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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यम॑ग्ने पृ॒त्सु मर्त्य॒मवा॒ वाजे॑षु॒ यं जु॒नाः। स यन्ता॒ शश्व॑ती॒रिषः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒त्ऽसु । मर्त्य॑म् । अवाः॑ । वाजे॑षु । यम् । जु॒नाः । सः । यन्ता॑ । शश्व॑तीः । इषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। अग्ने। पृत्ऽसु। मर्त्यम्। अवाः। वाजेषु। यम्। जुनाः। सः। यन्ता। शश्वतीः। इषः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर ! त्वं यं मर्त्यं पृत्स्ववा रक्षेर्यं च वाजेषु जुनाः प्रेरयेर्य इमाः शश्वतीः प्रजाः सततमवरक्षेरस्मात् कारणात् स भवानस्माकं सदा यन्ता भवत्विति वयं प्रतिजानीमः॥७॥

    पदार्थः

    (यम्) धार्मिकं शूरवीरम् (अग्ने) स्वबलतेजसा प्रकाशमान (पृत्सु) पृतनासु। पदादिषु मांस्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०६.१.६३) इति वार्त्तिकेन पृतनाशब्दस्य पृदादेशः। (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अवाः) रक्षेः। अयं लेट्प्रयोगः। (वाजेषु) संग्रामेषु (यम्) योद्धारम् (जुनाः) प्रेरयेः। अयं ‘जुन गतौ’ इत्यस्य लेट्प्रयोगः। (सः) मनुष्यः (यन्ता) शत्रूणां निग्रहीता (शश्वतीः) अनादिस्वरूपाः (इषः) इष्यन्ते यास्ताः प्रजाः। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्॥७॥

    भावार्थः

    यथा यो जगदीश्वर एवानादिकालाद् वर्तमानायाः प्रजाया रक्षारचनाव्यवस्थाकारकोऽस्ति, तथा यो मनुष्य एतं सर्वव्यापिनं सर्वतोऽभिरक्षकं परमेश्वरमुपास्यैवं विदधाति तस्य नैव कदाचित्पीडापराजयौ भवत इति॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सेनाध्यक्ष ! आप (यम्) जिस युद्ध करनेवाले (मर्त्यम्) मनुष्य को (पृत्सु) सेनाओं के बीच (अवाः) रक्षा करें (यम्) जिस धार्मिक शूरवीर को (वाजेषु) संग्रामों में (जुनाः) प्रेरें जो इस (शश्वतीः) अनादि काल से वर्त्तमान (इषः) प्रजा की निरन्तर रक्षा करें, इस कारण से (सः) सो आप हमारा (यन्ता) नियमों में चलानेवाला नायक हूजिये, इस प्रकार हम प्रतिज्ञा करते हैं॥७॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर जो अनादि काल से वर्त्तमान प्रजा की रक्षा, रचना और व्यवस्था करनेवाला है, वैसे जो मनुष्य इस सर्वव्यापी सब प्रकार की रक्षा करनेवाले परमेश्वर की उपासना कर यथोक्त काम करता है, उसको न कभी पीड़ा वा पराजय होता है॥७॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे जगदीश्वर ! त्वं यं मर्त्यं पृत्सु अवा रक्षेः यं च वाजेषु जुनाः प्रेरयेः यः इमाः शश्वतीः प्रजाः सततम् अव रक्षेः अस्मात् कारणात् स भवान् अस्माकं सदा यन्ता भवन्तु इति वयं प्रतिजानीमः॥७॥

    पदार्थ

    हे (जगदीश्वर)=परमेश्वर! (त्वम्)=आप, (यम्) धार्मिकं शूरवीरम्= धार्मिक शूरवीर, (मर्त्यम्) मनुष्यम्=मनुष्य की , (पृत्सु) पृतनासु=सेनाओं के बीच, (अवा) रक्षेः=रक्षा करें, (यम्) योद्धारम्=जिस युद्ध करने वाले को, (च)=भी, (वाजेषु) संग्रामेषु=संग्रामों में,   (जुनाः) प्रेरयेः= प्रेरित करें, (यः)=जो, (इमाः)=इस,  (शश्वतीः) अनादिस्वरूपाः= अनादिस्वरूप  में वर्त्तमान,  (प्रजाः)=प्रजा की, (सततम्)=निरन्तर, (अवाः) रक्षेः=रक्षा करें। (अस्मात्)=इस, (कारणात्)=कारण से, (भवान्)=आप,  (सः) मनुष्यः=मनुष्य, (सदा)=सदा, (अस्माकम्)=हमारे, (यन्ता) शत्रूणां निग्रहीता=शत्रुओं को नियंत्रण में रखने वाले, (भवन्तु)=हूजिये, (इति)=इस प्रकार, (वयम्)=हम, (प्रतिजानीमः)=प्रत्यक्ष जानते हैं॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे जगदीश्वर ही जो अनादि काल से वर्त्तमान प्रजा की रक्षा, रचना और व्यवस्था करनेवाला है, वैसे जो मनुष्य इस सर्वव्यापी सब प्रकार की रक्षा करनेवाले परमेश्वर की उपासना को ही ही विशेष रूप से निर्धारित करता है, उसकी पीड़ा या पराजय कभी नहीं होती है॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (जगदीश्वर) परमेश्वर! (त्वम्) आप (यम्) धार्मिक शूरवीर (मर्त्यम्) मनुष्य की  (पृत्सु) सेनाओं के बीच (अवा) रक्षा करें (यम्) जिस युद्ध करने वाले को (च) भी (वाजेषु) संग्रामों में   (जुनाः) प्रेरित करें। (यः) जो (इमाः) इस  (शश्वतीः) अनादिस्वरूप  में वर्त्तमान  (प्रजाः) प्रजा की (सततम्) निरन्तर (अवाः) रक्षा करें। (अस्मात्) इस (कारणात्) कारण से (भवान्) आप (सः) मनुष्य (सदा) सदा (अस्माकम्) हमारे (यन्ता) शत्रुओं को नियंत्रण में रखने वाले (भवन्तु) हूजिये। (इत्ति) इस प्रकार (वयम्) हम (प्रतिजानीमः) प्रत्यक्ष जानते हैं॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यम्) धार्मिकं शूरवीरम् (अग्ने) स्वबलतेजसा प्रकाशमान (पृत्सु) पृतनासु। पदादिषु मांस्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०६.१.६३) इति वार्त्तिकेन पृतनाशब्दस्य पृदादेशः। (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अवाः) रक्षेः। अयं लेट्प्रयोगः। (वाजेषु) संग्रामेषु (यम्) योद्धारम् (जुनाः) प्रेरयेः। अयं 'जुन गतौ' इत्यस्य लेट्प्रयोगः। (सः) मनुष्यः (यन्ता) शत्रूणां निग्रहीता (शश्वतीः) अनादिस्वरूपाः (इषः) इष्यन्ते यास्ताः प्रजाः। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्॥७॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे जगदीश्वर ! त्वं यं मर्त्यं पृत्स्ववा रक्षेर्यं च वाजेषु जुनाः प्रेरयेर्य इमाः शश्वतीः प्रजाः सततमवरक्षेरस्मात् कारणात् स भवानस्माकं सदा यन्ता भवत्विति वयं प्रतिजानीमः॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा यो जगदीश्वर एवानादिकालाद् वर्तमानायाः प्रजाया रक्षारचनाव्यवस्थाकारकोऽस्ति, तथा यो मनुष्य एतं सर्वव्यापिनं सर्वतोऽभिरक्षकं परमेश्वरमुपास्यैवं विदधाति तस्य नैव कदाचित्पीडापराजयौ भवत इति॥७॥

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    विषय

    संग्राम - विजय

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (यं मर्त्यम्) - जिस भी मनुष्य को (पृत्सु) - संग्रामों में (अवा) - आप रक्षित करते हो अथवा (वाजेषु) - शक्तियों की प्राप्ति के निमित्त (यम्) - जिस भी व्यक्ति को (जुनाः) - आप प्रेरित करते हो (सः) - वह व्यक्ति (शश्वतीः) - प्लुत गतिवाली (इषः) - प्रेरणाओं को (यन्ता) - अपने जीवन में धारण करता है [यम् to substain] अथवा [यम् to exhibit , to show] अपने जीवन में घटाकर दिखाता है । 

    २. प्रभु की प्रत्येक प्रेरणा अन्ततः मनुष्य को आलस्यशून्य क्रिया के लिए प्रेरित करती है , शश्वती है । इन प्रेरणाओं को अपने जीवन में वही ला पाता है जो वासनाओं के साथ संग्राम में विजय प्राप्त करता है और शक्ति का सञ्चय करता है । यह विजय और शक्तिसञ्चय प्रभु - कृपा से ही होती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु - कृपा से वासना - संग्राम में विजयी बनें , शक्ति का सञ्चय करें और प्रभु की प्रेरणाओं को जीवन में अनूदित करें । 

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    विषय

    परमेश्वर और विद्वान् ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! विद्वन् ! प्रतापी राजन् ! ( यम् मर्त्यम् ) जिस मनुष्य को तू (पृत्सु) सेनाओं के बीच में से ( अव ) बचाता या अधिक तेजस्वी बनाता है और ( वाजेषु ) संग्रामों के बीच में ( यम् ) जिसको ( जुनाः ) प्रेरित करता है, आगे बढ़ाता है (सः) वह ही ( शश्वतीः ) निरन्तर स्थिर रहनेवाली ( इधः ) कामना योग्य प्रजाओं और आज्ञा पर चलने वाली सेनाओं का ( यन्ता ) नियन्ता, व्यवस्थापक राजा और सेनापति होने योग्य है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर अनादीकाळापासून असलेल्या प्रजेचे रक्षण, रचना व व्यवस्था करणारा आहे, तसे जो माणूस या सर्वव्यापी सर्व प्रकारे रक्षण करणाऱ्या परमेश्वराची उपासना करून यथोक्त काम करतो, त्याला कधी त्रास होत नाही व त्याचा पराभव होत नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of light and power, let the man you protect in fighting armies, whom you inspire to join battles for knowledge and development, who protects these people who have lived free since time immemorial, let him be the leader, ruler and protector of the people and their wealth and power.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of He (God) is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (jagadīśvara)=God, (tvam)=you, (yam)=righteous and brave, (martyam)=of men, (pṛtsu) =amidst forces, (avā)=protect, (yam)=that one who fights, (ca)=as well, (vājeṣu)=in battles, (junāḥ)=inspire, (yaḥ)=that, (imāḥ)=this, (śaśvatīḥ)= present in primordial form, (prajāḥ)=of descendants, (satatam)=continual, (avāḥ)=protect, (asmāt)=due to, (kāraṇāt)=the reasons, (bhavān)=you, (saḥ)=man, (sadā)=always, (asmākam)=our, (yantā)= who keep enemies under control, (bhavantu)=be, (itti)=thus, (vayam)=we, (pratijānīmaḥ)=evidently know.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! you protect amidst forces of men righteous and brave; and inspire that one who fights in the battles as well. Protect that of descendants present in the primordial form. Due to the reasons, you men always be the one who keep enemies under control. Thus, we evidently know.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni ) is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! The man whom Thou protectest in battles (internal as well as external) and urgest to acquire knowledge and strength becomes the restrainer of his foes and the lord of eternal food (of wisdom). Thou be for ever our Controller or Director is what we pray for.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) स्वबलतेजसा प्रकाशमान | = Shining on account of His own power and splendour. ( पृत्सु ) पृतनासु । यदादिषु मा स्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम् अष्टा० ६.१.६३ इति वार्तिकेन पृतना शब्दस्य पृदादेशः || = In battles. (वाजेषु) संग्रामेषु = In battles. (इषः) इष्यन्ते याः ताः प्रजा:= Desirable subjects. (यन्ता ) शत्रूणां निग्रहीता = Restrainer of enemies.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God is the Protector, Creator and Supreme Director of His subjects from times immemorial, in the same manner, the man who worships Him-the Lord who is Omnipresent Protector from all sides and protects people, can never suffer and be defeated.

    Translator's Notes

    वाजेषु has been interpreted by Rishi Dayananda here as संग्रामेषु In Nighantu 2.9 it is stated वाज इति बलनाम (निघ० २.१ ) It is with strength that a battle is waged.

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