ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
स नो॑ दू॒राच्चा॒साच्च॒ नि मर्त्या॑दघा॒योः। पा॒हि सद॒मिद्वि॒श्वायुः॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । दू॒रात् । च॒ । आ॒सात् । च॒ । नि । मर्त्या॑त् । अ॒घ॒ऽयोः । पा॒हि । सद॑म् । इत् । वि॒श्वऽआ॑युः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। दूरात्। च। आसात्। च। नि। मर्त्यात्। अघऽयोः। पाहि। सदम्। इत्। विश्वऽआयुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
स विश्वायुरघायोः शत्रोर्मर्त्त्याद् दूरादासाच्च नोऽस्मानस्माकं सदं च निपाहि सततं रक्षति॥३॥
पदार्थः
(सः) जगदीश्वरो विद्वान् वा (नः) अस्मानस्माकं वा (दूरात्) विप्रकृष्टात् (च) समुच्चये (आसात्) समीपात् (च) पुनरर्थे (नि) नितराम् (मर्त्यात्) मनुष्यात् (अघायोः) आत्मनोऽघमिच्छतः शत्रोः (पाहि) रक्ष (सदम्) सीदन्ति सुखानि यस्मिंस्तं शिल्पव्यवहारं देहादिकं वा (इत्) एव (विश्वायुः) विश्वं सम्पूर्णमायुर्यस्मात् सः॥३॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरुपासित ईश्वरः संसेवितो विद्वान् वा युद्धे शत्रूणां सकाशाद् रक्षको रक्षाहेतुर्भूत्वा शरीरादिकं विमानादिकं च संरक्ष्यास्मभ्यं सर्वमायुः सम्पादयति॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(विश्वायुः) जिससे कि समस्त आयु सुख से प्राप्त होती है (सः) वह जगदीश्वर वा भौतिक अग्नि (अघायोः) जो पाप करना चाहते हैं, उन (मर्त्त्यात्) शत्रुजनों से (दूरात्) दूर वा (आसात्) समीप से (नः) हम लोगों की वा हम लोगों के (सदः) सब सुख रहनेवाले शिल्पव्यवहार वा देहादिकों की (नि) (पाहि) निरन्तर रक्षा करता है॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों से उपासना किया हुआ ईश्वर वा सम्यक् सेवित विद्वान् युद्ध में शत्रुओं से रक्षा करनेवाला वा रक्षा का हेतु होकर शरीर आदि वा विमानादि की रक्षा करके हम लोगों के लिये सब आयु देता है॥३॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
स विश्वायुः अघायोः शत्रोः मर्त्त्याद् दूरात् आ आसात् च नःअस्मान् अस्माकं सदम् च निपाहि सततं रक्षति॥३॥
पदार्थ
(सः) जगदीश्वरो विद्वान् वा=वह जगदीश्वर वा विद्वान्, (विश्वायुः) विश्वं सम्पूर्णमायुर्यस्मात् सः=जिससे कि समस्त आयु सुख से प्राप्त होती है, (अघायोः) आत्मनोऽघमिच्छतः शत्रोः= अपने पाप की इच्छा करनेवाले शत्रु, (मर्त्यात्) मनुष्यात्=मनुष्य से, (दूरात्) विप्रकृष्टात्= दूर वा (आ)=अच्छी तरह से, (आसात्) समीपात्=समीप से (च) पुनरर्थे=भी, (नः) अस्मानस्माकं वा=हमारे लिये, (सदम्) सीदन्ति सुखानि यस्मिंस्तं शिल्पव्यवहारं देहादिकं वा=जिसमें सब सुख रहते हैं, ऐसे शिल्पव्यवहार या देह आदि की, (नि) नितराम् =निरन्तर, (पाहि) रक्ष=रक्षा करता है ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों द्वारा उपासना किया हुआ ईश्वर या अच्छे प्रकार से सेवित विद्वान् युद्ध में शत्रुओं से समीप से रक्षा करनेवाला वा रक्षा का हेतु होकर शरीर आदि या विमान आदि की रक्षा करके हम लोगों के लिये सब आयु देता है॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(सः) वह जगदीश्वर या विद्वान्, (विश्वायुः) जिससे समस्त आयु सुख से प्राप्त होती है। (अघायोः) अपने पाप की इच्छा करनेवाले शत्रु, (मर्त्यात्) मनुष्य से (दूरात्) दूर और (आसात्) समीप से (आ) अच्छी तरह से (च) भी (नः) हमारे लिये, (सदम्) जिसमें सब सुख रहते हैं, ऐसे शिल्पव्यवहार या देह आदि की (नि) निरन्तर (पाहि) रक्षा करता है ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) जगदीश्वरो विद्वान् वा (नः) अस्मानस्माकं वा (दूरात्) विप्रकृष्टात् (च) समुच्चये (आसात्) समीपात् (च) पुनरर्थे (नि) नितराम् (मर्त्यात्) मनुष्यात् (अघायोः) आत्मनोऽघमिच्छतः शत्रोः (पाहि) रक्ष (सदम्) सीदन्ति सुखानि यस्मिंस्तं शिल्पव्यवहारं देहादिकं वा (इत्) एव (विश्वायुः) विश्वं सम्पूर्णमायुर्यस्मात् सः॥३॥
विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- स विश्वायुरघायोः शत्रोर्मर्त्त्याद् दूरादासाच्च नोऽस्मानस्माकं सदं च निपाहि सततं रक्षति॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरुपासित ईश्वरः संसेवितो विद्वान् वा युद्धे शत्रूणां सकाशाद् रक्षको रक्षाहेतुर्भूत्वा शरीरादिकं विमानादिकं च संरक्ष्यास्मभ्यं सर्वमायुः सम्पादयति॥३॥
विषय
रक्षक - प्रभु
पदार्थ
१. (सः) - वे गतमन्त्र में वर्णित 'सुशेव व मीढ्वान्' प्रभु (नः) - हमें (दूरात्) - दूर से भी (च) - और (आसात्) - समीप से भी (अघायोः मर्त्यात्) - अघ व पाप को चाहनेवाले मनुष्य से (निपाहि) - हमें निश्चित रूप से बचाएँ । हम किसी भी अघायु पुरुष के शिकार न बन जाएँ । ऐसा पुरुष हमपर प्रबल होकर हमें पाप की ओर ले जानेवाला न हो जाए ।
२. हे प्रभो! आपकी कृपा से (सदम् इत्) - सदा ही (विश्वायुः) - मैं पूर्ण जीवन - आयुवाला बनूं । शरीर , मन व मस्तिष्क की उन्नति करके मैं अपने जीवन की अपूर्णता को दूर करूं । शरीर से स्वस्थ बनूँ , मृत्यु से अमरता की ओर चल , नीरोग होऊँ । मन से निर्मल बनें , असत्य से सत्य की ओर चलूँ । सत्य से मेरा मन शुद्ध हो । मेरा मस्तिष्क तीव्र ज्ञानाग्निवाला हो , तमस् से मैं सदा ज्योति की ओर जानेवाला होऊँ , ज्ञान मेरे मस्तिष्क को पवित्र रक्खे । इस प्रकार मैं "विश्वायु व पूर्ण जीवनवाला" बनकर जीवन से यह प्रकट करूं कि प्रभु - कृपा से मैं अघायु पुरुषों का शिकार नहीं बना ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु क्या दूर क्या समीप , सर्वत्र अघायु पुरुषों से हमारी रक्षा करते हैं । इस रक्षा के परिणामस्वरूप ही हम पूर्ण जीवनवाले बन पाते हैं ।
विषय
परमेश्वर और विद्वान् ।
भावार्थ
( सः ) वह तू ( विश्वायुः ) समस्त विश्व में व्यापक परमेश्वर समस्त प्रजाओं का जीवनप्रद राजा या सभापति ( नः ) हमें ( अघायोः ) पापकर्म, हत्या आदि करना चाहने वाले दुष्ट (मर्त्यात्) पुरुष से (सदम् इत्) सदा ही (आरात् च) दूर से और (आसात् च) समीपसे भी (पाहि) रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी उपासना केलेला ईश्वर व सम्यक सेवित विद्वान युद्धात शत्रूंपासून रक्षण करून व रक्षणाचे कारण बनून शरीर इत्यादी व विमान इत्यादीचे रक्षण करून आम्हाला आयुष्य देतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May he, lord of light and knowledge, giver of all joys of life, protect our life, home and industry from far and near against any and every sinful person.
Subject of the mantra
Then, what kind of he is, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(saḥ)=That God or scholar, (viśvāyuḥ)=from whom the whole life is attained with happiness, (aghāyoḥ)= Who, desiring his sin, from his enemies, (martyāt)=by men, (dūrāt)=far, (āsāt)=from near, (ā)=properly,, (ca)=as well, (naḥ)=for us, (sadam= In which all happiness resides, such craft behavior or body etc. (ni)=continuously, (pāhi)=protects.
English Translation (K.K.V.)
That God or scholar, from whom the whole life is attained with happiness. The enemy desirous of his sin, whether near or far away from man, thoroughly also constantly protects such crafts or body et cetera for us, in which all pleasures are present.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand-There is paronomasia as a figurative in this mantra. A God worshiped by human beings or a well-served scholar, the one who protects us from enemies in battle, or by protecting the body etc. or aircraft etc., gives all life to us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he is taught further in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) From far away, and near do Thou the everlasting God from Whom all get happy life, protect our body and work of art and industry from a sinful person. (2) A learned person protects us from the activities of a sinful person when properly approached and honored.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अघायो:) आत्मनः अद्यम् इच्छतः शत्रोः । = From a sinful foe. ( सदम् ) सीदन्ति सुखानि यस्मिस्तम् शिल्पव्यवहारं देहादिकं वा । = That which causes happiness — Artistic activities or body.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Shleshalankara (Paronomasia) in this Mantra. (1) When God is worshipped, He protects us from our foes in battles and gives us long life. In the same way, a learned person when respectfully treated or worshipped, protects our aero planes etc. and tells us the means of attaining long life.
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