ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
नकि॑रस्य सहन्त्य पर्ये॒ता कय॑स्य चित्। वाजो॑ अस्ति श्र॒वाय्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । अ॒स्य॒ । स॒ह॒न्त्य॒ । प॒रि॒ऽए॒ता । कय॑स्य । चि॒त् । वाजः॑ । अ॒स्ति॒ । श्र॒वाय्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥
स्वर रहित पद पाठनकिः। अस्य। सहन्त्य। परिऽएता। कयस्य। चित्। वाजः। अस्ति। श्रवाय्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे सहन्त्य सहनशील विद्वन्नकिः पर्येता त्वं यस्यास्य कयस्य धर्मात्मनो वीरस्य श्रवाय्यो वाजोऽस्ति, तस्मै सर्वमभीष्टं पदार्थं दद्या इति नियोज्यते भवानस्माभिः॥८॥
पदार्थः
(नकिः) धर्ममर्यादा या नाक्रमिता। नकिरिति सर्वसमानीयेषु पठितम्। (निघं०३.१२) अनेन क्रमणनिषेधार्थो गृह्यते (अस्य) सेनाध्यक्षस्य (सहन्त्य) सहनशील विद्वन् (पर्येता) सर्वतोऽनुग्रहीता (कयस्य) चिकेति जानाति योद्धुं शत्रून् पराजेतुं यः स कयस्तस्य। अत्र सायणाचार्येण यकारोपजनश्छान्दस इति भ्रमादेवोक्तम्। (चित्) एव (वाजः) संग्रामः (अस्ति) भवति (श्रवाय्यः) श्रोतुमर्हः। अत्र श्रुदक्षिस्पृहि० (उणा०३.९४) अनेनाय्य प्रत्ययः॥८॥
भावार्थः
यथा नैव कश्चिद् विद्वानप्यनन्तशुभगुणस्याप्रमेयस्याक्रमितव्यस्य परमेश्वरस्य क्रमणं परिमाणं कर्त्तुमर्हति यस्य सर्वं विज्ञानं निर्भ्रान्तमस्ति, तथैव येनैवं प्रवृत्त्यते स एव सर्वैर्मनुष्यै राजकार्य्याधिपतिः स्थापनीयः॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (सहन्त्य) सहनशील विद्वान् ! (नकिः) जो धर्म की मर्यादा उल्लङ्घन न करने और (पर्येता) सब पर पूर्ण कृपा करनेवाले आप (यस्य) जिस (कयस्य) युद्ध करने और शत्रुओं को जीतनेवाले शूरवीर पुरुष का (श्रवाय्यः) श्रवण करने योग्य (वाजः) युद्ध करना (अस्ति) होता है, उसको सब उत्तम पदार्थ सदा दिया कीजिये, इस प्रकार आप का नियोग हम लोग करते हैं॥८॥
भावार्थ
जैसे कोई भी जीव जिस अनन्त शुभ गुणयुक्त परिमाण सहित सब से उत्तम परमेश्वर के गुणों की न्यूनता वा उसका परिमाण करने को योग्य नहीं हो सकता, जिसका सब ज्ञान निर्भ्रम है, वैसे जो मनुष्य वर्त्तता है, वही सब राजकार्यों का स्वामी नियत करना चाहिये॥८॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सहन्त्य सहनशील विद्वन् न किः पर्येता त्वं यस्य अस्य कयस्य धर्मात्मनः वीरस्य श्रवाय्यः वाजः अस्ति तस्मै सर्वम् अभीष्टम् पदार्थं दद्या इति नियोज्यते भवान् अस्माभिः॥८॥
पदार्थ
हे (सहन्त्य) सहनशील विद्वन्= सहनशील विद्वान्! (नकिः) धर्ममर्यादा या नाक्रमिता=जो धर्म की मर्यादा उल्लङ्घन न करने और (पर्येता) सर्वतोऽनुग्रहीता= सब पर पूर्ण कृपा करनेवाले, (त्वम्)=आप, (यस्य)=जिस, (अस्य) सेनाध्यक्षस्य=सेनाध्यक्ष का, (कयस्य) चिकेति जानाति योद्धुं शत्रून् पराजेतुं यः स कयस्तस्य=युद्ध में शत्रुओं को परजित करना जानते हैं जो, उन (धर्मात्मनः)=धर्मात्मा, (वीरस्य)=वीर का, (श्रवाय्यः) श्रोतुमर्हः=श्रवण करने योग्य, (वाजः) संग्रामः=संग्राम, (अस्ति) भवति=है, (तस्मै)=उसके लिये, (सर्वम्)=सब, (अभीष्टम्)=अभीष्ट, (पदार्थं)=पदार्थों को, (दद्या)=देकर, (इति) इस प्रकार का (भवान्)=आप और (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (नियोज्यते) कर्तव्य कार्य को किया जाता है॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे कोई भी जीव जिस अनन्त शुभ गुणयुक्त परिमाण सहित सब से उत्तम परमेश्वर के गुणों की न्यूनता वा उसका परिमाण करने को योग्य नहीं हो सकता, जिसका सब ज्ञान निर्भ्रान्त है, वैसे ही जिस मनुष्य के द्वारा प्रवृत्ति होती है, वही सब मनुष्यों के द्वारा राजकार्यों का स्वामी नियत किया जाना चाहिये॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सहन्त्य) सहनशील विद्वान्! (नकिः) जो धर्म की मर्यादा का उल्लङ्घन न करने और (पर्येता) सब पर पूर्ण कृपा करने वाले (त्वम्) आप, (यस्य) जिस (अस्य) सेनाध्यक्ष को (कयस्य) युद्ध में शत्रुओं को परजित करना जानते हैं जो, उन (धर्मात्मनः) धर्मात्मा और (वीरस्य) वीरों का (श्रवाय्यः) श्रवण करने योग्य (वाजः) संग्राम (अस्ति) है। (तस्मै) उसके लिये (सर्वम्) सब (अभीष्टम्) अभीष्ट (पदार्थं) पदार्थों को (दद्या) देकर (इति) इस प्रकार का (भवान्) आप और (अस्माभिः) हमारे द्वारा (नियोज्यते) कर्तव्य कार्य को किया जाता है॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नकिः) धर्ममर्यादा या नाक्रमिता। नकिरिति सर्वसमानीयेषु पठितम्। (निघं०३.१२) अनेन क्रमणनिषेधार्थो गृह्यते (अस्य) सेनाध्यक्षस्य (सहन्त्य) सहनशील विद्वन् (पर्येता) सर्वतोऽनुग्रहीता (कयस्य) चिकेति जानाति योद्धुं शत्रून् पराजेतुं यः स कयस्तस्य। अत्र सायणाचार्येण यकारोपजनश्छान्दस इति भ्रमादेवोक्तम्। (चित्) एव (वाजः) संग्रामः (अस्ति) भवति (श्रवाय्यः) श्रोतुमर्हः। अत्र श्रुदक्षिस्पृहि० (उणा०३.९४) अनेनाय्य प्रत्ययः॥८॥
विषय- पुनः सः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे सहन्त्य सहनशील विद्वन्नकिः पर्येता त्वं यस्यास्य कयस्य धर्मात्मनो वीरस्य श्रवाय्यो वाजोऽस्ति, तस्मै सर्वमभीष्टं पदार्थं दद्या इति नियोज्यते भवानस्माभिः॥८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा नैव कश्चिद् विद्वानप्यनन्तशुभगुणस्याप्रमेयस्याक्रमितव्यस्य परमेश्वरस्य क्रमणं परिमाणं कर्त्तुमर्हति यस्य सर्वं विज्ञानं निर्भ्रान्तमस्ति, तथैव येनैवं प्रवृत्त्यते स एव सर्वैर्मनुष्यै राजकार्य्याधिपतिः स्थापनीयः॥८॥
विषय
अनाक्रमणीयता
पदार्थ
१. हे (सहन्त्य( - हमारे सब शत्रुओं का पराभव करनेवाले प्रभो ! (अस्य करस्य चित्) - [कं यातीति कयः] इस आनन्दस्वरूप प्रभु की ओर चलनेवाले किसी भी पुरुष का (न किः पर्येता) - कोई भी अभिभव करनेवाला नहीं है , अर्थात् प्रभुभक्त को कोई भी वासना आक्रान्त नहीं कर सकती ।
२. प्रभु के सम्पर्क के कारण इस 'कय' का (वाजः) - बल (श्रवाय्यः) - प्रशंसा के योग्य (अस्ति) - होता है , इसकी शक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होती है । वस्तुतः जब मनुष्य वासनाओं से आक्रान्त हो जाता है तभी वह अपनी शक्ति को क्षीण कर बैठता है । भोग शक्ति को जीर्ण करके शरीर को रोगी बना देते हैं और जीवन का सब आनन्द समाप्त हो जाता है । यह मनुष्य 'क - य' नहीं रहता । प्रभु अपने भक्त का कवच बनते हैं । 'ब्रह्म वर्म ममान्तरम्' और इसे शत्रुओं से अनाक्रमणीय बना देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभुभक्त बनें , वासनाओं से अनाक्रमणीय होकर प्रशस्त बलवाले हों ।
विषय
परमेश्वर और विद्वान् ।
भावार्थ
हे ( सहन्त्य ) सहनशील ! विद्वन् ! (अस्य) इस ( कयस्य चित् ) ज्ञानवान्, युद्ध-विद्या कुशल, पराक्रमी सेनापति का ( पर्येता ) मुक़ाबला करनेवाला ( नकिः ) कोई नहीं है । और (अस्य वाजः) इसका बल वीर्य, ऐश्वर्य और वेग भी ( श्रवाय्यः ) जगत्प्रसिद्ध, कहने सुनने योग्य, एवं स्तुत्य, आश्चर्यकारी (अस्ति) है ।
टिप्पणी
‘कयस्य’ –कस्येत्यत्र यकारोपजन इति सायणः । चिकेति जानाति इति क्रयः इति दया० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे कोणताही जीव ज्या अनन्त शुभगुणयुक्त परिमाणांसहित सर्वांत उत्तम परमेश्वराच्या गुणांचे परिमाण काढू शकत नाही, ज्याचे सर्व ज्ञान निर्भ्रम आहे असे जाणून तो माणूस वागतो त्याला राजकार्याचा स्वामी नेमले पाहिजे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
No one is his challenger, no vanquisher of the hero whose battle for life and humanity is worthy of praise.
Subject of the mantra
Then, what kind of He (God) is? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sahantya)= patient scholar, (nakiḥ)=who does not violate the limits of tenet, [aura]=and, (paryetā)=is benevolent to all, (tvam)=you, (yasya)=whose, (asya)=that of an army chief, (kayasya)= Those who know how to defeat enemies in battle, (dharmātmanaḥ)=of righteous, (vīrasya)=of brave, (śravāyyaḥ)=audible, (vājaḥ)=battle, (asti)=is, (tasmai)=for that, (sarvam)=all, (abhīṣṭam)=required, (padārthaṃ)=of the substances, (dadyā)=by giving, (iti)=thus, (bhavān)=you, [aura]=and, (asmābhiḥ)=by us, (niyojyate)=duty is to be done.
English Translation (K.K.V.)
O patient scholar! You who don't violate the dignity of righteousness and are full of mercy to everyone, the army chief who knows how to defeat the enemies in the war, who is a war worthy of listening to the righteous and heroes. This kind of duty is to be done by you and us by giving all the desired things for it.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as no living being can be capable of minimizing or quantifying the qualities of the Supreme God with the quantity of infinite good qualities, whose all knowledge is infallible, whose all knowledge is non-perplexed. He should be appointed by all human beings as the master of the royal affairs.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that “Agni” is further taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person of enduring nature, you, who never transgress the limit of righteousness, should give all desirable objects to a person, who being a righteous hero wages a memorable battle. This is our injunction to you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( न कि:) धर्ममर्यादा नाक्रमिता । न किरिति सर्व समानीयेषु पठितम् ( निघ० ३.१२ ) अनेन क्रमेण निषेधार्थो गृह्यते ॥ = Not transgressor of the limit of Dharma or righteousness. (पर्येता) सर्वतोऽनुग्रहीता । = Kind. ( कयस्य ) चिकेति जानाति युद्धे शत्रून् पराजेतुं यः स कयस्तस्य अत्र सायणाचार्येण यकारोपजनच्छान्दस इति भ्रमादेवोक्तम् ।। = Who knows how to defeat his enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As not even a highly learned person can ever measure the power of the Infinite, Immeasurable and Inviolable God Whose Wisdom is Infallible, so only that man should be appointed as a ruler, who follows the Lord and obeys His commands.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Hemanshu Pota
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal