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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒स्रो दे॒ष्ट्राय॒ निॠ॑ती॒रुपा॑सते दीर्घ॒श्रुतो॒ वि हि जा॒नन्ति॒ वह्न॑यः । तासां॒ नि चि॑क्युः क॒वयो॑ नि॒दानं॒ परे॑षु॒ या गुह्ये॑षु व्र॒तेषु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः । दे॒ष्ट्राय॑ । निःऽऋ॑तीः । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । दी॒र्घ॒ऽश्रुतः॑ । वि । हि । जा॒नन्ति॑ । वह्न॑यः । तासा॑म् । नि । चि॒क्युः॒ । क॒वयः॑ । नि॒ऽदान॑म् । परे॑षु । याः । गुह्ये॑षु । व्र॒तेषु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो देष्ट्राय निॠतीरुपासते दीर्घश्रुतो वि हि जानन्ति वह्नयः । तासां नि चिक्युः कवयो निदानं परेषु या गुह्येषु व्रतेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः । देष्ट्राय । निःऽऋतीः । उप । आसते । दीर्घऽश्रुतः । वि । हि । जानन्ति । वह्नयः । तासाम् । नि । चिक्युः । कवयः । निऽदानम् । परेषु । याः । गुह्येषु । व्रतेषु ॥ १०.११४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दीर्घश्रुतः) बहुत काल तक वेदत्रयी का श्रवण किये हुए (वह्नयः-हि) ज्ञान के वहन करनेवाले ही (वि जानन्ति) यथार्थ वस्तुतत्त्व को जानते हैं (तिस्रः) तीन (निः-ऋतीः) निश्चित सत्यवेद विद्याओं को (देष्ट्राय) अन्यों को देने के लिये (उप आसते) सेवन करते हैं-अभ्यास में लाते हैं (याः) जो विद्याएँ (परेषु) उत्कृष्ट (गृह्येषु) गुप्त अध्यात्मज्ञान विषयों में (व्रतेषु) तथा अध्यात्मकर्मों में-सदाचरणों में उपयुक्त होती हैं (तासाम्) उन वेदविद्याओं का (निदानम्) कारण मूल-आधार-परमात्मा को (कवयः-हि) अध्यात्मदर्शी विद्वान् ही (निचिक्युः) निस्संदेह जानते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    वेदत्रयी का अध्ययन बहुत काल तक कर चुकनेवाले यथार्थ ज्ञान को प्राप्त होते हैं और वे ही अपने आत्मा में परिपुष्ट कर दूसरों के लिये ज्ञान देते हैं, अध्यात्मविषयसम्बन्धी विद्याएँ उत्कृष्ट हैं, उन्हें अध्यात्मकर्मों एवं सदाचरणों के द्वारा जीवन में ढाला जाता है, उनके मूलकारण परमात्मा को अध्यात्मदर्शी जाना करते हैं ॥२॥

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    विषय

    त्रिविधा वेदवाणी

    पदार्थ

    [१] (देष्ट्राय) = कर्त्तव्य ज्ञान के उपदेश के लिए (दीर्घश्रुतः) = दीर्घकाल तक आचार्य मुख से ज्ञान का श्रवण करनेवाले ज्ञानी पुरुष (तिस्रः) = तीनों (निरृती:) = निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्ति की मार्गभूत वेदवाणियों को (उपासते) = उपासित करते हैं। ऋचाओं, यजु व साम तीनों के ज्ञान का (वह्नयः) = धारण करनेवाले ये व्यक्ति (हि) = ही (विजानन्ति) = विशिष्ट ज्ञानवाले होते हैं। ऋचाओं से प्रकृति का, यजु से जीव के कर्त्तव्यों का तथा साम से प्रभु की उपासना का ज्ञान प्राप्त करके ये अपने जीवन में 'ज्ञान कर्म व भक्ति' का सुन्दर मेल कर पाते हैं । [२] (तासाम्) = उल्लिखित तीनों निर्ऋतियों के, निश्चयात्मक ज्ञान की प्राप्ति की मार्गभूत वेदवाणियों के (निदानम्) = मूल कारण प्रभु को ये (कवयः) = क्रान्तदर्शी लोग (निचिक्युः) = जानते हैं, मनन द्वारा हृदयों में उसका निश्चय करते हैं। उन वेदवाणियों के कारणभूत परमात्मा को जानते हैं (या:) = जो (परेषु) = उत्कृष्ट (गुह्येषु) = संवरणीय (व्रतेषु) = व्रतों में स्थित हैं। इन वेदवाणियों में उत्कृष्ट व्रतों का प्रतिपादन है । 'ऋचा विज्ञान' का व्रत धारण कराती है, यजु 'कर्म' का तथा साम 'भक्ति' का । एवं ये वेदवाणियाँ हमारे मस्तिष्कों, हाथों व हृदयों को सुन्दर बनाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'ऋचा, यजु व साम' रूप त्रिविधा वेदवाणी का हम ज्ञान प्राप्त करें। इनके उत्पत्ति- स्थान प्रभु का भी हृदयों में मनन करें। इनसे उपदिष्ट व्रतों को धारण करें।

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    विषय

    गुरु जनों से ज्ञानोपार्जन का प्रकार।

    भावार्थ

    (दीर्घ-श्रुतः) दीर्घ काल तक वेदों के ज्ञान का श्रवण करने वाले और (वह्नयः) ज्ञान के धारक विद्वान् जन (देष्ट्राय) सर्वसामान्य जनों को उपदेश करने के लिये ही (तिस्रः) तीनों (निः-ऋतीः) निःशेष सत्य ज्ञान से पूर्ण वेदों को (उप आसते) गुरु या प्रभु के समीप रह कर उपासना, द्वारा प्राप्त कर अभ्यास करते हैं। और वे (कवयः) क्रान्तदर्शी जन (तासां) उन वेदवाणियों के (वि जानन्ति हि) विशेष विज्ञान रहस्य को जान लेते हैं और (याः) जो (परेषु) सर्वोत्कृष्ट (गुह्येषु व्रतेषु) बुद्धि में स्थित ज्ञानमय कर्त्तव्यों का (निदानम्) स्थिर सम्बन्ध है उसको भी (नि चिक्युः) निश्चयपूर्वक जान लेते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दीर्घश्रुतः-वह्नयः-हि वि जानन्ति) बहुकालं वेदत्रयीं श्रुतवन्तो ज्ञानवोढारो हि यथार्थं जानन्ति (तिस्रः-निः-ऋतीः-देष्ट्राय-उप आसते) तिस्रः-निश्चित-सत्यवेदविद्याः खल्वन्येभ्यो दानाय सेवन्तेऽभ्यस्यन्ति (याः परेषु गुह्येषु व्रतेषु) याः-विद्याः प्रकृष्टेषु ज्ञानेषु गुप्तेषु खल्वध्यात्मविषयेषु तथा कर्मसु-सदाचरणेषु “व्रतं कर्मनाम” [निघ० २।१] उपयुज्यन्ते (तासां निदानं कवयः-हि नि चिक्युः) तासां वेदविद्यानां कारणं मूलमाधारं परमात्मानमध्यात्मदर्शिनो निःसन्दिग्धं जानन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sages who have heard the divine message for long through discipline carry it on to pass it on to others. They know, closely watch, internalise and worship the trinity of eternal reality and its existential dynamics: Brahma, Prakrti, and Jiva, three modes of Prakrti: sattva, rajas and tamas, three phases of temporal existence: creation, continuance and completion, three aspects of the good life: knowledge, karma and worship, three aspects of worship: adoration, prayer and meditation in the triple world of earth, skies and heaven. Poetic vision arises and creative souls know the original cause of all these orders of existence and knowledge which operate in all other open and covert, lowest and highest facts, activities and disciplines of life. That cause is One, Supreme, Unique.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदत्रयीचे अध्ययन बराच काळपर्यंत करणारे यथार्थ ज्ञान प्राप्त करतात व तेच आपल्या आत्म्याला परिपुष्ट करून दुसऱ्यांना ज्ञान देतात. अध्यात्मविद्या उत्कृष्ट आहे. अध्यात्म कर्म व सदाचरणाद्वारे ती जीवनात धारण केली जाते. त्याचे मूल कारण हे की अध्यात्मदर्शीच परमेश्वराला जाणतात. ॥२॥

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