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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 11
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑ळमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शंस॒ मा न॒ आयुः॒ प्र मो॑षीः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । त्वा॒ । या॒मि॒ । ब्रह्म॑णा । वन्द॑मानः । तत् । आ । शा॒स्ते॒ । यज॑मानः । ह॒विःऽभिः॑ । अहे॑ळमानः । व॒रु॒ण॒ । इ॒ह । बो॒धि॒ । उरु॑ऽशंस । मा । नः॒ । आयुः॑ । प्र । मो॒षीः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। त्वा। यामि। ब्रह्मणा। वन्दमानः। तत्। आ। शास्ते। यजमानः। हविःऽभिः। अहेळमानः। वरुण। इह। बोधि। उरुऽशंस। मा। नः। आयुः। प्र। मोषीः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स वरुणः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे उरुशंस वरुण ! यं त्वामाश्रित्य यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते, तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥१॥११॥तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमान- स्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥११॥

    पदार्थः

    (तत्) सुखम् (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदेन (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन् (तत्) सुखम् (आ) अभितः (शास्ते) इच्छति (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः (वरुण) जगदीश्वर ! वायुर्वा। (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) विदितो भव विदितगुणो वा भवति। अत्र लोडर्थे लडर्थे च लुङडभावश्च। (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो वा (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकम् (आयुः) वयः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मोषीः) नाशय विनाशयेद्वा। अत्र लोडर्थे लिङर्थे च लुङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥११॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्यं च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषो वृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥२॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर ! जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके (यजमानः) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करनेवाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है, उन आप को (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेळमानः) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि) आपको प्राप्त होता हूँ, आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोधयुक्त कीजिये और (नः) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अति शीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये॥१॥११॥(तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को (आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य्य को (ब्रह्मणा) वेदोक्त क्रियाकुशलता से (वन्दमानः) स्मरण करता हुआ (अहेळमानः) किन्तु उसके गुणों को न भूलता और (इह) इस संसार में (तत्) उक्त सुख की इच्छा करता हुआ मैं (यामि) प्राप्त होता हूँ कि जिससे यह (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय सूर्य्य हमको (बोधि) विदित होकर (नः) हम लोगों की (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) न नष्ट करे अर्थात् अच्छे प्रकार बढ़ावे॥२॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्य को जानकर सुखों को प्राप्त होना चाहिये और किसी मनुष्य को परमेश्वर वा सूर्य विद्या का अनादर न करना चाहिये, सर्वदा ईश्वर की आज्ञा का पालन और उसके रचे हुए जो कि सूर्यादिक पदार्थ हैं, उनके गुणों को जानकर उनसे उपकार लेके अपनी उमर निरन्तर बढ़ानी चाहिये॥११॥

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    विषय

    फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (प्रथमः)- हे उरुशंस वरुण ! यं त्वाम् आश्रित्य यजमानः हविभिः तत् आ शास्ते  तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानः अहेळमानः अहं यामि कृपया त्वं मह्यम् इह बोधि(विदितः भव) (नः) अस्माकम् आयुः मा प्रमोषीः ॥११॥ 

    (द्वितीयः)- तत् सुखम् इच्छन् यजमानः यम् उरुशंसं  वरुणम् आ शास्ते यं ब्रह्मणा वन्दमानः अहेडमानः तत् सुखम् इच्छन् अहं यामि प्राप्नोमि सः उरुशंसः वरुणः अस्माभिः बोधि(विदितः भवतु) यतः अयं नः अस्माकम् आयुः प्रमोषीः मा विनाशयेत् ॥११॥

    पदार्थ

    (प्रथम)- हे (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो= सर्वथा प्रशंसनीय या सूर्य (वरुण) जगदीश्वर! वायुर्वा=जगदीश्वर या वायु! (यम्)=जिस, (त्वाम्)=आपके, (आश्रित्य)=आश्रय लेके, (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता=तीन प्रकार यज्ञ करनेवाला विद्वान् (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः=होम आदि साधनों से, (तत्) सुखम्=सुखकी, (आ) अभितः=हर ओर से, (शास्ते)  इच्छति=इच्छा करता है, (तम्)=उस, (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा=आप वरुण या सूर्य की प्राप्ति के लिये, (ब्रह्मणा) वेदेन= वेद के मन्त्रों से, (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन्स्तुति=स्तुति और गायन करते हैं ॥११॥


    (द्वितीय)- (तत्)=उस, (सुखम्)=सुखकी, (इच्छन्)=इच्छा करते हुए, (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता=तीन प्रकार यज्ञ करनेवाला विद्वान्, (यम्)=जिसको, (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो=सर्वथा प्रशंसनीय या सूर्य, (वायुर्वा)=जगदीश्वर या वायु (आ) अभितः=हर ओर से, (शास्ते)  इच्छति=इच्छा करता है, (यम्)=जिसको, (ब्रह्मणा) वेदेन=वेद से, (वन्दमानः) वन्नभिगायन्स्तुति=स्तुति और गायन करते हैं। (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः=समस्त आदरों से उत्तम आदर देते हुए, (तत्)=उस, (सुखम्)=सुख की, (इच्छन्)=इच्छा करते हुए, (अहम्)=मैं, (यामि) प्राप्नोमि=प्राप्त करता हूँ,  (सः)=वह, (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो=सर्वथा प्रशंसनीय या सूर्य, (वरुण) जगदीश्वर या वायु (अस्माभिः) हम से (बोधि) विदित हो, (यतः) इसलिये, (अयम्) यह, (नः) हमारी (आयुः) आयु, (प्रमोषीः) मा विनाशयेत्=नष्ट न करे ॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्यविद्या  का अनादर नहीं करना चाहिये। सर्वदा ईश्वर और राजा की आज्ञा का पालन करना चाहिए। उसके रचे हुए पदार्थों के गुणों को जानकर भी उनसे उपकार लेकर अपनी आयु में नित्य वृद्धि करनी चाहिये॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (म.द.स.)(प्रथम)-परमेश्वर के पक्ष में-
     हे (उरुशंस)  सर्वथा प्रशंसनीय (वरुणम्) जगदीश्वर (यम्) जिस (त्वाम्) आपका (आश्रित्य)  आश्रय लेके (यजमानः)  तीन प्रकार से यज्ञ करनेवाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) उस सुखकी (आ)  हर ओर से (शास्ते)  इच्छा करता है। (तम्) उस (त्वा) आपको उस सुख की प्राप्ति के लिये (ब्रह्मणा)  वेद के मन्त्रों से (वन्दमानः) हम स्तुति और गायन करते हैं ॥११॥


    (म.द.स.)(द्वितीयः)-सूर्य के पक्ष में-
    पदार्थ(द्वितीय)- (तत्) उस (सुखम्) सुखकी (इच्छन्) इच्छा करते हुए (यजमानः) तीन प्रकार का यज्ञ करनेवाला विद्वान् (यम्) जिसको (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय सूर्य, (वायुर्वा) जगदीश्वर या वायु (आ) हर ओर से (शास्ते) इच्छा करता है [और] (यम्) जिसका (ब्रह्मणा) वेद के मन्त्रों से (वन्दमानः) स्तुति और गायन करते हैं। (अहेळमानः) समस्त आदरों से उत्तम आदर देते हुए (तत्) उस (सुखम्) सुख की (इच्छन्) इच्छा करते हुए (अहम्) मैं (यामि) प्राप्त करता हूँ।  (सः) वह (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय सूर्य, (वरुण) जगदीश्वर या वायु (अस्माभिः) हमें (बोधि) विदित हो। (यतः) इसलिये (अयम्) यह (नः) हमारी (आयुः) आयु (प्रमोषीः) नष्ट न करे ॥११॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तत्) सुखम् (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदेन (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन् (तत्) सुखम् (आ) अभितः (शास्ते) इच्छति (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः (वरुण) जगदीश्वर ! वायुर्वा। (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) विदितो भव विदितगुणो वा भवति। अत्र लोडर्थे लडर्थे च लुङडभावश्च। (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो वा (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकम् (आयुः) वयः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मोषीः) नाशय विनाशयेद्वा। अत्र लोडर्थे लिङर्थे च लुङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥११॥

    विषयः- पुनः स वरुणः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः(प्रथमः)- हे उरुशंस वरुण ! यं त्वामाश्रित्य यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते, तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥१॥११॥
    अन्वयः(द्वितीयः)- तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमान- स्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्यं च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषो वृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥११॥

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    विषय

    प्रभुकृपा व दीर्घायुष्य

    पदार्थ

    १. स्तुति करते हुए भक्त कहता है कि (ब्रह्मणा) - स्तोत्रो से (वन्दमानः) - स्तवन करता हुआ मैं (त्वा) - आपसे (तत् यामि) - यही याचना करता हूँ और (यजमानः) - यज्ञशील पुरुष (हविर्भिः) - दानपूर्वक अदन से (तत् आशास्ते) - वही बात कहता है कि हे (वरुण) - सारे ब्रह्माण्ड के नियामक प्रभो! (इह) - इस जीवन में (अहेळमानः) - हमपर किसी प्रकार का क्रोध न करते हुए (बोधि) - हमारा ध्यान करिए [Look after us] और हे (उरुशंस) - खूब स्तुति के योग्य प्रभो ! (नः आयु) - हमारी आयु को (मा प्रमोषीः) - मत चुरने दीजिए , अर्थात् हमारी आयु को चूने मत दीजिए , क्षीण मत होने दीजिए । 

    २. हम यज्ञों व ज्ञानों को इसीलिए प्राप्त करते हैं कि हम वरुण के क्रोध - पात्र न हों और हमारा जीवन दीर्घ हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मन्त्रों व ज्ञानों से तथा यजमान बनकर हवियों से प्रभु की अर्चना करते हुए यही चाहते हैं कि हम प्रभु के प्रिय बने रहें और दीर्घायु हों । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) सब दुःखों के वारक, सबसे वरण करने योग्य, एवं सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ! ( यजमानः ) उपासना करनेवाला पुरुष ( हविर्भिः ) उत्तम स्तुति-वचनों से ( तत् ) उन २ अभिलाषा योग्य पदार्थों की ( आशास्ते ) कामना करता है । ( तत् ) उन उन पदार्थों की ही मैं भी ( ब्रह्मणा ) वेद द्वारा ( वन्दमानः ) तेरी स्तुति करता हुआ ( यामि ) तुझसे याचना करता हूं । हे ( उरुशंस ) बहुत मनुष्यों से स्तुति करने योग्य, अतिस्तुत्य ! तू (अहेळमानः) हमारा अनादर और तिरस्कारन करता हुआ ( इह ) इस संसार में ( बोधि ) हमारा अभिप्राय जान और हमें ज्ञान प्रदान कर । और ( नः ) हमारी ( आयुः ) आयु को ( मा ) मत ( प्रमोपी:) नष्ट कर । राजा के पक्ष में—( यजमानः हविर्भिः तत् आशास्ते ) कर देनेवाला प्रजाजन नाना कर, अन्न आदि देकर नाना प्रकार की आशाएँ करता है। मैं भी वेदोक्त वचनों से तेरे गुणों का वर्णन करता हुआ उसी आशागत फल को चाहता हूं । तू प्रजा का अनादर न करता हुआ प्रजा के कर्त्तव्यों को जान और मुझ प्रजाजन की आयु को नष्ट मत कर । सूर्य पक्ष में—यज्ञशील पुरुष हवियों द्वारा बहुत से उत्तम फल चाहता है। उन फलों को मैं वेदज्ञान से प्राप्त करूँ। हमें सूर्य का प्रकाश, ज्ञान और सूर्य हमारे जीवन नष्ट न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी वेदोक्त रीतीने परमेश्वर व सूर्याला जाणून सुख प्राप्त करून घ्यावे. कोणत्याही माणसाने परमेश्वर व सूर्यविद्येचा अनादर करू नये. सदैव ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करून त्याने निर्माण केलेल्या सूर्य इत्यादी पदार्थांना त्यांच्या गुणांसह जाणून त्यांचा उपयोग करून घ्यावा व आपले आयुष्य निरंतर वाढवावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Varuna, lord ruler of the stars, praised and celebrated by many, I come to you singing in worship the hymns of divinity, offering holy fragrances in yajna with faith and reverence. Lord kind and gracious, give us the light of life here itself. Let not our life waste away.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that Varuņa (God or sun) is, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in the favour of God- He=O! (uruśaṃsa)=absolutely praiseworthy, (varuṇam)=of God, (yam)=of that, (tvām)=yours, (āśritya)=taking shelter, (yajamānaḥ=the scholar who performs three types of sacrifices, (havirbhiḥ)=by means of oblations, (tat)=of that delight, (ā)=in every way, (śāste)=desires, (tam)=that, (tvā)=to you, [usa sukha kī prāpti ke liye] =to get that happiness, (brahmaṇā)=with mantras of Vedas, (vandamānaḥ)=we praise and sing. Second in the favour of Sun- (tat) =That, (sukham) =of delight, (icchan=desiring, (yajamānaḥ)= scholars performing three types of sacrifice ,(yam) =to whom, (uruśaṃsa)=most admirable Sun, (vāyurvā) =God or air, (ā) =from all sides, (śāste) =desires, [aura]=and, (yam) =whose, (brahmaṇā)= with mantras of Vedas, (vandamānaḥ)=praise and sing, (aheḻamānaḥ) samasta ādaroṃ se uttama ādara dete hue (tat)=that, (sukham) =of dekught, (icchan)=desiring, (aham)=I,(yāmi) =obtain, (saḥ)=that, (uruśaṃsa)=most praiseworthy Sun, (varuṇa)=God or air, (asmābhiḥ)=to us, (bodhi)=may be known, (yataḥ)=therefore, (ayam)=this, (naḥ)=our, (āyuḥ)=life, (pramoṣīḥ)=do not destroy.

    English Translation (K.K.V.)

    First in the favour of God- O absolutely praiseworthy God! Taking your shelter the scholar who performs three types of yajans by means of the oblations, desires that delight in every way. We praise that You and sing to get that happiness with the mantras of Vedas. (Rigveda 01/24/11) English Translation (K.K.V.) Second in the favour of Sun- Desirous of that happiness, the scholar who performs three types of yajans, which is desired from all sides by the most praiseworthy Sun, God or air and who is praised and sung with the mantras of Vedas. Giving the best of all respects, desiring that happiness, I get it. May that most praiseworthy Sun, God or air be known to us. That's why it should not destroy our life.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Human beings should not disrespect the God and knowledge regarding the Sun in the Vedic manner. Always obey the commands of God and the king. Knowing the properties of the substances created by Him, one should continuously increase his life by taking help from Him.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of that Varuna is taught in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O God praised by many devotees, I glorifying Thee with the Vedic hymns and adoring (never showing disrespect) approach Thee to give that Happiness which the performer of the threefold Yajna (non-violent sacrifice) desires to achieve taking shelter in Thee. Kindly be known to me i. e. enlighten me so that I may know Thee well and do not snatch away or end our life (pre-, maturely). (2) In the case of the sun, the meaning is-may I know the real nature of the sun whose praise is sung by us through the Vedas, showing its properties or attributes, desiring happiness derived from good health, so that we may live long, may not our life be cut short by not making proper use of the heat and light of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यजमान:) त्रिविधस्य यज्ञस्य अनुष्ठाता = The performer of the threefold Yajna. (अहेडमान:) अनादरमकुर्वाणः = Never dishonoring. (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः = By Havana and other means. (बोधि) विदितो भव, विदितगुणो वा भव = Be known to us, may we know its (sun's) attributes.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should attain happiness by knowing the attributes of God and the sun. None should ever dishonor God or neglect the science of the sun. All should try to prolong their lives by obeying the commands of God and by knowing the properties of the objects created by Him.

    Translator's Notes

    हेडू-अनादरे = to dishonor. By त्रिविधयज्ञ is meant देवपूजा Respect shown to God and enlightened truthful persons, संगतिकरण association with the people to accomplish social and national duties for the welfare of all and दान Charity to promote the interests of society. It may also mean three kinds of Yajnas (1) spiritual. Or mental Yajna consisting of ज्ञान यज्ञ स्वाध्याय acquisition of knowledge through the study of the Vedas known as ब्रह्मयज्ञ (२) आधिभौतिक यज्ञ or discharge of social or national duties by association with others संगतिकरण (३ ) आधिदैविक यज्ञ or cosmic Yajna in the form of Haven etc. meant for the purification of the air and water etc.

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