ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 6
ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ष॒ट्त्रिं॒शाँश्च॑ च॒तुर॑: क॒ल्पय॑न्त॒श्छन्दां॑सि च॒ दध॑त आद्वाद॒शम् । य॒ज्ञं वि॒माय॑ क॒वयो॑ मनी॒ष ऋ॑क्सा॒माभ्यां॒ प्र रथं॑ वर्तयन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठष॒ट्ऽत्रिं॒शान् । च॒ । च॒तुरः॑ । क॒ल्पय॑न्तः । छन्दां॑सि । च॒ । दध॑तः । आ॒ऽद्वा॒द॒शम् । य॒ज्ञम् । वि॒ऽमाय॑ । क॒वयः॑ । म॒नी॒षा । ऋ॒क्ऽसा॒माभ्या॑म् । प्र । रथ॑म् । व॒र्त॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
षट्त्रिंशाँश्च चतुर: कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् । यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठषट्ऽत्रिंशान् । च । चतुरः । कल्पयन्तः । छन्दांसि । च । दधतः । आऽद्वादशम् । यज्ञम् । विऽमाय । कवयः । मनीषा । ऋक्ऽसामाभ्याम् । प्र । रथम् । वर्तयन्ति ॥ १०.११४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(षट्त्रिंशान्) सोमयज्ञ में छत्तीस हेमन्त के दिनों (चतुरः-च) और चार दिन अन्य एवं चालीस दिन “चिल्ला के दिनों” (कल्पयन्तः) सम्पादित करते हुए तथा (छन्दांसि च) और सात गायत्री आदि छन्दों को (दधतः-आद्वादशम्) बारह संख्या तक पाँच अतिछन्दों को धारण करते हुए (यज्ञं विमाय) सोम ओषधि यज्ञ या ब्रह्मयज्ञ को विशेषरूप से धारण करके (मनीषा) बुद्धि से (ऋक्सामाभ्याम्) ऋग्वेद सामवेद मन्त्रों की गीतियों से या स्तुति उपासना द्वारा (रथम्) रमण-आरम्भ (प्र वर्तयन्ति) चलाते हैं ॥६॥
भावार्थ
हेमन्त के चालीस दिनों में गायत्री आदि सात छन्दों और पाँच अतिछन्दों को मिलाकर बारह छन्दों से ऋग्वेदमन्त्रों और सामवेदमन्त्रों की गीतियों से सोमौषधियज्ञ तथा स्तुति उपासना द्वारा ब्रह्मयज्ञ करना चाहिये ॥६॥
विषय
ऋक् साम से रथ प्रवर्तन
पदार्थ
[१] 'आचत्वारिंशतः संपूर्णता' इस सुश्रुत वाक्य के अनुसार ४० वें वर्ष में शरीर के निर्माण की पूर्णता हो जाती है। इन चालीस वर्षों में भी यहाँ मन्त्र में 'षट् त्रिंशान् च चतुर: ''३६ और ४' इस विभाग से यह प्रतीत होता है कि छत्तीस तक पूर्णता हो जाती है और अन्तिम चार वर्ष तो finishing toxehes दिये जाते रहते हैं। इसी प्रकार चालीसवें में जीवन का पूरा निर्माण हो जाता है । (षट् त्रिंशान् चतुरः च) = छत्तीस और चार, अर्थात् चालीस वर्ष तक (कल्पयन्तः) = अपने अंगों को सामर्थ्यवान् बनाते हुए (च) = और (आद्वादशम्) = बारह वर्ष की उमर तक (छन्दांसि) = सब वेदमन्त्रों को (दधतः) = धारण करते हुए 'आठवें वर्ष में आचार्यकुल में प्रविष्ट होने पर बारहवें वर्ष तक सब वेद सामान्यतः याद करा दिये जाते थे'। इस पाठ्य-प्रणाली का यहाँ संकेत मिलता है। (कवयः) = ज्ञानी लोग (मनीषा) = बुद्धि के द्वारा (यज्ञं विमाय) = यज्ञों को विशेषरूप से करके (ऋक्सामाभ्याम्) = विज्ञान और उपासना से विद्या व श्रद्धा से (रथम्) = अपने जीवनरथ को (प्रवर्तयन्ति) = निरन्तर कार्यों में प्रवृत्त करते हैं। [२] यहाँ मन्त्र में इन बातों का संकेत सुस्पष्ट है कि- [क] शरीर की पूर्णता चालीसवें वर्ष में आकर होती है। तब तक परिवर्तन का सम्भव होता है। चालीसवें वर्ष में आकर सब अंगों का निर्माण हो चुकता है, [ख] शिक्षा-प्रणाली में प्रारम्भिक पाठ्यक्रम सब मन्त्रों का याद करना है, यह बारहवें वर्ष में पूर्ण हो जाता है, [ग] जीवन यथासम्भव बुद्धिपूर्वक यज्ञों के करने में बीतना ही ठीक है, [घ] सब कार्य विद्या व श्रद्धा के समन्वय से किये जाने चाहिएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - विद्या व श्रद्धा से कार्यों को करते हुए हम जीवन यात्रा में निरन्तर आगे बढ़ें।
विषय
यज्ञ विधि में कहे ४० ग्रहों का स्पष्टीकरण।
भावार्थ
पहले (षट् त्रिंशान्) ३६ [ छत्तीस ] और (चतुरः) चार, कुल चालिस (ग्रहान्) रूपों की (कल्पयन्तः) कल्पना करते हुए, और (आद्वादशं छन्दांसि च दधतः) १२ संख्या तक छन्दों को धारण करते हुए, (कवयः) क्रान्तदर्शी, बुद्धिमान् जन (मनीषा) बुद्धि से (ऋक्-सामाभ्याम्) ऋग्वेद और सामवेद से (यज्ञम् वि-माय) यज्ञ का विशेष ज्ञानपूर्वक निर्माण करके (रथम्) रमणीय, सर्वप्रिय यज्ञ को (प्र वर्त्तयन्ति) करते हैं।
टिप्पणी
उपांशुयाम २, ऐन्द्रवांयव आदि दो २ के तीन, शुक्रामन्थी २, आग्रायण १, उक्थ १, ध्रुव १, ऋतुग्रह, १२ ऐन्द्राग्न १, वैश्वदेव १, मरुत्वतीय ३, माहेन्द्र १ आदित्य १, सावित्र १, वैश्वदेव १, पात्नीवत १, हारियोजन १, योग ३६ ग्रह । और अत्यग्निष्टोम में उक्त ३६ और अंशु, अदाभ्य, दधिग्रह और षोडशी ये चार ग्रह मिलाकर ४० ग्रह हो जाते हैं। ये सब यज्ञ में प्रजापति के ही नाना सामर्थ्यों को दर्शाने वाले रूप हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(षट्त्रिंशान्-चतुरः-च कल्पयन्तः) सोमयागे हैमन्तिकान्-षट्त्रिंशान् दिवसान् तत्र चतुरो दिवसान् च सम्पादयन्तश्चत्वारिंशान् दिवसान् योजयन्ति तथा (छन्दांसि च दधतः-आद्वादशम्) गायत्रीप्रभृतीनि सप्तछन्दांसि द्वादशसङ्ख्यायावदिति तत्र सप्तसु छन्दःसु पञ्चातिछन्दांसि कल्पयित्वा संयोज्य वा (यज्ञं विमाय) सोमौषधियज्ञं ब्रह्मयज्ञं च विशेषेण धारयित्वा (मनीषा) बुद्ध्या (ऋक्सामाभ्याम्) ऋङ्मन्त्रसाममन्त्रगीतिभ्यां “ऋच्यध्यूढं साम गीयते” [छान्दोग्य०] स्तुत्युपासनाभ्यां वा (रथम्) रमणमारम्भं (प्र वर्तयन्ति) चालयन्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Visualising and re-structuring the modes and manifestations of the Soma spirit through thirty-six and four poetic structures bearing upto the twelfth of the forms, having enacted the yajna with their thought and imagination, the sages accomplish the yajnic cycle with Rks and Samans.
मराठी (1)
भावार्थ
हेमंताच्या चाळीस दिवसात गायत्री इत्यादी सात छंदांनी व पाच अतिछदांनी मिळून बारा छन्दांनी ऋग्वेद मंत्र व सामवेद मंत्राच्या गीतीने सोमौषधी यज्ञ व स्तुती उपासनेद्वारे ब्रह्मयज्ञ केला पाहिजे. ॥६॥
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