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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः देवता - सविता भगो वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। सदा॑वन्भा॒गमी॑महे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । दे॒व॒ । स॒वि॒तः॒ । ईशा॑नम् । वार्या॑णाम् । सदा॑ । अ॒व॒न् । भा॒गम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। त्वा। देव। सवितः। ईशानम्। वार्याणाम्। सदा। अवन्। भागम्। ईमहे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे सवितरवन् देव जगदीश्वर ! वयं वार्य्याणामीशानं भागं त्वा त्वां सदाऽभीमहे॥३॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (त्वा) त्वाम् (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर ! (सवितः) पृथिव्याद्युत्पादक ! (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम् (वार्य्याणाम्) स्वीकर्त्तुमर्हाणां पृथिव्यादिपदार्थानां (सदा) सर्वदा (अवन्) रक्षन् (भागम्) भजनीयम् (ईमहे) याचामहे॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सर्वप्रकाशकः सकलजगदुत्पादकः सर्वरक्षको जगदीश्वरो देवोऽस्ति, स एव सर्वदोपासनीयः। नैवास्माद्भिन्नं कंचिदर्थमुपास्येश्वरोपासनाफलं प्राप्तुमर्हति, तस्मान्नैतस्येश्वरस्योपासनाविषये केनापि मनुष्येण कदाचिदन्योऽर्थो व्यस्थापनीय इति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देनेवाले जगदीश्वर ! हम लोग (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की (ईशानम्) यथायोग्य व्यवस्था करने (भागम्) सब के सेवा करने योग्य (त्वा) आपको (सदा) सब काल में (अभि) (ईमहे) प्रत्यक्ष याचते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो सब का प्रकाशक सकल जगत् को उत्पन्न वा सब की रक्षा करनेवाला जगदीश्वर है, वही सब समय में उपासना करने योग्य है, क्योंकि इसको छोड़ के अन्य किसी की उपासना करके ईश्वर की उपासना का फल चाहे तो कभी नहीं हो सकता, इससे इसकी उपासना के विषय में कोई भी मनुष्य किसी दूसरे पदार्थ का स्थापन कभी न करे॥३॥

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    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सवितः अवन् देव जगदीश्वर ! वयं वार्य्याणाम् ईशानम् भागं त्वा त्वां सदा अभि ईमहे॥३॥

    पदार्थ

    हे (सवितः) पृथिव्याद्युत्पादक=पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा, (अवन्) रक्षन्=रक्षा करने और, (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर=सब आनन्द के देनेवाले जगदीश्वर! (वयम्)=हम लोग, (वार्य्याणाम्) स्वीकर्त्तुमर्हाणां पृथिव्यादिपदार्थानां= स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की, (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम्=विविध जगत् का ईक्षण करने के स्वभाव वाले, (भागम्) भजनीयम्=सब के सेवा करने योग्य, (त्वा) त्वाम्=तुम, (सदा) सर्वदा=सब काल में, (अभि) आभिमुख्ये=प्रत्यक्ष, (ईमहे) याचामहे=याचना करते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त करते हैं॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा जो सब का प्रकाशक सकल जगत् को उत्पन्न करनेवाला और सब की रक्षा करनेवाला जगदीश्वर देव है, वही सदैव उपासना करने योग्य है। इससे भिन्न कोई  पदार्थ ईश्वर की उपासना के फल प्राप्त करने योग्य नहीं है। इसलिये इस ईश्वर की इसकी उपासना के विषय में किसी भी मनुष्य द्वारा शायद किसी दूसरे पदार्थ को कभी स्थापित नहीं करना चाहिए॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देने वाले जगदीश्वर! (वयम्) हम लोग (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों के (ईशानम्) विविध जगत् का ईक्षण करने के स्वभाव वाले, (भागम्) सब के सेवा करने योग्य (त्वा) तुम्हारी (सदा) सब काल में (अभि) प्रत्यक्ष (ईमहे) याचना करते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभि) आभिमुख्ये (त्वा) त्वाम् (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर ! (सवितः) पृथिव्याद्युत्पादक ! (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम् (वार्य्याणाम्) स्वीकर्त्तुमर्हाणां पृथिव्यादिपदार्थानां (सदा) सर्वदा (अवन्) रक्षन् (भागम्) भजनीयम् (ईमहे) याचामहे॥३॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सवितरवन् देव जगदीश्वर ! वयं वार्य्याणामीशानं भागं त्वा त्वां सदाऽभीमहे॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यः सर्वप्रकाशकः सकलजगदुत्पादकः सर्वरक्षको जगदीश्वरो देवोऽस्ति, स एव सर्वदोपासनीयः। नैवास्माद्भिन्नं कंचिदर्थमुपास्येश्वरोपासनाफलं प्राप्तुमर्हति, तस्मान्नैतस्येश्वरस्योपासनाविषये केनापि मनुष्येण कदाचिदन्योऽर्थो व्यस्थापनीय इति॥३॥

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    विषय

    वार्य - वस्तुओं के ईशान

    पदार्थ

    १. हे (देव) - सब दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभो! (सवितः) - हृदयस्थरूपेण सदा उत्तम प्रेरणा को प्राप्त करानेवाले प्रभो! हम गत मन्त्रों के अनुसार 'क - कतम - अग्नि व प्रथम देव' आदि नामों से आपका स्मरण करते हुए (त्वा अभि) - आपकी ओर ही आते हैं । हम आपसे दूर नहीं होते । 

    २. हे (सदावन्) - [सदा - अवन्] सदा रक्षा करनेवाले प्रभो! (वार्याणाम् ईशानम्) - वरणीय वस्तुओं के स्वामी आपको (भागम्) - भजनीय धन के लिए (ईमहे) - प्रार्थना करते हैं । आप हमें रक्षा के लिए आवश्यक वरणीय पदार्थ प्राप्त कराएँगे ही । 

    ३. इन धनों को प्राप्त करते हुए हम इस बात को भूल न जाएँ कि इनके स्वामी आप ही हैं , हमें इन धनों का गर्व न हो जाए । इनमें फँसकर हम आपको ही न भूल जाएँ । यदि दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ तो ये धन हमारे निधन का ही कारण होंगे । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रभो! हम सदा आपको अपना लक्ष्य रखें । आपसे ही भजनीय धन को प्राप्त करें । 

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    विषय

    ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( सवितः ) सबके उत्पादक ! हे (देव) सब सुखों के दाता और सब पदार्थों के सूर्य के समान दर्शक ! हे ( अवन् ) सबके सदा रक्षा करनेहारे ! ( वार्याणाम् ) वरण करने योग्य समस्त ऐश्वर्यों के ( ईशानम् ) स्वामी ( भागं ) भजन और सेवा करने योग्य, आश्रय योग्य ( त्वा ) तुझसे ही ( सदा ) सदा हम ( ईमहे ) याचना करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्वांचा प्रकाशक संपूर्ण जगाला उत्पन्न करतो व सर्वांचे रक्षण करतो तो जगदीश्वर आहे, त्याचीच सर्व माणसांनी सर्वकाळी उपासना करावी. कारण त्याला सोडून दुसऱ्या कुणाची उपासना केल्यास ईश्वराच्या उपासनेच्या फळाची इच्छा केल्यास ते कधीही मिळू शकत नाही. त्यामुळे त्याची उपासना सोडून कोणत्याही माणसाने दुसऱ्या पदार्थाची उपासना करू नये. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Of all the immortals, we worship you alone, Savita, glorious lord of light and life, ruler of the regions and favourite things of our choice, eternal protector and adorable dispenser of universal justice.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that God is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (savitaḥ)=creator of the earth etc. substances, [vᾱ]=or, (avan)=protecting, [aur]=and, (deva)=God, provider of all joy, (vayam)=we people, (vāryyāṇām)=acceptable, of earth etc. substances, (īśānam)=having nature of visualizing diversified universe, (bhāgam)=serviceable to all, (tvā)=you, (sadā)=all the time, (abhi)=obviously, (īmahe)=pray, in other words, obtain all things from you only.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! Creator of the earth etc. substances or protector and provider of all joys. We, who have the nature of desire to see the various worlds of acceptable earth etc. substances and able to serve everyone, make a direct request to you in all times, that is, we get all things from you only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The one who is the creator of the whole world and the protector of all, God, who is the publisher of all by humans, is always worthy of worship. Nothing other than this is worthy of receiving the reward of worship of God.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of that God is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Creator and ever Protector God, We pray to Thee who art the Lord of the earth and other acceptable or useful things, the Superintendent of the Universe and Adorable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर = O God giver of all Bliss. (सवितः) सृष्ट्याद्युत्पादक = Creator of the world. (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम् = Superintendent of all Universe. (भागम् ) भजनीयम् = Adorable.(ईमहे) याचामहे = We pray or beg.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always adore God only who is the Illuminator of all, Creator of the whole world and Giver of all Bliss. One cannot get the real fruit of contemplation by worshipping any one else. Therefore a man should not worship anyone else in the place of God.

    Translator's Notes

    देव is derived according to Yaskacharya not only from दिवु but also from दा to give देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा ( निरुक्ते अ० ७ ) So here Rishi Dayananda has taken it in the sense of the Giver of all Bliss. सविता (Savita ) is from षु-प्रसवैश्त्रयोः therefore it has been taken in the sense of the Creator. मागम् is from भज-सेवायाम् hence it has been interpreted by Rishi Dayananda as भजनीयम् or Adorable, though Sayanacharya, Wilson, Griffith and others have taken it otherwise. Sayanacharya has taken it as adjective of धनम् भजनीयं धनम् इ महे = We pray for enjoyable wealth. Wilson translates it as. "We solicit (our) portion of Thee" and Griffith as for our share we come." ईमहे याच्या कर्मा (निघ० ३.१९)

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