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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    जरा॑बोध॒ तद्वि॑विड्ढि वि॒शेवि॑शे य॒ज्ञिया॑य। स्तोमं॑ रु॒द्राय॒ दृशी॑कम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जरा॑ऽबोध । तत् । वि॒वि॒ड्ढि॒ । वि॒शेऽवि॑शे । य॒ज्ञिया॑य । स्तोम॑म् । रु॒द्राय॑ । दृशी॑कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जराऽबोध। तत्। विविड्ढि। विशेऽविशे। यज्ञियाय। स्तोमम्। रुद्राय। दृशीकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे जराबोध सेनाधिपते ! त्वं यस्माद् विशेविशे यज्ञियाय रुद्राय दृशीकं स्तोमं विविड्ढि तत्तस्मान्मानार्होऽसि॥१०॥

    पदार्थः

    (जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ (तत्) तस्मात् (विविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात्। निजां त्रयाणां गुणः० (अष्टा०७.४.७५) अनेनाभ्यासस्य गुणनिषेधः। (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै। अत्र तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.१.७१) अनेन वार्त्तिकेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्ययः (स्तोमम्) स्तुतिसमूहम् (रुद्राय) रोदकाय (दृशीकम्) द्रष्टुमर्हम्। अत्र बाहुलकादौणादिक ईकन् प्रत्ययः। किच्च। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणस्तां बोधय तया बोधयितरिति वा। तद्विविड्ढि तत्कुरु। मनुष्यस्य मनुष्यस्य वा यज्ञियाय स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम्। (निरु०१०.८)॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्णोपमालङ्कारः। नैव धनुर्वेदविदो गुणश्रवणेन विनाऽस्य बोधः सम्भवति, यः प्रजासुखाय तीक्ष्णस्वभावान् शत्रुबलहृद्भृत्यान् सुशिक्ष्य रक्षति, स एव प्रजापालो भवितुमर्हति॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (जराबोध) गुण कीर्त्तन से प्रकाशित होनेवाले सेनापति आप जिससे (विशेविशे) प्राणी-प्राणी के सुख के लिये (यज्ञियाय) यज्ञकर्म के योग्य (रुद्राय) दुष्टों को रुलानेवाले के लिये सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले (दृशीकम्) देखने योग्य (स्तोमम्) स्तुतिसमूह गुणकीर्त्तन को (विविड्ढि) व्याप्त करते हो, (तत्) इससे माननीय हो॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पूर्णोपमालङ्कार है। युद्धविद्या के जाननेवाले के गुणों को श्रवण करे विना इस का ज्ञान नहीं होता और जो प्रजा के सुख के लिये अतितीक्ष्ण स्वभाववाले शत्रुओं के बल के नाश करनेहारे भृत्यों को अच्छी शिक्षा दे कर रखता है, वही प्रजापालन में योग्य होता है॥१०॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे जराबोध सेनाधिपते ! त्वं यस्मात् विशे विशे यज्ञियाय रुद्राय दृशीकं स्तोमं विविड्ढि तत् तस्मात् मानार्हः असि॥१०॥

    पदार्थ

    हे (जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ=जिस सेनापति का गुणों की स्तुति से प्रकाशित होने वाला बोध है, ऐसे (सेनाधिपते)=सेनाधिपति! (त्वम्)=आप, (यस्मात्)=जिससे, (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै= प्रत्येक सन्तान  के लिये, (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै=यज्ञकर्म के योग्य, (रुद्राय)=दुष्टों को रुलानेवाले के लिये, (दृशीकम्) द्रष्टुमर्हम्=सब पदार्थों को प्रकाशित करने योग्य, (स्तोमम्) स्तुतिसमूहम्=स्तुतिसमूह गुणकीर्त्तन को, (विविड्ढि) व्याप्नुहि=व्याप्त करते हो, (तत्) तस्मात्=इसलिये, (मानार्हः)=माननीय, (असि)=हो॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में पूर्ण उपमालङ्कार है। धनुर्वेद के जाननेवाले के गुणों का श्रवण करें, विना इसका ज्ञान नहीं होना सम्भव नहीं है।  जो प्रजा के सुख के लिये तीक्ष्ण स्वभाववाले शत्रुओं के बल के नाश करनेहारे सेवकों को अच्छी शिक्षा देकर सुरक्षित करता है, वही प्रजापालन में योग्य होता है ॥१०॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-धनुर्वेद- धनुर्वेद एक उपवेद है। इसके अन्तर्गत धनुर्विद्या और सैन्य विज्ञान आता है। दूसरे शब्दों में धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है ॥१०॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (जराबोध) जिस सेनापति का गुणों की स्तुति से प्रकाशित होने वाला बोध है, हे ऐसे (सेनाधिपते) सेनाधिपति! (त्वम्) आप (यस्मात्) जिस गुण से (विशेविशे) प्रत्येक सन्तान  के लिये,  (यज्ञियाय) यज्ञकर्म के योग्य (रुद्राय) दुष्टों को रुलानेवाले के लिये (दृशीकम्) सब पदार्थों को प्रकाशित करने योग्य (स्तोमम्) स्तुतिसमूह से गुण कीर्त्तन को (विविड्ढि) व्याप्त करते हो, (तत्) इसलिये आप (मानार्हः) माननीय (असि) हो॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ (तत्) तस्मात् (विविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात्। निजां त्रयाणां गुणः० (अष्टा०७.४.७५) अनेनाभ्यासस्य गुणनिषेधः। (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै। अत्र तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.१.७१) अनेन वार्त्तिकेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्ययः (स्तोमम्) स्तुतिसमूहम् (रुद्राय) रोदकाय (दृशीकम्) द्रष्टुमर्हम्। अत्र बाहुलकादौणादिक ईकन् प्रत्ययः। किच्च। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणस्तां बोधय तया बोधयितरिति वा। तद्विविड्ढि तत्कुरु। मनुष्यस्य मनुष्यस्य वा यज्ञियाय स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम्। (निरु०१०.८)॥१०॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे जराबोध सेनाधिपते ! त्वं यस्माद् विशेविशे यज्ञियाय रुद्राय दृशीकं स्तोमं विविड्ढि तत्तस्मान्मानार्होऽसि॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र पूर्णोपमालङ्कारः। नैव धनुर्वेदविदो गुणश्रवणेन विनाऽस्य बोधः सम्भवति, यः प्रजासुखाय तीक्ष्णस्वभावान् शत्रुबलहृद्भृत्यान् सुशिक्ष्य रक्षति, स एव प्रजापालो भवितुमर्हति॥१०॥

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    विषय

    दृशीक स्तोम

    पदार्थ

    १. हे (जराबोध) - बुढ़ापे में चेतनेवाले जीव! (विशे विशे यज्ञियाय) - प्रत्येक प्राणी के लिए पूजनीय अथवा प्रत्येक प्राणी के साथ सम्पर्कवाले (रुद्राय) - [रुत् - र] सदा हृदयस्थ रूपेण उत्तम प्रेरणा देनेवाले प्रभु के लिए (तत् दृशीकं स्तोमम्) - उस आँख से दिखनेवाले स्तुतिसमूह को (विविड्ढि)- [विषलृ व्याप्तौ] अपने जीवन में व्याप्त कर । 

    २. सामान्यतः मनुष्य बाल्यकाल में खेलता रह जाता है और यौवन में विषय - प्रवण बना रहता है , वार्धक्य में आकर उसे प्रभु - स्तवन का ध्यान आता है , अतः उसे जराबोध कहा गया है । प्रभु कहते हैं कि तू प्रभुस्तवन को जीवनभर प्राप्त करनेवाला बन [विविड्ढि] । तेरा यह स्तोम सदा चले । 

    ३. यह स्तोम दृशीक हो - आँखों से दिखे । तू केवल श्रव्यभक्ति व कीर्तन ही न करता रह जाए । प्राणियों की सेवा ही उस प्रभु का 'दृशीक स्तोम' हैं । वे प्रभु सब प्राणियों के अन्दर विद्यमान हैं । उन प्राणियों का हित करते हुए हम अन्तःशरीरस्थ उस प्रभु को ही प्रीणित कर रहे होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्य बुढ़ापे में ही जाकर न चेते । यह सदा इस प्रभु का दृश्य भजन करनेवाला हो । प्राणियों का हित ही प्रभु का दृशीक स्तोम है । 

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    विषय

    पराक्रमी सेनापति, विद्वान् नायक

    भावार्थ

    हे (जराबोध) अपनी गुण स्तुति द्वारा अपने वास्तविक सामर्थ्य का ज्ञान प्राप्त करनेवाले अग्रणी नायक ! तू (विशेविशे) प्रत्येक प्रकार की प्रजा के लिए ( यज्ञियाय ) यज्ञ, राष्ट्रव्यवस्था अथवा युद्धक्षेत्र के योग्य ( रुद्राय ) उपदेष्टा विद्वान्, शत्रुओं के रुलानेवाले वीर पुरुष और योद्धा के (दृशीकम्) दर्शनीय (तत् ) उस २ ( स्तोमम् ) सत्य गुण, स्तोम को ( विविड्ढि ) विशेष रूप से प्राप्त कर । अर्थात् वीर नायकों और सैनिकों को निरन्तर उनके योग्य गुणस्तवन और उत्साहवर्धक वाक्य सुनाते रहने से उनको अपनी शक्ति और सामर्थ्य का ज्ञान होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात पूर्णोपमालंकार आहे. युद्धविद्येच्या जाणकाराचे गुण श्रवण केल्याशिवाय त्याचे ज्ञान होत नाही व जो प्रजेच्या सुखासाठी तीक्ष्ण स्वभावाच्या शत्रूंच्या बलाचा नाश करणाऱ्या सेवकांना चांगले शिक्षण देतो तोच प्रजेचे पालन करण्यायोग्य असतो. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Hero of high knowledge and wide fame, create and provide for every people and offer to adorable yajnic Rudra, brilliant lord of justice and power, that wealth, honour and celebration which is magnificent and worthy of praise.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of he is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (jarābodha)=The Commander whose knowledge is promulgated by the praise of virtues, such, (senādhipate)=Commander, (tvam)=you, (yasmāt)=by which virtue, (viśeviśe)=for each descendant, (yajñiyāya)=worthy of the sacrifice, (rudrāya)=for that who makes the wicked weep, (dṛśīkam)=capable of revealing all substances, (stomam)=by chanting with group of mantras for praise, (viviḍḍhi)=pervade, (tat)=so, [āpa]=you, (mānārhaḥ)= virtuous, (asi)=are.

    English Translation (K.K.V.)

    The commander who has the enlightenment that is promulgated by the praise of the virtues, O such commander! The quality by which you spread hymns of praise to the one who makes the wicked cry for every descendant, who is capable of revealing all substances. That's why you are virtuous.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is full simile as a figurative in this mantra. Listen to the qualities of the knower of Dhanurveda, without this it is not possible to have knowledge of it. The one who protects the servants of the people by giving good education to those who destroy by the force of the enemies of sharp nature for the happiness of the subjects, he is worthy in the protecting the peoples.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    There is full simile as a figurative in this mantra. Listen to the qualities of the knower of Dhanurveda, without this it is not possible to have knowledge of it. The one who protects the servants of the people by giving good education to those who destroy by the force of the enemies of sharp nature for the happiness of the subjects, he is worthy in the protecting the peoples.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni) is taught further in the 10th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, you who are well-known on account of praise by others, deserve honor because you are engaged in bringing about the welfare of all people charmingly, admire a hero who makes unrighteous people weep and himself performs Yajnas and all other good actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( जराबोध ) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ । = A commander of the army known by your praise. ( विविद्धि ) व्याप्नुहि अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नियमात् निजां त्रयाणां गुणः श्लौ ( अष्टा० ७.४.७५ ) अनेनाभ्यासस्य गुणनिषेधः || ( यज्ञियाय ) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै अत्र तत् कर्माहतीति उपसंख्यानम् (अष्टा० ५.१.७१) अनेन यज्ञ शब्दाद्ध: प्रत्ययः । = A hero who performs Yajnas and other noble acts. (रुद्राय) रोदकाय । = For a hero who makes his enemies weep.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one can get knowledge of the science of archery, unless one hears the praise of such an expert archer. 'He alone can be the protector of the people who trains well those persons for the welfare of the subject who are of aggressive nature, destroying the strength of their foes.

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