ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
राज्ञो॒ नु ते॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ बृ॒हद्ग॑भी॒रं तव॑ सोम॒ धाम॑। शुचि॒ष्ट्वम॑सि प्रि॒यो न मि॒त्रो द॒क्षाय्यो॑ अर्य॒मेवा॑सि सोम ॥
स्वर सहित पद पाठराज्ञः॑ । नु । ते॒ । वरु॑णस्य । व्र॒तानि॑ । बृ॒हत् । ग॒भी॒रम् । तव॑ । सो॒म॒ । धाम॑ । शुचिः॑ । त्वम् । अ॒सि॒ । प्रि॒यः । न । मि॒त्रः । द॒क्षाय्यः॑ । अ॒र्य॒माऽइ॑व । अ॒सि॒ । सो॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
राज्ञो नु ते वरुणस्य व्रतानि बृहद्गभीरं तव सोम धाम। शुचिष्ट्वमसि प्रियो न मित्रो दक्षाय्यो अर्यमेवासि सोम ॥
स्वर रहित पद पाठराज्ञः। नु। ते। वरुणस्य। व्रतानि। बृहत्। गभीरम्। तव। सोम। धाम। शुचिः। त्वम्। असि। प्रियः। न। मित्रः। दक्षाय्यः। अर्यमाऽइव। असि। सोम ॥ १.९१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सोम यतस्त्वं प्रियो मित्रो नेव शुचिरसि। अर्यमेव दक्षाय्योऽसि। हे सोम यतो वरुणस्य राज्ञस्ते ! तव व्रतानि सत्यप्रकाशकानि कर्माणि सन्ति यतस्तव बृहद्गभीरं धामास्ति तस्माद्भवान् नु सर्वदोपास्यः सेवनीयो वास्ति ॥ ३ ॥
पदार्थः
(राज्ञः) सर्वस्य जगतोऽधिपतेर्विद्याप्रकाशवतो वा (नु) सद्यः (ते) तव (वरुणस्य) वरस्य (व्रतानि) सत्यपालनादीनि कर्माणि (बृहत्) महत् (गभीरम्) महोत्तमगुणागाधम् (तव) (सोम) महैश्वर्ययुक्त (धाम) धीयन्ते पदार्था यस्मिंस्तत् (शुचिः) पवित्रः पवित्रकारको वा (त्वम्) (असि) भवसि (प्रियः) प्रीतः (न) इव (मित्रः) सुहृत् (दक्षाय्यः) विज्ञानकारकः (अर्यमेव) यथार्थन्यायकारीव (असि) भवसि (सोम) शुभकर्मगुणेषु प्रेरक ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषापमालङ्कारौ। मनुष्या यथा यथाऽस्यां सृष्टौ रचनानियमैरीश्वरस्य गुणकर्मस्वभावांश्च दृष्ट्वा प्रयत्नान् कुर्वीरन् तथा तथा विद्यासुखं जायत इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सोम यतस्त्वं प्रियो मित्रो नेव शुचिरसि। अर्यमेव दक्षाय्योऽसि। हे सोम यतो वरुणस्य राज्ञस्ते तव व्रतानि सत्यप्रकाशकानि कर्माणि सन्ति यतस्तव बृहद्गभीरं धामास्ति तस्माद्भवान् नु सर्वदोपास्यः सेवनीयो वास्ति ॥ ३ ॥
पदार्थः
(राज्ञः) सर्वस्य जगतोऽधिपतेर्विद्याप्रकाशवतो वा (नु) सद्यः (ते) तव (वरुणस्य) वरस्य (व्रतानि) सत्यपालनादीनि कर्माणि (बृहत्) महत् (गभीरम्) महोत्तमगुणागाधम् (तव) (सोम) महैश्वर्ययुक्त (धाम) धीयन्ते पदार्था यस्मिंस्तत् (शुचिः) पवित्रः पवित्रकारको वा (त्वम्) (असि) भवसि (प्रियः) प्रीतः (न) इव (मित्रः) सुहृत् (दक्षाय्यः) विज्ञानकारकः (अर्यमेव) यथार्थन्यायकारीव (असि) भवसि (सोम) शुभकर्मगुणेषु प्रेरक ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषापमालङ्कारौ। मनुष्या यथा यथाऽस्यां सृष्टौ रचनानियमैरीश्वरस्य गुणकर्मस्वभावांश्च दृष्ट्वा प्रयत्नान् कुर्वीरन् तथा तथा विद्यासुखं जायत इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सोम) महाऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर वा विद्वान् ! जिससे (त्वम्) आप (प्रियः) प्रसन्न (मित्रः) मित्र के (न) तुल्य (शुचिः) पवित्र और पवित्रता करनेवाले (असि) हैं तथा (अर्यमेव) यथार्थ न्याय करनेवाले के समान (दक्षाय्यः) विज्ञान करनेवाले (असि) हैं। हे (सोम) शुभकर्म और गुणों में प्रेरणेवाले (वरुणस्य) श्रेष्ठ (राज्ञः) सब जगत् के स्वामी वा विद्याप्रकाशयुक्त ! (ते) आपके (व्रतानि) सत्यप्रकाश करनेवाले काम हैं, जिससे (तव) आपका (बृहत्) बड़ा (गभीरम्) अत्यन्त गुणों से अथाह (धाम) जिसमें पदार्थ धरे जायें, वह स्थान है, इससे आप (नु) शीघ्र और सदा उपासना और सेवा करने योग्य हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्य जैसे-जैसे इस सृष्टि में सृष्टि की रचना के नियमों से ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभावों को देख के अच्छे यत्न को करें, वैसे-वैसे विद्या और सुख उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
राजा वरुण के समान
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब एक व्यक्ति प्रभु का स्तवन करता है तब यह भी उस प्रभु - जैसा ही बन जाता है । तब इसके लिए कहते हैं कि हे (सोम) = शान्त स्वभाववाले पुरुष ! (राज्ञः वरुणस्य नु) = [नु - इव - नि० १/४] उस देदीप्यमान श्रेष्ठ प्रभु के समान (ते व्रतानि) = तेरे व्रत हैं । प्रभु के सब कर्म जैसे लोकहितकारी होते हैं, उसी प्रकार तेरे सब कार्य लोकहित - साधक हैं । २. हे (सोम) = शरीर में सोम का रक्षण करके सोम का पुञ्ज बननेवाले जीव ! तव (धाम) = तेरा तेज (बृहत्) = वृद्धि का कारणभूत - बहुत बढ़ा हुआ व (गभीरम्) = गम्भीर है । उथली शक्ति औरों के नाश में प्रवृत्त होती है - गम्भीर शक्ति निर्माण में विनियुक्त होती है । ३. उस प्रभु के उपासन का ही यह परिणाम है कि उत्तम कर्म करता हुआ गम्भीर शक्ति से युक्त होकर (त्वम्) = तू (शुचिः) = पवित्र जीवनवाला (असि) = है - औरों को उसी प्रकार पवित्र करनेवाला है (न) = जैसेकि (प्रियः मित्रः) = सबके लिए अनुकूल [सबका प्रिय] सूर्य सबका शोधन करता है । सूर्य का नाम ही 'शुन्ध्यु' पड़ गया है । तू भी इस सूर्य की भाँति शुन्ध्यु होता है । ४. तू (अर्यमा इव) = [अरीन् यच्छति] काम, क्रोध व लोभ का नियमन करनेवाले के समान (दक्षाय्यः) = उन्नतिशील है, अपने बल का वर्धन करनेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभुभक्त के कर्म प्रभु - जैसे ही होते हैं । उसकी शक्ति बढ़ी हुई व गम्भीर होती है । वह पवित्र व उन्नत होता है ।
विषय
श्रेष्ठ राजा वरुण का वर्णन, उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ, सब दुष्टों के वारक, सबसे वरण करने योग्य ! (ते राज्ञः) तुझ राजा के ही बनाये ( व्रतानि ) ये सब राज्यपालन के नियम हों । हे (सोम ) राजन् ! ( तव ) तेरा ( धाम ) धारण सामर्थ्य और नाम, जन्म और स्थान तथा यश भी ( बृहत् ) बहुत बड़ा और ( गभीरम् ) गम्भीर, सब पर प्रभाव डालने वाला हो । ( त्वम् ) तू ( प्रियः मित्रः न ) प्रिय मित्र के समान ( शुचिः असि ) शुद्ध, निष्कपट व्यवहार वाला (असि) हो । और हे ( सोम ) सब ऐश्वर्यवन् ! तू ( अर्यमा इव ) शत्रुओं का दमन करने वाले सेनापति और म्यायकारी धर्माध्यक्ष के समान ( दक्षाय्यः ) बल और यथार्थ न्याय शासन करने हारा (असि) हो । [२] परमेश्वर के सब सत्य नियम और उसका बल महान् अगाध है। वह प्यारे मित्र के समान स्वच्छ हृदय है, वह सूर्य के समान समस्त बलों और ज्ञानों का आश्रय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. माणसे जसजशी या सृष्टीत सृष्टिरचनेच्या नियमाद्वारे ईश्वराचे गुण कर्म स्वभाव जाणून चांगला प्रयत्न करतात तसतसे विद्या व सुख उत्पन्न होते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soma, royal and exceptional are your vows of discipline dedicated to the world ruler Varuna. Grand and deep is your home. Pure and immaculate are you, dear as a bosom friend, Soma, and master of ceremonies as the foremost leader of a yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) Soma-God Inspirer of good acts, thou art Pure like a dear friend. Thou art Giver of True knowledge like a dispenser of justice. Thou art the Lord of the world and the. Best. Thy acts are revealers of Truth. Thy glory is great and profound. Therefore art Thou worthy of adoration by all and for ever. (2) It is also applicable to a learned person, who prompts people to do noble deeds, is endowed with the light of knowledge, pure like a dear friend, whose glory is great and profound and who is giver of knowledge. He should be served well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दक्षाय्य:) विज्ञानकारक: = Producer or giver of knowledge. (दक्ष-गतिहिंसनयो: गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानप्राप्ति ग्रहरणम् )(सोम) शुभकर्मगुणेषु प्रेरक = Prompter for noble acts and virtues. (षु-प्रसवैश्वर्ययोः)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Shleshalankar or double meaning. As men try to know the attributes, acts and nature of God in this creation, they enjoy the happiness of knowledge or wisdom.
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