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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒ममू॒ षु त्वम॒स्माकं॑ स॒निं गा॑य॒त्रं नव्यां॑सम्। अग्ने॑ दे॒वेषु॒ प्र वो॑चः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । त्वम् । अ॒स्माक॑म् । स॒निम् । गा॒य॒त्रम् । नव्यां॑सम् । अग्ने॑ । दे॒वेषु॑ । प्र । वो॒चः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। ऊँ इति। सु। त्वम्। अस्माकम्। सनिम्। गायत्रम्। नव्यांसम्। अग्ने। देवेषु। प्र। वोचः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं यथा देवेषु नव्यांसं गायत्रं सुसनिं प्रवोचस्तथेममु इति वितर्केऽस्माकमात्मसु प्रवग्धि॥४॥

    पदार्थः

    (इमम्) वक्ष्यमाणम् (ऊ) वितर्के अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सु) शोभने (त्वम्) सर्वमङ्गलप्रदातेश्वरः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (सनिम्) सनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र ‘सन’ धातोः। खनिकृष्यज्यसिवसिवनिसनि० (उणा०४.१४५) अनेनाऽधिकरण ‘इः’ प्रत्ययः। (गायत्रम्) गायत्रीप्रगाथा येषु चतुर्षु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम् (नव्यांसम्) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात्तम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनेकारलोपश्च। (अग्ने) अनन्तविद्यामय जगदीश्वर ! (देवेषु) सुष्ट्यादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वोचः) प्रोक्तवान्। अत्र ‘वच’ धातोर्वर्त्तमाने लुङडभावश्च॥४॥

    भावार्थः

    हे जगदीश्वर ! भवान् यथा ब्रह्मादीनां महर्षीणां धार्मिकाणां विदुषामात्मसु सत्यं बोधं प्रकाश्य परमं सुखं दत्तवान्, तथैवास्माकमात्मसु तादृशमेव प्रकाशय यतो वयं विद्वांसो भूत्वा श्रेष्ठानि धर्म्मकार्य्याणि सदैव कुर्य्यामेति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर का प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अनन्त विद्यामय जगदीश्वर (त्वम्) सब विद्याओं का उपदेश करने और सब मङ्गलों के देनेवाले आप जैसे सृष्टि की आदि में (देवेषु) पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अङ्गिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में (नव्यांसम्) नवीन-नवीन बोध करानेवाला (गायत्रम्) गायत्री आदि छन्दों से युक्त (सुसनिम्) जिन में सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं, उन चारों वेदों का (प्रवोचः) उपदेश किया और अगले कल्प-कल्पादि में फिर भी करोगे, वैसे उसको (उ) विविध प्रकार से (अस्माकम्) हमारे आत्माओं में (सु) अच्छे प्रकार कीजिये॥४॥

    भावार्थ

    हे जगदीश्वर ! आप ने जैसे ब्रह्मा आदि महर्षि धार्मिक विद्वानों के आत्माओं में वेद द्वारा सत्य बोध का प्रकाश कर उनको उत्तम सुख दिया, वैसे ही हम लोगों के आत्माओं में बोध प्रकाशित कीजिये, जिससे हम लोग विद्वान् होकर उत्तम-उत्तम धर्मकार्यों का सदा सेवन करते रहें॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर का प्रकाश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने! त्वं यथा देवेषु नव्यांसं गायत्रं सुसनिं प्रवोचः तथा इमम् उ इति वितर्के अस्माकम् आत्मसु प्रवग्धि॥४॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अनन्तविद्यामय जगदीश्वर=अनन्त विद्यामय जगदीश्वर ! (त्वम्) सर्वमङ्गलप्रदातेश्वरः= सब मङ्गलों के देनेवाले हो (यथा)=जैसे, (देवेषु) सृष्ट्यादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु=सृष्टि के आदि में पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अङ्गिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में,   (नव्यांसम्) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात्तम्=अत्यघिक नवीन-नवीन बोध करानेवाला,  (गायत्रम्) गायत्रीप्रगाथा येषु चतुर्षु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम्=वेदचतुष्टय के उन गायत्री आदि छन्दों से युक्त, (सु) शोभने=सुन्दर, (सनिम्) सनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम्=जिन में सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं, उन व्यवहारों में, (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे=अच्छी तरह से,  (वोचः) प्रोक्तवान्=उपदेश किया  है, (तथा)=ऐसे ही, (इमम्) वक्ष्यमाणम्=कहे गये, (ऊ) वितर्के=या,  (अस्माकम्) मनुष्याणाम् मनुष्यों के, (आत्मसु)=आत्माओं में, (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (वग्धि)=कहिये॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे जगदीश्वर ! आप जैसे ब्रह्मा आदि महर्षियों, धार्मिकों और विद्वानों के आत्माओं में सत्य के ज्ञान का प्रकाश करके उनको परम सुख दिया है, वैसे ही हम लोगों के आत्माओं को  उसी प्रकार से प्रकाशित कीजिये, जिससे हम लोग विद्वान् होकर श्रेष्ठ धर्म कार्यों को सदा करते रहें ॥४॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- सृष्टि के आदि में चार पुण्य आत्माओं जिनके नाम  क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा थे क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के मन्त्रों का ज्ञान दिया गया था ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) अनन्त विद्यामय जगदीश्वर ! (त्वम्)   सब मङ्गलों के देनेवाले हो (यथा) जैसे (देवेषु) सृष्टि के आदि में पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अङ्गिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में   (नव्यांसम्) अत्यघिक नवीन-नवीन बोध कराने वाला  (गायत्रम्) वेदचतुष्टय के उन गायत्री आदि छन्दों से युक्त (सु) सुन्दर (सनिम्)  जिन में सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं, उन व्यवहारों में (प्र)  अच्छी तरह से  (वोचः)  उपदेश किया है। (ऊ) या (तथा) ऐसे ही (इमम्) कहे गये   (अस्माकम्)  मनुष्यों के (आत्मसु) आत्माओं में, (प्र) अच्छे प्रकार से (वग्धि) कहिये॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इमम्) वक्ष्यमाणम् (ऊ) वितर्के अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सु) शोभने (त्वम्) सर्वमङ्गलप्रदातेश्वरः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (सनिम्) सनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र 'सन' धातोः। खनिकृष्यज्यसिवसिवनिसनि० (उणा०४.१४५) अनेनाऽधिकरण 'इः' प्रत्ययः। (गायत्रम्) गायत्रीप्रगाथा येषु चतुर्षु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम् (नव्यांसम्) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात्तम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनेकारलोपश्च। (अग्ने) अनन्तविद्यामय जगदीश्वर ! (देवेषु) सुष्ट्यादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वोचः) प्रोक्तवान्। अत्र 'वच' धातोर्वर्त्तमाने लुङडभावश्च॥४॥
    विषयः- अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे अग्ने ! त्वं यथा देवेषु नव्यांसं गायत्रं सुसनिं प्रवोचस्तथेममु इति वितर्केऽस्माकमात्मसु प्रवग्धि॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे जगदीश्वर ! भवान् यथा ब्रह्मादीनां महर्षीणां धार्मिकाणां विदुषामात्मसु सत्यं बोधं प्रकाश्य परमं सुखं दत्तवान्, तथैवास्माकमात्मसु तादृशमेव प्रकाशय यतो वयं विद्वांसो भूत्वा श्रेष्ठानि धर्म्मकार्य्याणि सदैव कुर्य्यामेति ॥४॥

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    विषय

    सनि - गायत्र व नव्यान्

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - हमारे जीवनों को उन्नत करनेवाले प्रभो! (त्वम्) - आप (अस्माकम्) - हमारे (देवेषु) - इन्द्रिय , मन व बुद्धि आदि उपकरणों में (ऊ षु) - निश्चयपूर्वक उत्तमता से (सनिं , गायत्रं नव्यांसम्) - सनि , गायत्र व नव्यान् का (प्रवोचः) - प्रवचन कीजिए , अर्थात् हमारी इन्द्रियाँ , मन व बुद्धि 'सनि , गायत्र व नव्यान्' का उच्चारण करें , हमारी इन्द्रियों में इनका प्रकाश हो । 

    २. 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते' - इस अथर्व - मन्त्र के अनुसार शरीर में सब देवों का निवास है । अग्नि वाणी का रूप धारण करके मुख में रह रही है तो सूर्य चक्षु का रूप धारण करके आँख में रहता है और दिशाएँ श्रोत्ररूप में कानों में निवास करती हैं , चन्द्रमा मन बनकर हृदय में रहता है । इसी प्रकार बाह्य देव उस - उस रूप में शरीर में भी निवास कर रहे हैं । 

    ३. ये देव 'सनि' का प्रवचन करें , संविभाग की वृत्तिवाले हों , सब स्वयं खा जानेवाले न हों । ये गायत्र को करें , अर्थात् 'गयाः प्राणाः , तान् त्रायते' प्राणशक्ति का रक्षण करनेवाले हों , कोई भी ऐसा कार्य न करें जिससे कि प्राणशक्ति में किसी भी प्रकार की कमी आये । ये 'नव्यान्' हों 'नु स्तुतौ' स्तुति करनेवाले हों , अतिशयित स्तुतिवाले हों । इनकी स्तुति श्रव्य न होकर दृश्य ही तो होगी । यह दृश्य स्तुति ही प्रभु को प्रिय है । इस दृश्य स्तुति का रूप सर्वभूतहित है ; एवं हमारी इन्द्रियाँ , मन व बुद्धि [क] सबके साथ बाँटकर खाएँ [ख] प्राणशक्ति को धारण करनेवाली हों [ग] और लोकहित करते हुए प्रभु के दृशीक स्तोत्र को सिद्ध करें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम बाँटकर खानेवाले हों , प्राणशक्ति का रक्षण करें , उत्कृष्ट स्तवन करनेवाले हों । 

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    विषय

    परमेश्वर और विद्वान् ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् परमेश्वर ! विद्वन् ! (त्वम्) तू ( अस्मा कम् ) हमें ( सनिम् ) समस्त सुख प्रदान करनेवाले ( गायत्रम् ) उपदेश करने और गान करने वाले को भी त्राण या रक्षा करने वाले, ( नव्यांसं ) सदा नये-नये ज्ञानों को ( देवेषु ) विद्वानों, अग्नि आदि ऋषियों और ज्ञान के द्रष्टा पुरुषों में ( प्र वोचः ) उपदेश करता है। राजा के पक्ष में—( सनिं ) सुखप्रद, ( गायत्रम् ) पृथिवी के शासन सम्बन्धी ( नव्यांसं ) अति उत्तम आज्ञा हमारे हित के लिए कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे जगदीश्वरा! तू जसे ब्रह्मा इत्यादी महर्षी धार्मिक विद्वानांच्या आत्म्यांत वेदाद्वारे सत्यबोधाचा प्रकाश करून त्यांना उत्तम सुख दिलेस तसेच आमच्या आत्म्यात बोध कर. ज्यामुळे आम्ही विद्वान बनून उत्तम धर्मकार्य सदैव करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, eternal lord omniscient, this divine knowledge, blissful, sweet and musical in Gayatri and other musical metres, ever new and giver of new ideas, pray reveal it to the sages and whisper it into our soul.

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    Subject of the mantra

    Now, by the word ‘Agni”, God’ has been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=everlasting knowledgeable God, (tvam)=provider of all bliss, (yathā)=as, (deveṣu)=at the beginning of the creation, the virtuous soul was in the souls of human beings named Agni Vayu Aditya Angira, (navyāṃsam)=highly innovative, (gāyatram)=containing those metres of Gayatri etc. mantras of Veda, (su)=gracious, (sanim)=in which practices all living beings enjoy pleasures, in those behaviours, (pra)=well, (vocaḥ)=preached, (tathā)=in the same way, (ū)=or, (imam)=is told, (asmākam)=of men, (ātmasu)=in the souls, (pra)=well, (vagdhi)=speak.

    English Translation (K.K.V.)

    O everlasting knowledgeable God! provider of all bliss, as at the beginning of the creation, the virtuous souls were in the souls of human beings named agni, vāyu, āditya and aṅgirā highly innovative, containing those mertres of Gayatri etc. mantras of Veda, gracious, in which all living beings enjoy pleasures, in those practices, is well preached or just like that in the souls of human beings, say it in a good way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O God! By propagating the knowledge of truth in the souls of great sages, righteous and scholars like you, Brahma has given them supreme happiness, in the same way, illuminate the souls of our people, so that we, being scholars, always continue to perform elevated righteous works.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    At the beginning of creation, the four virtuous souls whose names were Agni, Vayu, Aditya and Angira respectively were given the knowledge of the mantras of ṛgveda, yajurveda, sāmaveda and atharvaveda.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now by the word Agni God is taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Omniscient God, awaken in our souls the wisdom of the four Vedas which gives ever new knowledge, which consists of Gayatri and other meters and which confers happiness on all beings, as Thou revealedst to the meritorious souls (Agni, Vayu, Aditya and Angiras) in the beginning of creation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( सनिम् ) सनन्ति संभजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम् । अत्र सनधातोः खनि कृष्यज्यसि वसिवनि सनिध्वनिग्रन्थि चरिभ्यश्च ( उणादि ४.१४०) अनेन अधिकरण इः प्रत्ययः ॥ = That which causes happiness. ( गायत्रम् ) गायत्री प्रगाथा येषु चतुर्षु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम् । = The four Vedas consisting of Gayatri and other meters. ( नव्यांसम् ) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात् तम् । अत्र छान्दसो वर्णलोपः, वेत्यनेनाकारलोपश्च । = Giver of ever new knowledge. ( देवेयु) सृष्ट्यादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्यांगिरस्तु । = Most meritorious men born in the beginning of creation.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Lord of the world, as Thou gavest great delight to the great righteous and enlightened seers like Brahma and others by revealing in their souls Perfect Truth, reveal the same in our souls, so that being enlightened, we may always be engaged in doing the best righteous deeds.

    Translator's Notes

    It is to be noted lest there be some misunderstanding, that in the Mantra quoted above, there is no name mentioned of the persons born in the beginning of human creation. It is just to give information about those four seers to whom the four Vedas were revealed according to the tradition handed down from time immemorial as mentioned in Manu Smriti Shatapath Brahmana and other ancient works, that Rishi Dayananda has given the names in his commentary.

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