ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 4
ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
एक॑: सुप॒र्णः स स॑मु॒द्रमा वि॑वेश॒ स इ॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ वि च॑ष्टे । तं पाके॑न॒ मन॑सापश्य॒मन्ति॑त॒स्तं मा॒ता रे॑ळ्हि॒ स उ॑ रेळ्हि मा॒तर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठएकः॑ । सु॒ऽप॒र्णः । सः । स॒मु॒द्रम् । आ । वि॒वे॒श॒ । सः । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । वि । च॒ष्टे॒ । तम् । पाके॑न । मन॑सा । अ॒प॒श्य॒म् । अन्ति॑तः । तम् । मा॒ता । रे॒ळ्हि॒ । सः । ऊँ॒ इति॑ । रे॒ळ्हि॒ । मा॒तर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एक: सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे । तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम् ॥
स्वर रहित पद पाठएकः । सुऽपर्णः । सः । समुद्रम् । आ । विवेश । सः । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । वि । चष्टे । तम् । पाकेन । मनसा । अपश्यम् । अन्तितः । तम् । माता । रेळ्हि । सः । ऊँ इति । रेळ्हि । मातरम् ॥ १०.११४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एकः सुपर्णः) इन दोनों जीवात्मा परमात्मा के बीच में एक सुपर्ण, संसार का सम्यक् पालन करनेवाला परमात्मा (सः समुद्रम्) वह समुद्र के समान विशाल संसार को (आविवेश) व्याप्त हो रहा है (सः) वह (इदं विश्वं भुवनम्) इस सारे प्राणिवर्ग को (वि चष्टे) विशेषरूप से देखता है-उनके कर्मों को जानता है (तम्) उस परमात्मा को (पाकेन मनसा) पकने सुसम्पन्न होने योग्य निरुद्ध मन से (अन्तितः) समीप करके (अपश्यम्) देखता हूँ जानता हूँ (तं माता रेळ्हि) उस जीवात्मा को माता मान्यकर्ता माता के समान स्नेह करता है (सः-उ) वह जीवात्मा (मातरं रेळ्हि) माता के समान परमात्मा को स्नेह करता है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा विशाल संसार में व्याप्त है और प्राणिमात्र के कर्मों को जानता है, उसे सुपक्व निरुद्ध मन से जीवात्मा अपने अन्दर देखता है और ऐसे देखता है कि वे दोनों परस्पर माता-पुत्र के समान स्नेह कर रहे हैं ॥४॥
विषय
पवित्र हृदय में प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] प्रभु (एकः) = अद्वितीय (सुपर्णः) = पालन व पूरण करनेवाले हैं। प्रभु की एक-एक रचना पालन व पूरण करनेवाली है । (सः) = वे प्रभु (समुद्रम्) = आनन्दयुक्त, प्रसादमय, हृदय में (आविवेश) = प्रवेश करते हैं। जिस हृदय में क्रोध व राग-द्वेष का कूड़ा-करकट भरा होता है वहाँ प्रभु का निवास नहीं होता। इसी दृष्टिकोण से (मनः) = प्रसाद का महत्त्व है, यह मनः प्रसाद सर्वोत्कृष्ट तप है । (सः) = वे प्रभु (इदं विश्वं भुवनम्) = इस सम्पूर्ण लोक को विचष्टे-देखते हैं व पालते हैं [look after ]। प्रभु की सब क्रियाएँ हमारे पालन व पूरण के लिये तो हैं ही। [२] (तम्) = उस परमात्मा को (पाकेन मनसा) = पवित्र मन से (अन्तितः) = अपने समीप ही (अपश्यम्) = मैं देखता हूँ । हृदय के पवित्र होने पर प्रभु हृदय में ही स्थित दिखते हैं। इस दर्शन के होने पर माता - यह (प्रमाता) = ज्ञान का निर्माण करनेवाला (तं रेढि) = उस प्रभु का आस्वाद लेता है, प्रभु-दर्शन से अद्वितीय आनन्द का अनुभव करता है । (उ) = और (सः) = वे प्रभु भी (मातरम्) = इस ज्ञान के निर्माता का रेढि आनन्द लेता है ज्ञानी प्रभु- दर्शन से आनन्द को प्राप्त करता है तो प्रभु भी ज्ञानी से प्रीणित होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अद्वितीय पालनकर्ता हैं । पवित्र हृदयों में प्रभु का वास होता है । उसी हृदय में प्रभु - दर्शन होता है। ज्ञानी प्रभु प्राप्ति का आनन्द लेता है और प्रभु को ज्ञानी प्रिय होता है ।
विषय
सर्वजगत् साक्षी अद्वितीय प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(एकः सु-पर्णः) सुख से समस्त जगत् को पूर्ण और पालन करने वाला एक, अद्वितीय है, (सः) वह (समुद्रम्) महान् आकाश को (आ विवेश) प्रवेश किये, हुए है, (सः इदम् विश्वं भुवनम्) वह ही इस समस्त जगत् को (वि-चष्टे) विशेष रूप से देखता वा प्रकाशित करता है। (तं) उसको मैं विद्वान् (पाकेन मनसा) पवित्र, उत्तम चित्त वा ज्ञान से (अन्तितः) समीप से (अपश्यम्) देखूं। (तम्) उसको (माता) ज्ञानवान् पुरुष ही (रेढि) प्राप्त करता, उसका आस्वादन करता है और (सः) वह प्रभु (मातरम्) उस ज्ञानी पुरुष को (उ) भी (रेढि) अपने भीतर ले लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एकः सुपर्णः) पूर्वोक्तयोर्द्वयोः सुपर्णयोः-जीवात्मपरमात्मनोरेकः सुपर्णः परमात्मा (सः-समुद्रम्-आ विवेश) समुद्रमिवापार-संसारमाविशति प्राप्नोति (सः-इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे) स इदं सर्वप्राणिजातं विशेषेण पश्यति सर्वेषां जीवात्मनां कर्माणि जानाति (तं पाकेन मनसा-अन्तितः-अपश्यम्) तं परमात्मानं पक्तव्येन सुपक्वेन निरुद्धेन मनसाऽहं समीपं पश्यामि, (तं माता रेळ्हि सः-उ मातरं रेळ्हि) तं जीवात्मानं माता मान्यकर्त्ता मातृ-स्नेहकर्त्ता परमात्मा स्निह्यति स खलु जीवात्मा स्नेहकर्त्तारं परमात्मानं स्निह्यति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
One and One only is the cosmic spirit which pervades and manifests in the boundless ocean of space- and-time. It watches, illuminates and inspires this entire universe. I see it with pure and transparent mind manifesting at the closest. Prakrti which is the mother medium of its manifestation embraces it in love, and it too loves and embraces the mother medium. So also, divine Speech which is the mother medium of its expression embraces it in love, and it too loves and embraces the mother medium.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा विशाल संसारात व्याप्त आहे. प्राणिमात्रांच्या कर्मांना जाणतो. त्याला जीवात्मा सुपक्व निरुद्ध मनाने आपल्यात पाहतो. ते परस्पर माता पुत्राप्रमाणे स्नेह करतात. ॥४॥
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