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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं सो॑म॒ क्रतु॑भिः सु॒क्रतु॑र्भू॒स्त्वं दक्षै॑: सु॒दक्षो॑ वि॒श्ववे॑दाः। त्वं वृषा॑ वृष॒त्वेभि॑र्महि॒त्वा द्यु॒म्नेभि॑र्द्यु॒म्न्य॑भवो नृ॒चक्षा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । सो॒म॒ । क्रतु॑ऽभिः । सु॒ऽक्रतुः॑ । भूः॒ । त्वम् । दक्षैः॑ । सु॒ऽदक्षः॑ । वि॒श्वऽवे॑दाः । त्वम् । वृषा॑ । वृ॒ष॒ऽत्वेभिः॑ । म॒हि॒ऽत्वा । द्यु॒म्नेभिः॑ । द्यु॒म्नी । अ॒भ॒वः॒ । नृ॒ऽचक्षाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूस्त्वं दक्षै: सुदक्षो विश्ववेदाः। त्वं वृषा वृषत्वेभिर्महित्वा द्युम्नेभिर्द्युम्न्यभवो नृचक्षा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सोम। क्रतुऽभिः। सुऽक्रतुः। भूः। त्वम्। दक्षैः। सुऽदक्षः। विश्वऽवेदाः। त्वम्। वृषा। वृषऽत्वेभिः। महिऽत्वा। द्युम्नेभिः। द्युम्नी। अभवः। नृऽचक्षाः ॥ १.९१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सोम यतस्त्वं क्रतुभिः सुक्रतुर्दक्षैः सुदक्षो विश्ववेदा भूः। यतस्त्वं महित्वा वृषत्वेभिर्वृषा द्युम्नेभिर्द्युम्नी नृचक्षा अभवस्तस्मान् त्वं सर्वोत्कृष्टोऽसि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (सोम) (क्रतुभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (सुक्रतुः) शोभनप्रज्ञः सुकर्म वा (भूः) भवसि। अत्राडभावो लडर्थे लुङ् च। (त्वम्) (दक्षैः) विज्ञानादिगुणैः (सुदक्षः) सुष्ठुविज्ञानः (विश्ववेदाः) प्राप्तसर्वविद्यः (त्वम्) (वृषा) विद्यासुखवर्षकः (वृषत्वेभिः) विद्यासुखवर्षणैः (महित्वा) महागुणवत्त्वेन। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (द्युम्नेभिः) चक्रवर्त्यादिराजधनैः सह (द्युम्नी) प्रशस्तधनी यशस्वी वा (अभवः) भवसि (नृचक्षाः) नृषु चक्षो दर्शनं यस्य सः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा सुरीत्या सेवितः सोमाद्योषधिगणः प्रज्ञाचातुर्यवीर्यधनानि जनयति तथैव सूपासित ईश्वरः सुसेवितो विद्वांश्चैवं तानि प्रज्ञादीनि जनयतीति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सोम) शान्ति गुणयुक्त परमेश्वर वा उत्तम विद्वान् ! जिस कारण (त्वम्) आप (क्रतुभिः) उत्तम बुद्धि कर्मों से (सुक्रतुः) श्रेष्ठ बुद्धिशाली वा श्रेष्ठ काम करनेवाले तथा (दक्षैः) विज्ञान आदि गुणों से (सुदक्षः) अति श्रेष्ठ ज्ञानी (विश्ववेदाः) और सब विद्या पाये हुए (भूः) होते हैं वा जिस कारण (त्वम्) आप (महित्वा) बड़े-बड़े गुणोंवाले होने से (वृषत्वेभिः) विद्यारूपी सुखों की (वृषा) वर्षा और (द्युम्नेभिः) कीर्त्ति और चक्रवर्त्ति आदि राज्य धर्मों से (द्युम्नी) प्रशंसित धनी (नृचक्षाः) मनुष्यों में दर्शनीय (अभवः) होते हो, इससे (त्वम्) आप सबमें उत्तम उत्कर्षयुक्त हूजिये ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे अच्छी रीति से सेवा किया हुआ सोम आदि ओषधियों का समूह बुद्धि, चतुराई, वीर्य और धनों को उत्पन्न कराता है, वैसे ही अच्छी उपासना को प्राप्त हुआ ईश्वर वा अच्छी सेवा को प्राप्त हुआ विद्वान् उक्त कामों को उत्पन्न कराता है ॥ २ ॥

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    विषय

    सुक्रतु + सुदक्ष

    पदार्थ

    १. हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (क्रतुभिः) = अपने कर्मों व प्रज्ञानों से (सुक्रतुः) = उत्तम कर्म व प्रज्ञावाले (भूः) = हैं । (त्वम्) = आप (दक्षैः) = शक्तियों से (सुदक्षः) = उत्तम शक्तियोंवाले हैं । (विश्ववेदाः) आप सम्पूर्ण धनों के स्वामी हैं । २. (त्वम्) = आप (वृषत्वेभिः) = सुखों के वर्षणों के द्वारा (वृषा) = सुखों के वर्षक हैं - इस प्रकार (महित्वा) = आप अपनी महिमा से महान् हैं । (द्युम्नेभिः) = ज्ञान की ज्योतियों से (द्युम्नी) = उत्तम ज्ञानज्योतिवाले (अभवः) = हैं और अन्त में (नृचक्षाः) = मनुष्यों को ज्ञान का प्रकाश देनेवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु का सच्चा स्तवन यही है कि हम भी प्रभु की भाँति 'सुक्रतु = सुदक्ष, वृषा, द्युम्नी व नृचक्षा' बनने के लिए यत्नशील हों । हमारा शरीर उत्तम कर्मों में लगा हो, प्राणमयकोश बलवाला हो, मन में सबपर सुखवर्षण की भावना हो, मस्तिष्क ज्योतिर्मय हो और आनन्दमयकोश में सर्वहित की भावना हो ।

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा वरुण का वर्णन, उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (सोम) अभिषेक योग्य, ऐश्वर्यवन्, ज्ञानवन्, सर्वाज्ञापक, प्रेरक राजन् ! परमेश्वर ! विद्वन् ! ( त्वं ) तू ( क्रतुभिः ) उत्तम कर्मों और उत्तम २ ज्ञानों से ( सुक्रतुः ) उत्तम कर्म करने हारा और उत्तम ज्ञानवान् ( भूः ) है । ( त्वं ) तू ( दक्षैः ) नाना बलों से ( सुदक्षः ) उत्तम बलशाली और ( विश्ववेदाः ) समस्त संसार को जानने हारा, समस्त धनों का स्वामी ( भूः ) है । ( त्वं ) तू ( वृषत्वेभिः ) समस्त काम्य पदार्थों, सुख, विद्या, धन आदि के वर्षण करने के सामर्थ्यो से और ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( वृषा) मेघ के समान वर्षणकारी, ‘वृषा’ ( अभवः ) हो । और तू ( नृचक्षाः ) समस्त मनुष्यों को देखने हारा, सब पर साक्षी अधिष्ठाता होकर ( द्युम्नैभिः) ऐश्वर्यों से ( द्युम्नी ) ऐश्वर्यवान् ( अभवः ) होता है। शुक्र शरीर में क्रिया सामर्थ्यों का उत्पादक होने से ‘सुक्रतु’ और ज्ञान या मनन शक्तियों और बलों का वर्धक होने से ‘सुदंस’ है । पुरुषत्व आदि गुणों का उत्पादक होने से ‘वृषा’ है । कान्तियों और तेज, ओज आदि का जनक होने से ‘द्युम्नी’, प्राणों, इन्द्रियों और ‘नृ’ अर्थात् नरों में दीखने से ‘नृचक्षा’ है । सब कास्य सुखों को देने से ‘विश्ववेदा’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा चांगल्या तऱ्हेने प्राप्त केलेला सोम इत्यादी औषधांचा समूह बुद्धी, चतुराई, वीर्य व धन इत्यादी उत्पन्न करवितो तसेच चांगली उपासना करून प्राप्त झालेला ईश्वर व चांगली सेवा प्राप्त केलेला विद्वान वरील गोष्टींना उत्पन्न करवितो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soma, lord of peace and joy, with acts of knowledge, vision and wisdom, you are a hero of noble action. With science and expertise, you are the specialist, possessed of universal knowledge. With showers of generosity and noble qualities, you are generous as the cloud. Lord of knowledge and vision of humanity, with your wealth and charities, you are the ideal honoured philanthropist.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O God ! as Thou art the Wisest and Doer of noble deeds by Thy wisdom, and Thou art Powerful by Thy energies and Knowest all things. Thou art the showerer of knowledge and happiness by Thy peace raining powers and bounties; Thou art Great by Thy Greatness; Thou art the Guide of men art Glorious by Thy wealth of all kinds. Therefore Thou art to be adored by us. (2) The Mantra is also equally applicable to a highly educated wiseman, who knows all sciences, is mighty and great and is showerer of knowledge and happiness. Therefore he should be honoured.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋतुभिः) प्रज्ञाभिः, कर्मभिः = By wisdom and noble deeds. (वृषा) विद्यासुखदर्षक: = Showerer of knowledge and happiness. (घुम्नी) प्रशस्तधनी यशस्वी वा = Endowed with good wealth and gloriaus. (दक्षै:) विज्ञानादिगुरणैः = With knowledge and other virtues. दक्ष-गति हिंसनयो: गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणम् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As Soma and other herbs taken properly in the prescribed manner increase intelligence, skill and strength leading to the acquisition of wealth, in the same manner, God when meditated upon and a scholar when served well lead to the development of intellect, knowledge and other great virtues.

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