ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न॒हि ते॑ क्ष॒त्रं न सहो॒ न म॒न्युं वय॑श्च॒नामी प॒तय॑न्त आ॒पुः। नेमा आपो॑ अनिमि॒षं चर॑न्ती॒र्न ये वात॑स्य प्रमि॒नन्त्यभ्व॑म्॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । ते॒ । क्ष॒त्रम् । न । सहः॑ । न । म॒न्युम् । वयः॑ । च॒न । अ॒मी इति॑ । प॒तय॑न्तः । आ॒पुः । न । इ॒माः । आपः॑ । अ॒नि॒ऽमि॒षम् । चर॑न्तीः । न । ये । वात॑स्य । प्र॒ऽमि॒नन्ति॑ । अभ्व॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥
स्वर रहित पद पाठनहि। ते। क्षत्रम्। न। सहः। न। मन्युम्। वयः। चन। अमी इति। पतयन्तः। आपुः। न। इमाः। आपः। अनिऽमिषम्। चरन्तीः। न। ये। वातस्य। प्रऽमिनन्ति। अभ्वम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे जगदीश्वर ! ते तव क्षत्रं पतयन्तः सन्तोऽमी लोका लोकान्तरानापुर्न व्याप्नुवन्ति न वयश्च न सहो न मन्युं च व्याप्नुवन्ति नेमा अनिमिषं चरन्त्य आपस्तव सामर्थ्यं प्रमिनन्ति, ये वातस्य वेगास्तेऽपि तव सत्तां न प्रमिनन्त्यर्थान्नेमे सर्वे पदार्थास्तवाभ्वम्-सत्तानिषेधं च कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥६॥
पदार्थः
(नहि) निषेधे (ते) तव सर्वेश्वरस्य (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् (न) निषेधार्थे (सहः) बलम् (न) निषेधार्थे (मन्युम्) दुष्टान् प्राणिनः प्रति यः क्रोधस्तम् (वयः) पक्षिणः (चन) कदाचित् (अमी) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोका वा (पतयन्तः) इतस्ततश्चलन्तः सन्तः (आपुः) प्राप्नुवन्ति अत्र वर्त्तमाने लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (इमाः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (आपः) जलानि प्राणा वा (अनिमिषम्) निरन्तरम् (चरन्तीः) चरन्त्यः (न) निषेधे (ये) वेगाः (वातस्य) वायोः (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति (अभ्वम्) सत्तानिषेधम्। अत्र ‘भू’ धातोः क्विप् ततश्छन्दस्युभयथा। (अष्टा०६.४.८६) इत्यभिपरे यणादेशः॥६॥
भावार्थः
ईश्वरस्यानन्तसामर्थ्यवत्त्वान्नैतं कश्चिदपि परिमातुं हिंसितुं वा शक्नोति। इमे सर्वे लोकाश्चरन्ति, नैतेषु चलत्सु जगदीश्वरश्चलति तस्य पूर्णत्वात्। नैतस्माद्भिन्नेनोपासितेनार्थेन कस्यचिज्जीवस्य पूर्णमखण्डितं राज्यं भवितुमर्हति। तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरयं जगदीश्वरोऽप्रमेयोऽविनाशी सदोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥६॥
हिन्दी (5)
विषय
पुनः वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे जगदीश्वर ! (क्षत्रम्) अखण्ड राज्य को (पतयन्तः) इधर-उधर चलायमान होते हुए (अमी) ये लोक-लोकान्तर (न) नहीं (आपुः) व्याप्त होते हैं और न (वयः) पक्षी भी (न) नहीं (सहः) बल को (न) नहीं (मन्युम्) जो कि दुष्टों पर क्रोध है, उसको भी (न) नहीं व्याप्त होते हैं (न) नहीं ये (अनिमिषम्) निरन्तर (चरन्तीः) बहनेवाले (आपः) जल वा प्राण आपके सामर्थ्य को (प्रमिनन्ति) परिमाण कर सकते और (ये) जो (वातस्य) वायु के वेग हैं, वे भी आपकी सत्ता का परिमाण (न) नहीं कर सकते। इसी प्रकार और भी सब पदार्थ आपकी (अभ्वम्) सत्ता का निषेध भी नहीं कर सकते॥६॥
भावार्थ
ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य होने से उसका परिमाण वा उसकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता है। ये सब लोक चलते हैं, परन्तु लोकों के चलने से उनमें व्याप्त ईश्वर नहीं चलता, क्योंकि जो सब जगह पूर्ण है, वह कभी चलेगा? इस ईश्वर की उपासना को छोड़ कर किसी जीव का पूर्ण अखण्डित राज्य वा सुख कभी नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को प्रमेय वा विनाशरहित परमेश्वर की सदा उपासना करनी योग्य है॥५॥
विषय
पुनः वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे जगदीश्वर ! ते तव क्षत्रं पतयन्तः सन्तः अमी लोका लोकान्तरान् आपुः न व्याप्नुवन्ति न वयः च न सहः न मन्युं च व्याप्नुवन्ति न इमाः अनिमिषं चरन्त्यः आपः तव सामर्थ्यम् प्रमिनन्ति, ये वातस्य वेगाः ते अपि तव सत्तां न प्रमिनन्ति अर्थात् न मे सर्वे पदार्थाः स्तवाभ्वं-सत्तानिषेधं च कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥६॥
पदार्थ
हे (जगदीश्वर)=परमात्मा! (ते) तव सर्वेश्वरस्य=आपके, (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम्= अखण्ड राज्य को, (पतयन्तः) इतस्ततश्चलन्तः सन्तः= धर-उधर चलायमान होते हुए, (अमी) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोका वा=सब दृश्य और अदृश्य या पक्षी समूह और (लोकान्तरान्)=ये लोक-लोकान्तर, (आपुः) प्राप्नुवन्ति=व्याप्त होते हैं। (न)=नहीं, (वयः) पक्षिणः=पक्षी समूह भी (चन) कदाचित्=शायद, (सहः) बलम्= बल को, (न)=नहीं, (मन्युम्) दुष्टान् प्राणिनः प्रति यः क्रोधस्तम्=जो कि दुष्टों पर क्रोध है, उसको, (च)=भी, (व्याप्नुवन्ति)=व्याप्त (न) निषेधार्थे=नहीं होते हैं, (इमाः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः अनिमिषम्=निरन्तर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, (चरन्त्यः) चरन्तीः=बहनेवाले, (आपः) जलानि प्राणा वा=जल वा प्राण, (तव)=आपके, (सामर्थ्यम्)=सामर्थ्य का, (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति= माप कर सकते और, (ये)=जो, (वातस्य) वायोः=वायु के, (ये) वेगाः=वेग हैं, (ते)=वे, (अपि)=भी (तव)=आपकी, (सत्ताम्)=सत्ता का, (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति=परिमाण कर सकते, (न)=नहीं, (अर्थात्)=अर्थात्, (न)=नहीं, (मे)=मुझे, (सर्वे)=सब, (पदार्थाः)=पदार्थों के, (स्तवाभ्वम्) सत्तानिषेधम्=सत्ता के निषेध के लिये, (च)=भी, (कर्त्तुम्)=कर (शक्नुवन्ति)=सकते हैं॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य होने से उसका परिमाण या उसकी हिंसा कोई भी नहीं कर सकता है। ये सब लोक भ्रमण कर रहे हैं, लोकों के चलने से उसकी पूर्णता के कारण ईश्वर नहीं चलता है। इससे भिन्न ईश्वर की उपासना के प्रयोजन से किसी जीव का किसी जीव का पूर्ण अखण्डित राज्य होना योग्य नहीं है। इसलिये सब मनुष्यों के लिए इस अप्रमेय और अविनाशी परमेश्वर की सदा उपासना करनी योग्य है॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (जगदीश्वर) परमात्मा! (ते) आपके (क्षत्रम्) अखण्ड राज्य के (पतयन्तः) इधर-उधर चलायमान होते हुए (अमी) सब दृश्य और अदृश्य (लोकान्तरान्) लोक-लोकान्तर (आपुः) व्याप्त होते हैं। (न) न (वयः) पक्षी समूह (चन) शायद (सहः) बल को व्याप्त होते हैं। (मन्युम्) दुष्टों पर जो क्रोध है, उसको, (च) भी (व्याप्नुवन्ति) व्याप्त (न) नहीं होते हैं। (न) न (इमाः) निरन्तर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (चरन्त्यः) बहने वाले (आपः) जल या प्राण (तव) आप परमेश्वर के (सामर्थ्यम्) सामर्थ्य का (प्रमिनन्ति) माप सकते हैं और (ये) जो (वातस्य) वायु के (ये) जो वेग हैं, (ते) वे (अपि) भी (तव) आपकी (सत्ताम्) सत्ता का (प्रमिनन्ति) माप (न) नहीं कर सकते हैं (अर्थात्) अर्थात् (मे) मेरे (सर्वे) सब (पदार्थाः) पदार्थ (स्तवाभ्वम्) [तेरी] सत्ता का निषेध (च) भी [नहीं] (कर्त्तुम्+शक्नुवन्ति) करा सकते हैं॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नहि) निषेधे (ते) तव सर्वेश्वरस्य (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् (न) निषेधार्थे (सहः) बलम् (न) निषेधार्थे (मन्युम्) दुष्टान् प्राणिनः प्रति यः क्रोधस्तम् (वयः) पक्षिणः (चन) कदाचित् (अमी) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोका वा (पतयन्तः) इतस्ततश्चलन्तः सन्तः (आपुः) प्राप्नुवन्ति अत्र वर्त्तमाने लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (इमाः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (आपः) जलानि प्राणा वा (अनिमिषम्) निरन्तरम् (चरन्तीः) चरन्त्यः (न) निषेधे (ये) वेगाः (वातस्य) वायोः (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति (अभ्वम्) सत्तानिषेधम्। अत्र 'भू' धातोः क्विप् ततश्छन्दस्युभयथा। (अष्टा०६.४.८६) इत्यभिपरे यणादेशः॥६॥
विषयः- पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे जगदीश्वर ! ते तव क्षत्रं पतयन्तः सन्तोऽमी लोका लोकान्तरानापुर्न व्याप्नुवन्ति न वयश्च न सहो न मन्युं च व्याप्नुवन्ति नेमा अनिमिषं चरन्त्य आपस्तव सामर्थ्यं प्रमिनन्ति, ये वातस्य वेगास्तेऽपि तव सत्तां न प्रमिनन्त्यर्थान्नेमे सर्वे पदार्थास्तवाभ्वम्-सत्तानिषेधं च कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरस्यानन्तसामर्थ्यवत्त्वान्नैतं कश्चिदपि परिमातुं हिंसितुं वा शक्नोति। इमे सर्वे लोकाश्चरन्ति, नैतेषु चलत्सु जगदीश्वरश्चलति तस्य पूर्णत्वात्। नैतस्माद्भिन्नेनोपासितेनार्थेन कस्यचिज्जीवस्य पूर्णमखण्डितं राज्यं भवितुमर्हति। तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरयं जगदीश्वरोऽप्रमेयोऽविनाशी सदोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥६॥
विषय
अनन्त बल , सहनशक्ति व ज्ञान
पदार्थ
१. 'शुनः शेप' वरुण का स्तवन करता हुआ कहता है कि हे प्रभो! (ते क्षत्रम्) - तेरे बल को , (सहः) - सहनशक्ति को व (मन्युम्) - ज्ञान को (अमी) - ये (पतयन्तः) - उड़ते हुए (वयश्चन) - पक्षी भी (नहि आपुः) - नहीं प्राप्त कर सकते । उड़ते हुए पक्षी यदि प्रभु के बल , सहनशक्ति व ज्ञान के ओर - छोर को पाने की कामना करें तो यह उनके लिए सम्भव नहीं है । उस प्रभु का बल , शक्ति व ज्ञान सब अनन्त है ।
२. (इमाः) - ये (अनिमिषम्) - बिना पलक मारे , निरन्तर (चरन्तीः) - चलते हुए (आपः) - जल भी (न) - आपकी शक्ति व ज्ञान के अन्त को नहीं प्राप्त कर सकते ।
३. (वातस्य) - वायु के (अभ्वम्) - वेग को (ये) - जो (प्रमिनन्ति) - हिंसित करते हैं , अर्थात् उससे भी अधिक वेगवान् होते हैं , वे भी (न) - प्रभु के बल व ज्ञान का अन्त नहीं पा सकते ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की शक्ति का ज्ञान अनन्त है ; पक्षियों की उड़ान , जलों के निरन्तर प्रवाह व वायु के वेगों से उनके ओर - छोर का पाना सम्भव नहीं ।
विषय
सबसे महान् प्रभु ।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! ( अभी ) ये ( पतयन्तः ) पूर्व से पश्चिम आदि दिशाओं में जाने वाले पक्षिगण और उनके समान सूर्य, चन्द्र, तारागण आदि बड़े-बड़े लोक और ज्ञानैश्वर्य वाले विमानचारी भी ( ते क्षत्रं ) तेरे रक्षण सामर्थ्य और बल को ( नहि आपुः ) नहीं पा सकते । और वे ( न ) न तेरे ( सहः ) शत्रु को पराजय करने और सबको वश करने के अपार बल को ( आपुः ) प्राप्त कर सकते हैं । ( न मन्युम् आपुः ) वे न तेरे क्रोध, या मनन सामर्थ्य, या ज्ञानशक्ति को ही पा सकते हैं । और ( अनिमिषं चरन्तीः ) विना झपक लिए, एक क्षण भी विश्राम न लेकर चलने वाली ( इमाः आपः ) ये जल, नदी तथा अप्रमाद होकर धर्माचरण करने वाले ये आप्त जन भी ( न आपुः ) तेरे बल, सामर्थ्य और ज्ञान को नहीं पा सकते । और (ये) जो (वातस्य) वायु के तीव्र वेग हैं वे भी ( ते ) तेरे ( अभ्वम् ) सामर्थ्य या महान् सत्ता को मानने से इन्कार या निषेध ( न प्रमिनन्ति ) नहीं कर सकते । अथवा—( ये वातस्य अभ्वं प्र मिनन्ति ) जो वायु के भी वेग को नाश करते हैं अर्थात् जो वायु के तीव्र वेग की भी उपेक्षा कर देते हैं ऐसे पर्वत, महावृक्ष आदि पदार्थ भी तेरे (क्षत्रं सहः मन्युं न आपुः) बल, वीर्य और क्रोध को नहीं पा सकते । वे बहुत अल्पबल हैं। अथवा ( ये वातस्य अभ्वं प्र मिनन्ति ) जो वायु के बल को माप सकते हैं वे भी तेरे बल वीर्य की थाह नहीं पाते ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1077
ओ३म् न॒हि ते॑ क्ष॒त्रं न सहो॒ न म॒न्युं वय॑श्च॒नामी प॒तय॑न्त आ॒पुः ।
नेमा आपो॑ अनिमि॒षं चर॑न्ती॒र्न ये वात॑स्य प्रमि॒नन्त्यभ्व॑म् ॥
ऋग्वेद 1/24/6
हे भगवन् ! तुमने रचे,
सूर्य चन्द्र व तारागण,
नियमित मार्ग पे करते हैं,
निज परिधियों में ये भ्रमण
सह भी है अतिशय,
न्याय में अनुनय,
सुखों का है वो दाता,
अटूट उसका नाता,
किन्तु अल्पज्ञ हम,
मर्म ना जाने हम,
कैसा है वो विधाता !
कैसा हमसे नाता !
नास्तिक प्रभु से,
नाराज़ होकर,
अपशब्द कहते रहते,
किन्तु प्रभु सब कुछ सहते,
यथायोग्य पालन करते,
क्रुद्ध ना होते,
क्रोधी नहीं, मन्यु प्रभु,
सात्विक मन आजमाते हैं,
मार्ग सही जाएँ हम,
इसलिए दण्ड देते भगवन्
हे भगवन् ! तुमने रचे,
सूर्य चन्द्र व तारागण,
नियमित मार्ग पे करते हैं,
निज परिधियों में ये भ्रमण
प्रभु का क्षत्र बड़ा,
न्याय है,उसका कड़ा,
सारे ब्रह्माण्ड का राजा,
बहुविध सुख का प्रदाता,
अनन्त आकाश है,
विस्तृत प्रकाश है,
प्रभु तो प्रकर्ष-प्रतापी,
अजर अमर अविनाशी,
प्राकृतिक जग से भी आगे,
अनन्त प्रभु की है सीमा,
असीम क्षत्र का,
असीम बल का,
सहज कर सकते अनुमान,
करके प्रणाम् !
मेरे आत्मन् ! कर लो नमन,
मन्यु वाले है सात्विक भगवन्,
आज्ञा में उसकी चलते रहो,
दोनों लोकों में रहो प्रसन्न
हे भगवन् ! तुमने रचे,
सूर्य चन्द्र व तारागण,
नियमित मार्ग पे करते हैं,
निज परिधियों में ये भ्रमण
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- १३.५.२०१२ ४.३० सायं
राग :- शिवरंजनी
गायन समय रात्रि 10:00 से 12 ताल कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- उसका पार कोई नहीं पा सकता
*तर्ज :- *
00100-700
सह = सहन करने वाला बल
अनुनय = विनम्रता
क्षत्र = बल
मन्यु = न्याय प्रिय क्रोध
प्रकर्ष = उत्तमता
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
भजन६५७ वां
उसका पार कोई नहीं पा सकता
भगवान में असीम छत्र असीम सह और असीम मन्यु है।
क्षत्र का अर्थ बल होता है भगवान् के बल की तुलना नहीं हो सकती। उनका सा बल कहीं मिल नहीं सकता उनमें असीम बल है, इस असीम विश्व-ब्रह्मांड में सूर्य चन्द्र पृथ्वी आदि जो असंख्य पिंड घूम में रहे हैं जिनकी सत्ता की हल्की सी झांकी रात के समय झिलमिलाते हुए नभोमंडल की ओर निहारने से होती है,उन असंख्य पिंडों का धारण और उनका अपने अपने नियमित मार्ग पर चलना भगवान् के असीम बल की सूचना देता है। उनके गतिमान पिंड का एक नियम है कि यदि उन्हें कोई बाधा ना दे रहा हो तो वह सदा सीधी रेखा में दौड़ा करते हैं।यह विराट गति से दौड़ने वाले आकाशीय पिंड भी यदि उन्हें कोई बाधा ना पहुंचती तो सीधी रेखा में दौड़ते और एक दूसरे से टकराकर नष्ट हो जाते या हो गए होते, परन्तु इनकी परिक्रमा परिधियों में घूमकर आपस में नष्ट नहीं होती,अनेक पिंड एक दूसरे के चारों ओर तीव्र गति से घूम रहे हैं। संसार की प्रलय- अवस्था के समय भगवान् अपनी शक्ति की बाधा को हटा लेते हैं, जिसका फल यह होता है कि यह पिंड सीधी रेखा में दौड़ कर परस्पर टकराकर नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं।
भगवान् का सह भी असीम है।
सह का अर्थ है बल वह सामर्थ्य, वह शक्ति जिसके कारण हम दूसरों के आक्रमणों से घबराते नहीं उन्हें सहन कर लेते हैं। भगवान् में यह सह लेने की शक्ति यह सह लेने का पराक्रम भी असीम है।
विश्व ब्रह्मांड को धारण करने की क्रिया से तो उनकी एक प्रकार की असीम सहन शक्ति का परिचय मिलता है ।इसके अतिरिक्त उनमें एक और प्रकार की सहनशक्ति है। प्रभु की न्याय व्यवस्था के कारण हमें अनेक बार सुखों से वंचित होकर दुखों में ग्रस्त होना पड़ता है। हम अल्पज्ञ प्राणी प्रभु की व्यवस्था का रहस्य न समझने के कारण प्रभु से और प्रसन्न हो जाते हैं और उन्हें अनेक प्रकार के अपशब्द कहते हैं ।प्रभु इस सब को सहन करते रहते हैं। क्रोध में आकर हमें उसी समय ध्वस्त नहीं करते। नास्तिक लोग तो सदा ही प्रभु का खंडन करते रहते हैं उनकी हंसी उड़ाते रहते हैं, परन्तु प्रभु यह सब कुछ सहन करते रहते हैं। इसके कारण वे नास्तिकों पर भी क्रुद्ध नहीं होते वे अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार सबका यथा योग्य पालन करते रहते हैं। अपने निन्दक पर भी क्रुद्ध नहीं होते यदि नास्तिक परमेश्वर को ना माने लेकिन आचरण में पवित्र कार्य करते हैं,तब भी परमात्मा उन्हें सुख ही प्रदान करते हैं। असंख्य प्राणी उन्हें कोसते हैं परन्तु भगवान् विचलित नहीं होते ।
सचमुच भगवान में असीम सहनशक्ति है।
भगवान में मन्यु भी असीम है।
मन्यु क्रोध को कहते हैं, परन्तु हर एक क्रोध को मन्यु नहीं कहते ।मन्यु शब्द "मन" धातु से बनता है जिसका अर्थ होता है सोचना, विचारना।
मन्यु में मन की वृत्ति सात्विक रहती है। मन्यु में अपराधी को सुधारने की प्रक्रिया होती है। दण्ड देकर उसे सही राह पर लाना होता है। भगवान् का क्रोध सदा सात्विक होता है। मन्यु होता है।
भगवान् के मन्यु से शक्तिशाली भी नहीं बच सकता।समग्र विश्व में भी कट्ठा होकर उनके मन्यु से अपराधी की रक्षा नहीं कर सकता। अपराधी को अपराध का फल भोगना ही होता है।
भगवान का अपना स्वरूप उनका अपना विस्तार भी अनन्त है,असीम है इसलिए उनके छत्र और मन्यु की भी कोई सीमा नहीं,वह भी अनन्त और असीम है।
देखो आकाश में उड़ने वाले पक्षी कितने वेग से उड़ते हैं, पानी की धाराओं को देखो कितने वेग से बहती है,और थकती नहीं। वायु को देखो कितना बलवान है।विद्युत और प्रकाश को भी देखो इनका वेग आश्चर्य में डाल देता है एक सेकंड में दोनों पदार्थ 186300 मील दौड़ जाते हैं। यह तीव्र गामी पदार्थ भी यदि भगवान के क्षत्र से और मन्यु की थाह लेना चाहे तो नहीं ले सकते।
क्षत्र का अर्थ राष्ट्र भी होता है। भगवान का राष्ट्र उनका राज्य भी असीम है ।संसार का प्रत्येक पदार्थ उनके शासन के भीतर है, जिसकी कोई सीमा नहीं। वैज्ञानिक और ज्योतिष लोग जितने आकाश और उसमें फिरने वाले सूर्य आदि पदार्थों का कुछ ज्ञान प्राप्त कर सके हैं, सारे विश्व के समक्ष उनकी कुछ भी सत्ता नहीं है।
परमेश्वर की महिमा वैज्ञानिकों की कल्पना से परे है।
वय: का अर्थ हमने परीक्षण किया है इसका शब्दार्थ होता है गति करने वाले। ऋषि दयानन्द धातु के अनुसार वय: का अर्थ आकाश में फिरने वाले सूर्य आदि पिंड का किया है। यह अर्थ करने पर भाव यह होगा कि प्रभु के क्षत्र--बल राष्ट्र-- सह और मन्यु की सीमा को आकाश में तीव्र गति से फिरने वाले सूर्य आदि पिण्ड भी भगवान का पार नहीं पा सकते ।प्रभु का राष्ट्र इन आकाश में फिरने वालेवाले सूर्य, ग्रह, सप्तऋषि और बहुत बड़े फिरने वाले तारों से भी परे है।
हे मेरे आत्मा ! तुम अनन्त क्षत्र, अनन्त सह और अनन्त मन्यु वाले भगवान की सत्ता के आगे सदा झुकते रहो। सदा उसकी आज्ञा में चलते रहो,तभी तुम्हारा एहिक और आमुष्मिक-- लोक में और परलोक मोक्ष में कल्याण होगा।
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराचे अनंत सामर्थ्य असल्यामुळे त्याचे परिमाण कुणी काढू शकत नाही व त्याची बरोबरीही करू शकत नाही. हे सर्व गोल परिभ्रमण करतात, परंतु गोलाच्या परिभ्रमणाने त्यात व्याप्त असलेला ईश्वर फिरत नाही. कारण जो सर्व स्थानी परिपूर्ण आहे, तो कसा फिरू शकेल? ईश्वराची उपासना सोडून कोणत्याही जीवाला पूर्ण अखंडित राज्य मिळू शकत नाही. यामुळे सर्व माणसांनी प्रमेय, अविनाशी परमेश्वराची सदैव उपासना करावी. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
All those that move in space comprehend not your order and dominion, nor violate your power or force or constancy. Nor do these waters and currents of universal energy ever on the move surpass your presence. Nor even the velocities of the wind can ever violate the immensity of your power which is eternal and immortal.
Subject of the mantra
Again, what kind of God is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (te) everyone’s God, Your (kṣatram)=to He=O! (jagadīśvara)=God, (te)=your, (kṣatram)=of indivisible kingdom, (patayantaḥ)=moving around, (amī)=all visible and invisible, (lokāntarān) =different worlds, (āpuḥ)=pervaded, (na)=not, (vayaḥ)=group of birds, (cana)=perhaps, (sahaḥ)=pervade to power, (manyum)=he who is angry with the wicked, to that, (ca)=also, (vyāpnuvanti)=pervade, (na)=do not pervade, (na)=not, (imāḥ)=continuous perceptible and imperceptible, (carantyaḥ)=flowing. (āpaḥ)=water or life breath, (tava)=of you God, (sāmarthyam) =of capability, (praminanti)=measure and, (ye)=those, (vātasya)=of air, (ye)=those speeds are, (te)=those, (api)=also, (tava)=your, (sattām)=of power, (praminanti) =measurement,(na)=cannot, (arthāt)=in other words, (me)=my, (sarve)=all (padārthāḥ)=the substances, (stavābhvam)=negation of power, [terī]=your, (ca)=also, [nahīṃ]=not, (karttum+śaknuvanti)=can.
English Translation (K.K.V.)
O God! Moving here and there in your unbroken kingdom, all the perceptible and imperceptible worlds pervade. Neither bird groups probably pervade the force. The anger that is on the wicked, does not affect them either. You can't measure the power of the Supreme Lord either by the continuous direct or indirect flow of water or life and even the velocity of the wind cannot measure your existence, that is, all my substances cannot even make negate your existence.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Because of the infinite power of God, no one can quantify it or no one can do violence to Him. All these worlds are traveling, God does not move because of its perfection in the movement of the worlds. Apart from this, for the purpose of worshiping God, it is not suitable for a living being to be a completely unbroken kingdom of any living being. Therefore it is worthy of all human beings to worship this immeasurable and indestructible God forever.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is His nature is again taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, these various visible or invisible worlds or the birds that are flying through the air, cannot attain to Thy inviolable Dominion or Thy might, nor these waters that flow on for ever or the Pranas can measure Thy Prowess. None can compete with Thy Wealth. The gale of wind can never surpass Thy speed. None of these wonderful things can deny Thy existence or Thy might. They all denote Thy glory.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् = Inviolable Dominion. (वय:) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोकावा । = Birds or visible or invisible worlds. (आप:) जंलानि प्राणा वा = Water or Pranas. (अभ्वस् सत्ता निषेधम् । अत्र भूधातोः क्विप् ततश्छन्द) स्युभयथा । (अष्टा० ६.४.८६) इत्यचि परे यणादेशः || = Denial of existence.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Because God is Omnipotent, none can measure or violate Him. These worlds move on, but God does not move for, He is Perfect. No one can attain to inviolable entire dominion by worshipping any one else except God. Therefore all should adore only God who is Infinite, Immeasurable and Imperishable. This should be known to all.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has taken Kshatram for अखण्डराज्यम् Inviolable Dominion. The following passage from Aitareya Brahmana 7.22 substantiates the Rishi's interpretation क्षत्रं हि राष्ट्रम् ( ऐत० ७२ ) Rishi Dayananda has interpreted the word वयः not only birds as others have done, but also as घ्श्यादृश्याः सर्वे लोका: visible or invisible worlds वय: is derived from वी गतिव्याप्ति प्रजनकान्त्यसन खादनेषु so taking the first meaning of गति or moving, it can be used, not only for birds, but also for moving worlds etc. In the Aitareya 1.28 the word वय : is used for प्राण, प्राणो वै वयः ( ऐत० १.२८ ) In Shatapath 8.5.2.6 it is used for अन्न or food taking the sense of खादन or eating of the root, वी, अन्नं वै वयश्चछन्दः (शत० ८.५.२.६) In the Shatapath 9.5.3.7 the word वयांसि has been interpreted as animals पशवो वै वर्यासि ( शत० ९. ३. २.७ because they have movement. Therefore it is clear that taking into consideration the root meaning of वी-गत्यादिषु the word वयः can be used for the worlds that move.
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