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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 11
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स नो॑ म॒हाँ अ॑निमा॒नो धू॒मके॑तुः पुरुश्च॒न्द्रः। धि॒ये वाजा॑य हिन्वतु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॑ । म॒हान् । अ॒नि॒ऽमा॒नः । धू॒मऽके॑तुः । पु॒रु॒ऽच॒न्द्रः । धि॒ये । वाजा॑य । हि॒न्व॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। महान्। अनिऽमानः। धूमऽकेतुः। पुरुऽचन्द्रः। धिये। वाजाय। हिन्वतु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्भौतिकगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    मनुष्यैर्यतोऽयं धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रोऽनिमानो महानग्निरस्ति, स धिये वाजाय नोऽस्मान् हिन्वतु प्रीणयेत्, तस्मादेतस्य साधनं कार्यम्॥११॥

    पदार्थः

    (सः) भौतिकोऽग्निः (नः) अस्मान् (महान्) महागुणविशिष्टः (अनिमानः) अविद्यमानं निमानं परिमाणं यस्य सः (धूमकेतुः) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्य सः (पुरुश्चन्द्रः) पुरूणां बहूनां चन्द्र आह्लादकः। अत्र ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे० (अष्टा०६.१.१५१) अनेन सुडागमः। (धिये) कर्मणे (वाजाय) वेगाय (हिन्वतु) प्रीणयतु। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थः॥११॥

    भावार्थः

    यः सर्वथोत्कृष्टः केनापि परिच्छेत्तुमनर्हः सर्वाधारः सर्वानन्दप्रदः विज्ञानधनो जगदीश्वरोऽस्ति, येन महागुणयुक्तोऽयमग्निर्निर्मितः स एव शुभे कर्मणि शुद्धे विज्ञाने अस्मान् प्रेरयत्विति॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं॥

    पदार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो (धूमकेतुः) जिसका धूम ध्वजा के समान (पुरुश्चन्द्रः) बहुतों को आनन्द देने (अनिमानः) जिसका निमान अर्थात् परिमाण नहीं है (महान्) अत्यन्त गुणयुक्त भौतिक अग्नि है (सः) वह (धिये) उत्तम कर्म वा (वाजाय) विज्ञानरूप वेग के लिये (नः) हम लोगों को (हिन्वतु) तृप्त करता है॥११॥

    भावार्थ

    जो सब प्रकार श्रेष्ठ किसी के छिन्न-भिन्न करने में नहीं आता, सब का आधार, सब आनन्द का देने वा विज्ञानसमूह परमेश्वर है और जिसने महागुणयुक्त भौतिक अग्नि रची है, वही उत्तम कर्म वा शुद्ध विज्ञान में हम लोगों को सदा प्रेरणा करे॥११॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्यैः यतः अयं  धूमकेतुः पुरुश्न्द्रः अनिमानः महान् अग्निः अस्ति स धिये वाजाय नःअस्मान् हिन्वतु प्रीणयेत्, तस्मात् एतस्य साधनं कार्यम्॥११॥

    पदार्थ

    (मनुष्यैः)=मनुष्यों के द्वारा, (यतः)=जिससे, (अयम्)=यह, (धूमकेतुः) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्य सः=जिसका धूम ध्वजा के समान है, (पुरुश्चन्द्रः) पुरूणां बहूनां चन्द्र आह्लादकः=बहुतों को आनन्द देने वाला है, (अनिमानः) अविद्यमानं निमानं परिमाणं यस्य सः=जिसका परिमाण नहीं है, (महान्)=अत्यन्त गुणयुक्त, (अग्निः)=भौतिक अग्नि, (अस्ति)=है, (सः) भौतिकोऽग्निः=भौतिक अग्नि, (धिये) कर्मणे=कर्म और, (वाजाय) वेगाय=वेग के लिये, (नः) अस्मान्=हमें, (हिन्वतु) प्रीणयतु=तृप्त करे, (तस्मात्)=इसलिये, (एतस्य)=इसके, (साधनम्)=साधन को, (कार्यम्)=करना चाहिए॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो सब प्रकार से उत्कृष्ट है, किसी के द्वारा भी छिन्न-भिन्न किये जाने योग्य नहीं है, सब का आधार, सबको आनन्द देनेवाला विशेज्ञान का भण्डार परमेश्वर है। जिस महागुणयुक्त  से यह भौतिक अग्नि निर्मित हुई है, वही शुभ कर्म में और शुद्ध विज्ञान में हम लोगों को प्रेरित करे॥११॥  

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा, (यतः) जिससे (अयम्) यह अग्नि (धूमकेतुः)  जिसका धूम ध्वजा के समान है (पुरुश्चन्द्रः)  बहुतों को आनन्द देने वाला है और (अनिमानः) जिसका परिमाण नहीं है। [यह] (महान्) अत्यन्त गुणयुक्त (अग्निः) भौतिक अग्नि (अस्ति) है। (सः) वह भौतिक अग्नि (धिये)  कर्म और (वाजाय) वेग के लिये, (नः) हमें (हिन्वतु)  तृप्त करे। (तस्मात्) इसलिये (एतस्य) इसके (साधनम्)  साधन को (कार्यम्) करना चाहिए॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) भौतिकोऽग्निः (नः) अस्मान् (महान्) महागुणविशिष्टः (अनिमानः) अविद्यमानं निमानं परिमाणं यस्य सः (धूमकेतुः) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्य सः (पुरुश्चन्द्रः) पुरूणां बहूनां चन्द्र आह्लादकः। अत्र ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे० (अष्टा०६.१.१५१) अनेन सुडागमः। (धिये) कर्मणे (वाजाय) वेगाय (हिन्वतु) प्रीणयतु। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थः॥११॥
    विषयः- पुनर्भौतिकगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः- मनुष्यैःर्यतोऽयं धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रोऽनिमानो महानग्निरस्ति, स धिये वाजाय नोऽस्मान् हिन्वतु प्रीणयेत्, तस्मादेतस्य साधनं कार्यम्॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यः सर्वथोत्कृष्टः केनापि परिच्छेत्तुमनर्हः सर्वाधारः सर्वानन्दप्रदः विज्ञानधनो जगदीश्वरोऽस्ति, येन महागुणयुक्तोऽयमग्निर्निर्मितः स एव शुभे कर्मणि शुद्धे विज्ञाने अस्मान् प्रेरयत्विति॥११॥

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    विषय

    धी+वाज

    पदार्थ

    १. (सः) - वे प्रभु (नः) - हमारे लिए (महान्) - [मह पूजायाम्] पूजा के योग्य हैं , (अनिमानः) - वे स्थान , समय व किसी भी अन्य दृष्टिकोण से सीमित नहीं हैं । 'दिक् कालाधनवच्छिन्न' वे प्रभु हैं । असीम होने के कारण ही वे हमारे ज्ञान व विषय नहीं बनते । प्रभु को हम पूरा - पूरा माप नहीं सकते । 

    २. (धूमकेतुः) - [धूमः केतुः यस्य] उस प्रभु का दिया हुआ ज्ञान वासनाओं को कम्पित करके दूर - दूर भगानेवाला है [धू कम्पने] , ज्ञान में वासनाओं का विध्वंस हो जाता है । इस वासना - विध्वंस के द्वारा ही (पुरुश्चन्द्रः) - वे प्रभु पुरु - चन्द्र पालन व पूरण करनेवाले तथा आह्लादित करनेवाले हैं । वासनाओं की उपस्थिति में पूर्णता का होना असम्भव है; और अपूर्णता में आनन्द सम्भव नहीं । ये प्रभु हमें (धिये) - बुद्धि के लिए तथा (वाजाय) - शक्ति के लिए (हिन्वन्तु) - प्रेरित करें । प्रभु - कृपा से हमारा ज्ञान व हमारी शक्ति बढ़े । मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो तो शरीर शक्ति से भरा हो । शरीर से हम मल्ल हों तो मस्तिष्क से ऋषि [Body of an athlete and the soul of a sage] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें बुद्धि व शक्ति दें ताकि हम जीवन को पूर्णता की ओर ले - चलें । 

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    विषय

    पराक्रमी सेनापति, विद्वान् नायक

    भावार्थ

    (सः) वह (नः) हमारे लिये ( महान् ) बड़ा ( अनिमानः ) विना परिमाण वाला, अपरिमित बलशाली, (धूमकेतुः) धूम की शिखावाले अग्नि के समान शत्रुओं को सिर से पांव तक कम्पा देने वाले बल और प्रज्ञा वाला, अथवा शत्रुओं को भयभीत करने वाली ध्वजा वाला ( पुरुश्चन्द्रः ) बहुतों को आह्लाद या सुख, शान्ति देने और हृदय में उत्साह देने में समर्थ, या सबको पालने में समर्थ, सुवर्णादि ऐश्वर्यवान्, बहुत कोशवान् है । वह ( धिये ) कर्म और ज्ञान को प्राप्त करने और ( वाजाय ) संग्राम ऐश्वर्य और ज्ञान के प्राप्त करने और विजय के प्राप्त कर लेने के लिए ( हिन्वतु ) प्रेरित करे, उत्साहित करे । उत्साह देनेवाले नायक का यही लक्षण है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्व प्रकारे श्रेष्ठ, ज्याला कुणीही नष्ट करू शकत नाही; सर्वांचा आधार, सर्वांना आनंद देणारा, विज्ञान समूह परमेश्वर आहे, ज्याने महान गुणांनी युक्त भौतिक अग्नी निर्माण केलेला आहे, त्याने उत्तम कर्म व शुद्ध विज्ञानासाठी आम्हाला सदैव प्रेरणा द्यावी. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the yajnic science of fire, great, immeasura ble, universal delight with banners of smoke and flame, call up and inspire us for the achievement of intellige- ntial technology and creative power and progress.

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    Subject of the mantra

    Then, in this mantra qualities of Agni (physical fire) have been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyaiḥ)=It is befitting for humans that, (yataḥ)=by which, (ayam)=this fire, (dhūmaketuḥ)=whose smoke is like a flag, (puruścandraḥ)=is joyful to many, [aura]=and, (animānaḥ)=which has no magnitude, [yaha]=this, (mahān)=highly virtuous, (agniḥ)=physical fire, (asti)=is, (saḥ)=that physical fire, (dhiye)=deeds and, (vājāya)=for velocity, (naḥ)=to us, (hinvatu)=must satisfy, (tasmāt)= That's why, (etasya)=its, (sādhanam)= recourse, (kāryam)= should be done.

    English Translation (K.K.V.)

    It is befitting for humans that by which fire, whose smoke is like a flag is joyful to many and which has no magnitude, is a highly virtuous physical fire. That physical fire must satisfy us for deeds and velocity. That's why its recourse is must.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The one who is excellent in all respects, cannot be broken by anyone, the basis of all, the storehouse of wisdom that gives pleasure to all, is God. May the great quality with which this material fire has been created inspire us in good deeds and in pure specific knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the Agni are taught in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This vast, illimitable, smoke-bannered Agni (fire) which gives delight to many, leads us to great works and speed. Therefore it should be properly utilized.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अनिमानः ) अविद्यमानं निमानं परिमाणं यस्य । = Illimitable or Immeasurable. ( पुरुश्चन्द्रः ) पुरूणां बहूनां चन्द्रः आह्लादक: अत्र हूस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे' मन्त्रे ( अष्टा० ६.१.१५१ ) अनेन सुडागमः ॥ = Giver of delight to many. (घिये) कर्मणे = for action. ( वाजाय) वेगाय विज्ञानाय वा । = For speed (in case of fire), for wisdom in case of God.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God who is the Best, Infinite Support of all, Bestower of Bliss to His devotees, Lord of the wealth of wisdom is the Creator of the useful fire possessing many properties. May He prompt us to acquire pure wisdom and perform noble deeds.

    Translator's Notes

    पुरु इति बहुनाम ( निघ० ३.१ ) चदि-आहा्लदे (भ्वा.) Hence Rishi Dayananda's interpretation as पुरूणां बहूनां चन्द्रःआह्लादकः। Sayanacharya has translated पुरुश्चन्द्र : as बहुदीप्ति: which is not faithful, as it is not borne out by the root meaning of चदि Wilson has simply followed Sayana translating the word as Resplendent and Griffith has rendered it in English as "Excellently bright."

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