ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 19
या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒ विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फान॑: प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्र च॑रा सोम॒ दुर्या॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । धामा॑नि । ह॒विषा॑ । यज॑न्ति । ता । ते॒ । विश्वा॑ । प॒रि॒ऽभूः । अ॒स्तु॒ । य॒ज्ञम् । ग॒य॒ऽस्फानः॑ । प्र॒ऽतर॑णः । सु॒ऽवीरः॑ । अवी॑रऽहा । प्र । च॒र॒ । सो॒म॒ । दुर्या॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते धामानि हविषा यजन्ति ता ते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम्। गयस्फान: प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान् ॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। धामानि। हविषा। यजन्ति। ता। ते। विश्वा। परिऽभूः। अस्तु। यज्ञम्। गयऽस्फानः। प्रऽतरणः। सुऽवीरः। अवीरऽहा। प्र। चर। सोम। दुर्यान् ॥ १.९१.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सोम ते तव या यानि विश्वा धामानि हविषा यज्ञं यजन्ति ता तानि सर्वाणि ते तवाऽस्मान् प्राप्नुवन्तु। यतस्त्वं परिभूर्गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहाऽस्तु तस्मादस्माकं दुर्यान् प्रचर प्राप्नुहि ॥ १९ ॥
पदार्थः
(या) यानि (ते) तव (धामानि) स्थानानि वस्तूनि (हविषा) विद्यादानाऽऽदानाभ्याम् (यजन्ति) सङ्गच्छन्ते (ता) तानि (ते) तव (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (परिभूः) सर्वतो भवन्तीति (अस्तु) भवतु (यज्ञम्) क्रियामयम् (गयस्फानः) धनवर्धकः (प्रतरणः) दुःखात्प्रकृष्टतया तारकः (सुवीरः) शोभनैर्वीरैर्युक्तः (अवीरहा) विद्यासुशिक्षाभ्यां रहितान् प्राप्नोति सः (प्र) (चर) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोम) सोमस्य वा (दुर्यान्) प्रासादान् ॥ १९ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कश्चिदपि सृष्टिपदार्थानां गुणविज्ञानेन विनोपकारान् ग्रहीतुं शक्नोति तस्माद्विदुषां सङ्गेन पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्य्यन्तान् पदार्थान् ज्ञात्वा मनुष्यैः क्रियासिद्धिः सदैव कार्या ॥ १९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (सोम) परमेश्वर वा विद्वन् ! (ते) आपके वा इस ओषधिसमूह के (या) जो (विश्व) समस्त (धामानि) स्थान वा पदार्थ (हविषा) विद्यादान वा ग्रहण करने की क्रियाओं से (यज्ञम्) क्रियामय यज्ञ को (यजन्ति) सङ्गत करते हैं (ता) वे सब (ते) आपके वा इस ओषधिसमूह के हम लोगों को प्राप्त हों, जिससे आप (परिभूः) सबके ऊपर विराजमान होने (गयस्फानः) धन बढ़ाने और (प्रतरणः) दुःख से प्रत्यक्ष तारनेवाले (सुवीरः) उत्तम-उत्तम वीरों से युक्त (अवीरहा) अच्छी शिक्षा और विद्या से कातरों को भी सुख देनेवाले (अस्तु) हों, इससे हम लोगों के (दुर्य्यान्) उत्तम स्थानों को (चर) प्राप्त हूजिये ॥ १९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई भी सृष्टि के पदार्थों के गुणों को विना जाने उनसे उपकार नहीं ले सकता है, इससे विद्वानों के सङ्ग से पृथ्वी से लेकर ईश्वरपर्यन्त यथायोग्य सब पदार्थों को जानकर मनुष्यों को चाहिये कि क्रियासिद्धि सदैव करें ॥ १९ ॥
विषय
गयस्फानः प्रतरणः
पदार्थ
१. हे (सोम) = शान्त प्रभो ! (या ते धामानि) = जो आपके तेज हैं, उन्हें उपासक लोग (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन के द्वारा (यजन्ति) = अपने साथ संगत करते हैं (ता ते विश्वा) = आपके वे सब तेज (यज्ञम्) = हमारे जीवन - यज्ञ को (परिभूः अस्तु) = [परितो भावयितॄणि = प्राप्तानि] चारों ओर से प्राप्त होनेवाले हों । हम उन तेजों को यज्ञ के द्वारा अपने साथ संगत करनेवाले हों । हे (सोम) = प्रभो ! आप (दुर्यान्) = हमारे शरीररूप गृहों में (प्रचर) = विचरणवाले हों । हमारी हृदयरूप गुहा आपके विचरण की जगह हो । आप 'गुहा चरन्' तो हैं ही । आप हमारे इन शरीरों में विचरण करते हुए (गयस्फानः) = प्राणों के वर्धन करनेवाले हो (प्रतरणः) = दुरितों से तारनेवाले हो, (सुवीरः) = उत्तमता से शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगानेवाले हो [वि ईर], (अवीरहा) = अवीरता को नष्ट करनेवाले हो । आपको प्राप्त करके मैं प्रवृद्ध प्राणशक्तिवाला - दुरित से दूर - कामादि को कम्पित करनेवाला, अवीरता से ऊपर उठा हुआ होता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु के तेज यज्ञमय जीवनवाले को प्राप्त होते हैं । प्रभु की प्राप्ति से हम "गयस्फान, प्रतरण, सुवीर, अवीरहा" बनते हैं ।
विषय
पक्षान्तर में उत्पादक परमेश्वर और विद्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( सोम ) सूर्य के समान ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( ते ) तेरे ( या ) जिन ( धामानि ) तेजों, लोकों, स्थानों और पदाधिकारों को (हविषा) देने योग्य कर या आदर से प्रदान या स्वीकार कर के ( यज्ञम् ) सब के पूजनीय, प्रजापालक ( यजन्ति ) तेरा मान आदर करते हैं ( ता ) वे ( विश्वा ) समस्त तेज और पदाधिकार या बल ( ते ) तुझे तुझे ही प्राप्त हैं । ( गयस्फानः ) धन तथा गौ आदि पशुओं का बढ़ाने वाला, ( प्रतरणः ) दुःखों से प्रजा को पार उतारने वाला, ( सुवीरः ) उत्तम वीरों से युक्त, सेनापति, ( परिभूः ) सब प्रकार से शक्ति और प्रजा का रक्षक हो । वह (अवीरहा) वीर पुरुषों का व्यर्थ नाश करने वाला न हो । हे राजन् ! तू ( नः ) हमारे ( दुर्यान् ) घरों को या द्वारों वाले नगरो में भी ( प्र चर ) अच्छी प्रकार आ, जा, उसी प्रकार विद्वान पुरुष हमारे घरों पर जावे आवे । (२) छात्रपक्ष में—हे छात्र ! जिन बलों और तेजों को विद्वान् जन अन्न और ज्ञान द्वारा तुझे प्रदान करते हैं वे तेरे ( यज्ञं ) अध्ययन आदि कार्य को सम्मान करते हैं । तू ज्ञान, प्राण और वेदवाणियों का वर्धक, उत्तम गुरु से विद्या प्राप्त कर पार पहुंचने वाला, उत्तम वीर्यवान्, अपने वीर्य और प्राण गण का नाश न करने हारा होकर हमारे ग्रहों को भिक्षार्थ और उपदेशार्थ प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. कोणीही सृष्टीच्या पदार्थांचे गुण जाणल्याखेरीज त्यांचा उपयोग करून घेऊ शकत नाही. त्यासाठी विद्वानांच्या संगतीने पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांना यथायोग्य जाणून माणसांनी सदैव क्रिया सिद्ध करावी. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soma, lord of life, energy and vitality, all those places and nature’s activities which feed and promote your yajna of evolution may, we pray, bless and benefit us. Lord supreme over all, generous giver of promotion and progress, saviour across the seas of life, commander of the brave and support of the meek, be close to us, our families and our homes.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Soma is taught further in the 19th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man of peaceful disposition ! in whatever places you perform Yajna in the form of noble acts by the study and teaching of the Vedas etc. may we approach them. As you are augmenter of wealth, transporter over miseries, attended by valiant heroes, approaching men devoid of knowledge and good education to give them instruction, come to our homes and oblige.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गयस्फान:) धनवर्धक: = Augmenter of wealth. (हविषा) विद्यादानादानाभ्याम् = By giving and receiving knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can benefit from the world without the knowledge of their properties. Therefore men should accomplish all works by acquiring knowledge of all objects from earth to God by the Association of learned persons.
Translator's Notes
गय इति धननाम (निघ० २.१० ) स्फायी वृद्धौ हु-दानादनयोः आदाने च
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