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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिन्धो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ। स॒द्यो दा॒शुषे॑ क्षरसि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभ॒क्ता । अ॒सि॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मौ । उ॒पा॒के । आ । स॒द्यः । दा॒शुषे॑ । क्ष॒र॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभक्ता। असि। चित्रभानो इति चित्रऽभानो। सिन्धोः। ऊर्मौ। उपाके। आ। सद्यः। दाशुषे। क्षरसि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथा हे चित्रभानो विविधविद्यायुक्त विद्वँस्त्वं सिन्धोरूर्मौ जलकणविभाग इव सर्वेषां पदार्थानां विद्यानां विभक्तासि, दाशुष उपाके सत्योपदेशेन बोधान् सद्य आक्षरसि समन्ताद्वर्षसि तथा त्वं भाग्यशाली विद्वानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥६॥

    पदार्थः

    (विभक्ता) विविधानां पदार्थानां सम्भागकर्त्ता (असि) वर्त्तसे (चित्रभानो) यथा चित्रा अद्भुता भानवो विज्ञानादिदीप्तयो यस्य विदुषस्तत्सम्बुद्धौ तथा (सिन्धोः) समुद्रस्य (ऊर्मौ) तरङ्ग इव (उपाके) समीपे (आ) सर्वतः (सद्यः) शीघ्रम् (दाशुषे) विद्याग्रहणाऽनुष्ठानकृतवते मनुष्याय (क्षरसि) वर्षसि॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्य जलकणाः पृथक् भूत्वा आकाशं प्राप्यैकीभूत्वा अभिवर्षन्ति यथा विद्वान् विद्याभिः सर्वान् पदार्थान् विभज्यैतान् पुनः पुनर्मनुष्यात्मसु प्रकाशयेत् तथाऽस्माभिः कथं नानुष्ठातव्यम्॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जैसे हे (चित्रभानो) विविधविद्यायुक्त विद्वन् मनुष्य ! आप (सिन्धोः) समुद्र की (ऊर्मौ) तरंगों में जल के बिन्दु कणों के समान सब पदार्थ विद्या के (विभक्ता) अलग-अलग करनेवाले (असि) हैं और (दाशुषे) विद्या का ग्रहण वा अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य के लिये (उपाके) समीप सत्य बोध उपदेश को (सद्यः) शीघ्र (आक्षरसि) अच्छे प्रकार वर्षाते हो, वैसे भाग्यशाली विद्वान् आप हम सब लोगों के सत्कार के योग्य हैं॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के जलकण अलग हुए आकाश को प्राप्त होकर वहाँ इकट्ठे होके वर्षते हैं, वैसे ही विद्वान् अपनी विद्या से सब पदार्थों का विभाग करके उनका बार-बार मनुष्यों के आत्माओं में प्रवेश किया करते हैं॥६॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा हे चित्रभानो विविध विद्यायुक्त विद्वन् त्वं सिन्धो ऊर्मौ जलकणविभागः इव सर्वेषां पदार्थानां विद्यानाम् विभक्ता असि, दाशुषे उपाके सत्योपदेशेन बोधान् सद्यः आ क्षरसि समन्तात् वर्षसि तथा त्वं भाग्यशाली विद्वान् अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः असि॥६॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे हे (चित्रभानो) चित्रा अद्भुता भानवो विज्ञानादिदीप्तयो यस्य विदुषस्तत्सम्बुद्धौ तथा=जिसकी विचित्र अद्भुत विशेष ज्ञान आदि की दीप्तियां हैं, ऐसे विद्वान् मनुष्य! (त्वम्)=आप, (सिन्धोः) समुद्रस्य=समुद्र की, (ऊर्मौ) तरङ्ग इव= तरंगों कणों के समान, (जलकणविभागः)=जल कण के विभाग (सर्वेषाम्)=समस्त, (पदार्थानाम्)=पदार्थों के, (विद्यानाम्)=विद्या के, (विभक्ता) विविधानां पदार्थानां सम्भागकर्त्ता=अलग-अलग पदार्थों में विभाजित करनेवाले,  (असि)=हो।  (दाशुषे) विद्याग्रहणाऽनुष्ठानकृतवते मनुष्याय=विद्या का ग्रहण या अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य के लिये, (उपाके) समीपे=समीप में (सत्योपदेशेन)=सत्योपदेश के द्वारा, (बोधान्)=बोध को, (सद्यः) शीघ्रम्=शीघ्र, (आ) सर्वतः=अच्छे प्रकार से, (क्षरसि) वर्षसि=वर्षाते हो, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=आप (भाग्यशाली)=भाग्यशाली, (विद्वान्)=विद्वान् (अस्माभिः)=हमारे, (सत्कर्त्तव्यः)=सत् कर्त्तव्य, (असि) वर्त्तसे=हों॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के जलकण अलग हुए आकाश को प्राप्त होकर वहाँ इकट्ठे होके बरसते हैं, जैसे विद्वान् विद्या से सब पदार्थों का विभाग करके बार-बार उन मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाश करते हैं, वैसे ही हमारे द्वारा क्यों न  अनुष्ठान किया जाए?॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे हे (चित्रभानो) जिसकी विचित्र अद्भुत विशेष ज्ञान आदि की दीप्तियां हैं, ऐसे विद्वान् मनुष्य! (त्वम्) आप (सिन्धोः) समुद्र के (ऊर्मौ)  तरंग कणों के समान (जलकणविभागः) जल कण के विभाग (सर्वेषाम्) समस्त (पदार्थानाम्) पदार्थों के (विद्यानाम्) विद्या के (विभक्ता)  अलग-अलग पदार्थों में विभाजित करने वाले (असि) हो।  (दाशुषे) विद्या का ग्रहण वा अनुष्ठान करने वाले मनुष्य के लिये (उपाके) समीप में (सत्योपदेशेन) सत्योपदेश के द्वारा (बोधान्) बोध को (सद्यः) शीघ्र (आ)  अच्छे प्रकार से (क्षरसि) वर्षाते हो, (तथा) वैसे ही हे (त्वम्) आप (भाग्यशाली) भाग्यशाली, (विद्वान्) विद्वान्! (अस्माभिः) हमारे (सत्कर्त्तव्यः) सत् कर्त्तव्य (असि) हों॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विभक्ता) विविधानां पदार्थानां सम्भागकर्त्ता (असि) वर्त्तसे (चित्रभानो) यथा चित्रा अद्भुता भानवो विज्ञानादिदीप्तयो यस्य विदुषस्तत्सम्बुद्धौ तथा (सिन्धोः) समुद्रस्य (ऊर्मौ) तरङ्ग इव (उपाके) समीपे (आ) सर्वतः (सद्यः) शीघ्रम् (दाशुषे) विद्याग्रहणाऽनुष्ठानकृतवते मनुष्याय (क्षरसि) वर्षसि॥६॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- यथा हे चित्रभानो विविधविद्यायुक्त विद्वँस्त्वं सिन्धोरूर्मौ जलकणविभाग इव सर्वेषां पदार्थानां विद्यानां विभक्तासि, दाशुष उपाके सत्योपदेशेन बोधान् सद्य आक्षरसि समन्ताद्वर्षसि तथा त्वं भाग्यशाली विद्वानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्य जलकणाः पृथक् भूत्वा आकाशं प्राप्यैकीभूत्वा अभिवर्षन्ति यथा विद्वान् विद्याभिः सर्वान् पदार्थान् विभज्यैतान् पुनःपुनर्मनुष्यात्मसु प्रकाशयेत् तथाऽस्माभिः कथं नानुष्ठातव्यम्॥६॥

     

     

     

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    विषय

    दान व धनलाभ

    पदार्थ

    १. हे (चित्रभानो) - अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो ! (सिन्धोः ऊर्मौ) - समुद्र की लहरों पर और उपाके - अति समीप अर्थात् सर्वत्र , मनुष्य कहीं भी हो , आप उसके लिए (आ) - सर्वथा (विभक्तासि) - धनों के देनेवाले हैं । प्रभु के समीप हम पहुँचेंगे तभी वे धन प्राप्त कराएँगे - ऐसी बात नहीं है । वे प्रभु तो हिमालय के शिखरों पर , समुद्र की लहरों पर कहीं भी हम हों , यदि हम पात्र हैं तो हमें धन की प्राप्ति कराते ही हैं ।

    २. हे प्रभो ! (दाशुषे) - दाश्वान् के लिए - दान देनेवाले के लिए आप (सद्यः) - शीघ्र ही (क्षरसि) - देते हैं । धन का मुख्य प्रयोजन तो उसका उचित स्थानों में देना ही है । यदि एक मनुष्य दान करता है तो प्रभु उसे पात्र समझ धन प्राप्त कराते ही हैं - 'दक्षिणां दुहते सप्तमातरम्' दान दिये हुए धन को तो सप्तगुणित करके हम प्राप्त करते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम कहीं भी हों , प्रभु हमें आवश्यक धन प्राप्त कराते ही हैं । जो दान देते हैं , उसे प्रभु देते हैं । 

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    विषय

    परमेश्वर और विद्वान् ।

    भावार्थ

    हे ( चित्रभानो ) चित्र विचित्र, नाना रंगों की किरणों वाले सूर्य समान विद्वन् ! राजन् ! जिस प्रकार सूर्य ( सिन्धोः ) समुद्र ( ऊर्मौं ) तरंग के उठने पर ( उपाके ) समीप ही जलों को ( विभासि ) सूक्ष्म जलों के कणों को रूप में विभक्त कर देता है । और उस सूक्ष्म जल को शीघ्र ही वर्षारूप में बरसा देता है उसी प्रकार हे नाना विद्याओं और तेजो पराक्रमों से युक्त विद्वन् ! परमेश्वर ! राजन् ! तू ( सिन्धोः ऊर्मों ) वेग से जानेवाले तरंग के समान उमड़ने वाले अपार ऐश्वर्य और ज्ञान राशि को ( विभक्ता असि ) तू सबको विभाग कर देता है। ( दाशुषे ) आत्म समर्पण के हित के लिए ( सद्यः ) शीघ्र ही ( क्षरसि ) मेघ के समान वर्षा देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे समुद्रातील जल पृथक होऊन आकाशात एकत्र होते व नंतर पर्जन्यरूपाने बरसात होते, तसेच विद्वान आपल्या विद्येने सर्व पदार्थांना सूक्ष्म करून त्यांना माणसांच्या आत्म्यात प्रविष्ट करवितात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Versatile lord of wide and various knowledge such as analysis of sea waves and water particles, come soon, you always give a shower of knowledge to the man of faith, reverence and generosity.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=As, (He)=O! (citrabhāno)=such a learned man, who has strange, wonderful special knowledge etc., (tvam)=you, (sindhoḥ)=of ocean, (ūrmau)=wave like particles, (jalakaṇavibhāgaḥ)=divisions of water particles, (sarveṣām)=all, (padārthānām)=of the substances, (vidyānām)=of the knowledge, (vibhaktā)=decomposer, (asi)=are, (dāśuṣe)=for the person who acquires knowledge or performs rituals, (upāke)=in proximity, (satyopadeśena)= by preaching the truth, (bodhān)=to realization, (sadyaḥ)=instantly, (ā)=well, (kṣarasi)=make it rain, (tathā)=in the same way, (tvam)=you, (bhāgyaśālī)=fortunate, (vidvān)=scholar, (asmābhiḥ)=our, (satkarttavyaḥ)=truthful duties, (asi)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    As, O such a learned man, who has strange, wonderful special knowledge etc.! You are decomposer of ocean of wave like particles of knowledge of divisions of water particles of all the substances. For the person who acquires knowledge or performs rituals in proximity of preaching the truth to realize instantly, make it rain well, in the same way, O fortunate scholar! Our truthful duties be.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent simile as a figurative in this mantra. Just as the water-drops of the ocean, after reaching the separated sky, collect and rain there, as the wise divide all the things with knowledge and illuminate the souls of those people again and again, why should we not perform rituals in the same way?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni) is taught in the sixth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, endowed with the wonderful radiance of various sciences, you are analyzer and classifier of the sciences of various objects, like the waves or particles of the sea and soon rainest true wisdom on the person who surrenders himself to you for acquiring knowledge. Why should not we revere such a lucky wise and learned man ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (चित्रभानो) चित्राः अद्भुताः भानवः विज्ञानादि दीप्तयः यस्य विदुषः तत्सम्बुद्धौ ॥ = Endowed with the wonderful radiance of various sciences. ( उपाके ) समीपे = near. (दाशुषे) विद्यानुष्ठानं कृतवते मनुष्याय । = To a person acquiring knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the separate particles of the water of the sea become one or united when they reach the sky and as a learned wise person classifies all objects and reveals their knowledge in the souls of all men, why should we not do like wise ?”

    Translator's Notes

    उपाके इति अन्तिकनाम ( निघ० २.१६ ) Near दाशुषे is derived from दाशृ-दाने so literally it means "one who gives himself to the acquisition of knowledge or gives himself up (surrenders) to the teacher as Rishi Dayananda has explained in his commentary on the Rigveda 1.93.1 दाशुषे-अध्ययने चित्तं दत्तवते विद्यार्थिने । = To a student paying attention to his studies.

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