतिसूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। इसी प्रकार वायु अग्नि और पृथिवी आदि के भी अतिसूक्ष्म अवयव अन्तरिक्ष में रहते तो अवश्य हैं, परन्तु वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते॥७॥
विषय
अब इस मन्त्र में वायु और सविता के गुण प्रकाशित करते हैं।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यः पूतदक्षः राजा वरुणः जलसमूहः सविता वा अबुध्ने वनस्यः ऊर्ध्वं स्तूपं ददते यस्य नीचीनाः केतवः एषाम् उपरि स्थुः तिष्ठन्ति पदान्तः निहिताः आप स्युः सन्ति यद् अन्तः स्थः बुध्नः च ते केतवः अस्मे अस्मासु अन्तः निहिताः च भवन्ति इति विजानीत॥७॥
पदार्थ
हे (मनुष्या)=मनुष्यों! (यूयम्)=तुम, (यः)=जो, (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः=वह जिसका बल पवित्र और दक्ष है, (राजा) यो राजते प्रकाशते=प्रकाशमान, (वरुणः) श्रेष्ठः=श्रेष्ठ, (जलसमूहः)=जलसमूह, (सविता)=सर्वेषां प्रसविता=सब का उत्पादक, (वा)=अथवा, (अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति=अन्तरिक्ष के समान बड़े आकाश में, (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य=सेवनीय संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उपरि=ऊपर, (स्तूपम्) किरणसमूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः=अपनी किरणों को, (ददते) ददाति=छोड़ता है, (यस्य)=जिसकी, (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः=नीचे को गिरते हुए, (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा= किरणें, (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम्=इन संसार के पदार्थों को, (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः=जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ, (स्थुः) तिष्ठन्ति=ठहरती हैं, (पदान्तः) प्राप्तव्य स्थान के बीच में, (निहिताः) स्थिताः=स्थित, (आप)=जल, (स्युः) सन्ति=हैं, (यद्)=जिसके, (अन्तः) मध्ये=बीच में, (स्थः) तिष्ठन्ति=ठहरती हैं, (बुध्नः)=जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ, (च)=भी, (ते)=वे, (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा=किरणे, (अस्मे) अस्मासु=हम लोगों में, (अन्तः) मध्ये= बीच में, (निहिताः) स्थिताः= स्थित, (च)=भी, (भवन्ति)=होते हैं, (इति)=ऐसा, (विजानीत)=जानो॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
और न ही यह सूर्य रूप रहित अन्तरिक्ष में प्रकाश कर सकता है, इसलिए जो इसके ऊपर के प्रारम्भिक स्थान चमकते हुए हैं। वे ही मेघ के निमित्त हैं, जो उनमें जल के परमाणु किरणों में रहते तो हैं, जैसे वे अतिसूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, इसी प्रकार वायु अग्नि और पृथिवी आदि के भी अतिसूक्ष्म अवयव अन्तरिक्ष में रहते तो अवश्य हैं, परन्तु वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्या) मनुष्यों! (यूयम्) तुम (इति) ऐसा (विजानीत) जानो कि (यः) जो (पूतदक्षः) जिसका बल पवित्र और दक्ष है, वह (राजा) प्रकाशमान, (वरुणः) श्रेष्ठ (जलसमूहः) जलसमूह (सविता) सब का उत्पादक (वा) अथवा (अबुध्ने) अन्तरिक्ष के समान बड़े आकाश में (वनस्य) सेवनीय संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) ऊपर (स्तूपम्) अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है। (यस्य) जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः) किरणें (एषाम्) इन संसार के पदार्थों को (बुध्नः) जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ (स्थुः) स्थिर करती हैं और (पदान्तः) प्राप्तव्य स्थान के बीच में जो (निहिताः) स्थित (आप) जल (स्युः) हैं, (यद्) जिसके (अन्तः) बीच में (स्थः) ठहरती हैं। (बुध्नः) जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ (च) और (ते) वे (केतवः) किरणे (अस्मे) हम लोगों के (अन्तः) बीच में (निहिताः) स्थिर (च) भी (भवन्ति) होते हैं, (इति) ऐसा (विजानीत) जानो॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति। (निरु०१०.४४) (राजा) यो राजते प्रकाशते। अत्र कनिन्युवृषितक्षि० (उणा०१.१५४) अनेन कनिन्प्रत्ययः। (वरुणः) श्रेष्ठः (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य (ऊर्ध्वम्) उपरि (स्तूपम्) किरणसमूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः। (निरु०१०.३३) (ददते) ददाति (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः (स्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (उपरि) ऊर्ध्वम् (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः। बुध्न इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम् (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तमीस्थाने शे आदेशः। (अन्तः) मध्ये (निहिताः) स्थिताः (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा (स्युः) सन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्॥७॥
विषयः- अथ वायुसवितृगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यः पूतदक्षो राजा वरुणो जलसमूहस्सविता वा बुध्ने वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते यस्य नीचीनाः केतव एषामुपरि स्थुस्तिष्ठन्ति पदान्तर्निहिता आप स्युस्सन्ति यदन्तःस्थो बुध्नश्च ते केतवोऽस्मेऽस्मास्वन्तर्निहिताश्च भवन्तीति विजानीत॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- न चैवायं सूर्य्यो रूपरहितेनान्तरिक्षं प्रकाशयितुं शक्नोति तस्माद्यान्यस्योपर्य्यधःस्थानि ज्योतींषि सन्ति, तान्येव मेघस्य निमित्तानि ये जलपरमाणवः किरणस्थाः सन्ति, यथा नैव तेऽतीन्द्रियत्वाद् दृश्यन्त एवं वाय्वग्निपृथिव्यादीनामपि सूक्ष्मा अवयवा अन्तरिक्षस्था वर्त्तमाना अपि न दृश्यन्त इति॥७॥
विषय
प्रभु का विद्युद्दीप - सूर्य
पदार्थ
१. वह (राजा) - सारे संसार को व्यवस्था में चलानेवाला (पूतदक्षः) - पवित्र बलवाला अथवा हमारे बलों को पवित्र करनेवाला (वरुणः) - सबका नियामक प्रभु (अबुध्ने) - मूलरहित अन्तरिक्ष प्रदेश में (वनस्य) - वननीय तेज के सेवन के योग्य रश्मियों के (स्तूपम्) - संघभूत सूर्य को धारण करता है ।
२. इस सूर्य की रश्मियों (नीचीनाः) - [वि अञ्चन्ति] नीचे की ओर आनेवाली होकर (स्थुः) - उस सूर्य में ठहरती हैं । (एषाम्) - इनका (बुध्नः) - मूल (उपरि) - ऊपर है । ऊपर से जैसे कोई विद्युद्दीप [Torch] के प्रकाश को नीचे की ओर छोड़े उसी प्रकार यह सूर्य प्रभु की Torch [विद्युदीप] ही तो है । प्रभु इससे किरणों को नीचे इस पृथिवीलोक पर छोड़ता है ।
३. छोड़ता इसलिए है कि (अस्मे अन्तः) - हमारे अन्दर (केतवः) - [प्रज्ञापकाः प्राणाः, सा०] प्रकाश की किरणें व प्राणदायी तत्त्व , रोगनाशक तत्त्व (निहिताः स्युः) - स्थापित हों । सूर्यकिरणें केवल प्रकाश प्राप्त कराएँ , ऐसी बात नहीं है , ये किरणें हमारे अन्दर प्राणदायी तत्त्वों को भी स्थापित करती हैं । वस्तुतः सूर्य तो है ही प्राण - 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।' तेल मलकर सूर्य - किरणों में बैठा जाए तो सारी त्वचा के साथ - साथ 'विटामिन डी' पैदा हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य भी एक अद्भुत वस्तु है । यह प्रभु का मानो विद्युदीप है । इसकी किरणें नीचे आ रही हैं । ये हमें प्रकाश व प्राणशक्ति प्राप्त कराती हैं ।
विषय
राजा, वरुण, सूर्य परमेश्वर ।
भावार्थ
(राजा) प्रकाशमान, तेजोमय, (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ सूर्य (पूतदक्षः) स्वच्छ, पवित्र और पावनकारी तेजोबल से युक्त होकर ( वनस्य स्तूपम् ) सेवन करने योग्य, एवं विभक्त करके सर्वत्र पहुंचाने योग्य तेज के समूह को ( ऊर्ध्वं ) सबके ऊपर ( अबुध्ने ) मूल रहित या बन्धन रहित आकाश में ( ददते ) धारण करता है । और वे सब किरणें ( नीचीनाः ) नीचे इस भूमि पर ( स्थुः ) आकर पड़ती हैं । ( एषाम् ) इन सबका ( बुघ्नः ) बांधनेवाला, सबका केन्द्र ( उपरि ) ऊपर है । और वही (केतवः) किरणें ( अस्मे ) हमारे (अन्तः) भीतर भी ( निहिताः ) विद्यमान ( स्थुः ) हैं । इसी प्रकार ( अबुध्ने ) सब दुःख-बन्धनों से रहित मोक्ष में ( राजा वरुणः ) प्रकाशस्वरूप, सर्वश्रेष्ठ, परमेश्वर ( पूतदक्षः ) पवित्र ज्ञान और बल से युक्त (ऊर्ध्व स्तूपं ददते ) सबसे ऊपर ज्ञानसमूह वेदराशि को धारण करता है । वे ( नीचीनाः स्थुः ) इस लोक में सूर्य की किरणों के समान प्राप्त हैं । पर ( एषाम् बुघ्नः उपरि ) इन सबका मूल ऊपर ही है । वे ही (केतवः) ज्ञानराशियें (अस्मे अन्तः निहिताः स्युः) हमारे भीतर भी विद्यमान हों । अर्थात् सूर्य जिस प्रकार सब प्रकाशों का केन्द्र सर्वोपरि है उसी प्रकार ज्ञानों का प्रधान केन्द्र परमेश्वर सर्वोपरि है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हा सूर्य नसता तर अंतरिक्ष प्रकाशित होऊ शकले नसते. त्यासाठी वरचे व मधले किरणच मेघाचे निमित्त असतात. त्यांच्यात जलाचे परमाणू असतात; परंतु अतिसूक्ष्मतेमुळे ते दृष्टिगोचर होत नाहीत. याचप्रमाणे वायू, अग्नी व पृथ्वी इत्यादींचेही अतिसूक्ष्म अवयव अंतरिक्षात असतात, परंतु ते दृष्टिगोचर होत नाहीत. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The ruling lord Varuna, the brilliant sun, pure and generous, radiates a flood of light in the bottomless astral sphere over the atmosphere, flowing down, the rays of light stop over the atmosphere and filter down to the clouds and impregnate them over the earth. May the rays of the sun, the clouds and the vapours absorbed in the clouds be for our good.
Subject of the mantra
In this mantra, qualities of Vayu (air) and Savita (Sun) have been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyā)=Men, (yūyam)=you all, (iti)=such as, (vijānīta)=know, (yaḥ)=whose, (pūtadakṣaḥ)=strength is pure and efficient, that, (rājā)=luminous, (varuṇaḥ)=excellent, (jalasamūhaḥ)=water body, (savitā)=creator of all, (vā)=in other words, (abudhne)=in the big sky like space,(vanasya)=the world which is serviceable, (ūrdhvam)=above, (stūpam)=to its rays, (dadate)=transmits, (yasya)=whose, (nīcīnāḥ)=falling down, (ketavaḥ)=rays, (eṣām)=these things of the world, (budhnaḥ)=in the clouds etc. substances, (sthuḥ)=stabilize, [aura]=and, (padāntaḥ)=in the middle of reachable space, (nihitāḥ)=stable, (āpa)=water, (syuḥ)=are, (yad)=whose, (antaḥ)=in the middle, (sthaḥ)=stationed, (budhnaḥ)= In which there is stagnant water, such clouds, (ca)=also, (te)=those, (ketavaḥ)=rays, (asme)=of us, (antaḥ)=in the middle, (nihitāḥ)=stable, (ca)= as well, (bhavanti) =become, (iti)=such as, (vijānīta)=know.
English Translation (K.K.V.)
O men! you all know as such, whose strength is the pure and efficient, that luminous, excellent water body, creator of all, in other words, in the big sky like space, the world which is serviceable, which transmits its rays above. With whose falling down rays, these things of the world in which there is stagnant water; such clouds stabilize in the middle of reachable space; those stable waters are in whose middle sky. Know such that the clouds etc. substances and those rays in the middle of us become stable as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Nor can this Sun shine in the formless space, so the initial places above it are shining. That is the instrument of the cloud, which in them resides in the atomic rays of water, just as they are not visible due to the subtlety, in the same way, even the smallest components of air, fire and earth etc. live in space, but they are also not visible.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of वायु (air ) and Savita (sun) are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men you should know that the shining sun of pure vigor abiding in baseless firmament sustains on high a heap of light, the rays of which are pointed down wards while their base is above. There are waters below. May the rays of the sun become concentrated in us as the source of healthy existence. May we use the heat of the sun properly in order to keep ourselves healthy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
THE COMMENTATOR'S NOTES (अबुध्ने ) अन्तरिक्षसदृशे स्थूलपदार्थे बुध्नमन्तरिक्ष भवति बद्धा अस्मिन् धृता आप इति (निरुक्ते १०.४४ ) (राजा ) यो राजते प्रकाशते अत्र कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्वि द्युप्रतिदिव: (उणा० १.१५४ ) अनेन कनिन् प्रत्ययः ॥ = Shining. (राज-दीप्तौ ) (वनस्य ) वननीयस्य संसारस्य ( स्तूपम् ) किरणसमूहम् । स्तूपः स्त्यायतेः संवात: (निरु० १०.३३ ) = Group of Rays. (बुधा) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः (बुध्नइति मेघनामसु ) (निघ० १.१२ = Cloud. (केतव:) किरणा: प्रज्ञानानि वा = The rays or signs. (केतुरितिप्रज्ञानाम निघ० ३.९ )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the rays of the sun that are above and below that are the cause of the creation of the cloud. The particles of water in the rays are not visible on account of their subtleness. In the same manner, the subtle particles of the air, fire and earth etc. are not visible, even though they are in the firmament.
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