ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 9
ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कश्छन्द॑सां॒ योग॒मा वे॑द॒ धीर॒: को धिष्ण्यां॒ प्रति॒ वाचं॑ पपाद । कमृ॒त्विजा॑मष्ट॒मं शूर॑माहु॒र्हरी॒ इन्द्र॑स्य॒ नि चि॑काय॒ कः स्वि॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठकः । छन्द॑साम् । योग॑म् । आ । वे॒द॒ । धीरः॑ । कः । धिष्ण्या॑म् । प्रति॑ । वाच॑म् । प॒पा॒द॒ । कम् । ऋ॒त्विजा॑म् । अ॒ष्ट॒मम् । शूर॑म् । आ॒हुः॒ । हरी॒ इति॑ । इन्द्र॑स्य । नि । चि॒का॒य॒ । कः । स्वि॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कश्छन्दसां योगमा वेद धीर: को धिष्ण्यां प्रति वाचं पपाद । कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित् ॥
स्वर रहित पद पाठकः । छन्दसाम् । योगम् । आ । वेद । धीरः । कः । धिष्ण्याम् । प्रति । वाचम् । पपाद । कम् । ऋत्विजाम् । अष्टमम् । शूरम् । आहुः । हरी इति । इन्द्रस्य । नि । चिकाय । कः । स्वित् ॥ १०.११४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कः-धीरः) कौन ज्ञानवान्-बुद्धिमान् (छन्दसां योगम्) मन्त्रों के यथावत् योजन-उपयोग को (आ वेद) भलीभाँति जाने (कः) कौन (वाचं प्रति) स्तुति के प्रति (धिष्ण्याम्) वाणी में होनेवाली फलसिद्धि को (पपाद) प्राप्त होता है (ऋत्विजाम्) छन्दों के मध्य में (अष्टमम्) आठवें (कं शूरम्) सुखस्वरूप प्रतापी छन्द “ओ३म्” को कहते हैं (इन्द्रस्य हरी) ऐश्वर्यवान् परमात्मा की दो हरियों-ऋक्साम-स्तुति उपासना को (कः स्वित्) कौन ही (नि-चिकाय) नितरां जानता है ॥९॥
भावार्थ
वेद के मन्त्रों के अर्थ तथा तदनुसार उपयोग को कोई विरला-ज्ञानवान् बुद्धिमान् जान सकता है तथा वेदवाणी में कही स्तुति की फलसिद्धि को कोई विरला ही प्राप्त कर सकता है तथा छन्दों के मध्य में प्रमुख सुखस्वरूप ‘ओ३म्’ को कहते हैं, उसे भी कोई विरला जानता है तथा ऐश्वर्यवान् परमात्मा की स्तुति उपासना को अपने अन्दर ढालनेवाला विरला ही होता है, इसलिये मनुष्य को विशेष ज्ञानी होना चाहिये ॥९॥
विषय
ज्ञान-प्रदाता प्रभु
पदार्थ
[१] (कः) = वे आनन्दमय (धीरः) = ज्ञान में रमण करनेवाले प्रभु ही सृष्टि के प्रारम्भ में (छन्दसाम्) = इन पाप निवारक वेदवाणियों के (योगम्) = सम्पर्क को आवेद प्राप्त कराते हैं। 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' के हृदयों में प्रभु ही इस वेदवाणी का प्रकाश करते हैं। [२] (कः) = वे आनन्दमय प्रभु ही (धिष्ण्यां वाचम्) = [धिषणया कृतां, 'बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे'] बुद्धिपूर्वक वाक्य रचनावाली इस वेदवाणी को (प्रतिपपाद) = प्रतिपादित करते हैं। [३] मानव शरीरों में मन के द्वारा चलाए जानेवाले सप्त होताओंवाले यज्ञ में ['येन यज्ञस्तायते सप्त होता'], सात होता। 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' (कम्) = उस आनन्दमय प्रभु को ही (ऋत्विजाम्) = ऋत्विजों में (अष्टमम्) = आठवाँ (शूरम्) = शूरवीर (आहुः) = कहते हैं । वस्तुत: ये प्रभु ही आठवें ऋत्विज् के रूप में यज्ञ का रक्षण करते हैं । [४] (कः स्वित्) = वे आनन्दमय प्रभु ही (इन्द्रस्य) = इन इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (निचिकाय) = निश्चय से बनाते हैं [चि-चिनना-बनाना] । वस्तुतः ये इन्द्रियाश्व कितनी ही अद्भुत रचनावाले हैं। अपनी अद्भुत रचना से ये अश्व उस प्रभु की महिमा को व्यक्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही ज्ञान देते हैं, वेदवाणी का उपदेश करते हैं। यज्ञों के पालक भी वे प्रभु हैं, प्रभु ही हमें इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
वेदज्ञ विद्वान् के सम्बन्ध में प्रश्न।
भावार्थ
(कः धीरः) कौन बुद्धिमान् है जो (छन्दसां योगम्) वेद-मन्त्रों के योग, योजनाओं को (आ वेद) सब प्रकार से ठीक २ प्रकार से जानता है ? और (कः) कौन विद्वान् (धिष्ण्याम्) धारण करने योग्य अंगों के अनुरूप (वाचं) वाणी को (प्रति पपाद) वर्णन कर सकता है (ऋत्विजाम्) ऋत्विजों के बीच (अष्टमम्) आठवें (कम्) किस (शूरम्) बलवान् को (आहुः) बतलाते हैं ? और (कः स्वित्) कौन विद्वान् है जो (इन्द्रस्य हरी नि चिकाय) इन्द्र के दो अश्वों के तुल्य बड़े बलों को नियत रूप से जानता है। वह सब परमात्मा ही है। जो वेद मन्त्रों का ठीक २ योग जानता, अंग-प्रत्यंग विषयक वाणी का प्रतिपादन करता, सर्वैश्वर्यवान् प्रभु के दो रूपों को जानता, और सातों पर आठवां व्यापक बलशाली है। अध्यात्म में—सात प्राणों में व्यापक आत्मा है। यज्ञ में सात होता आदि के स्थान ‘धिष्ण्य’ हैं। देह में सात प्राण, विश्व में सात विकृतियें, उनमें व्यापक प्रभु आठवां है। सूर्य के ताप और प्रकाशवत् दो अश्वों के तुल्य प्रभु के सर्गकारक और संहारक अथवा ज्ञान और क्रियाशक्ति ये दो बल हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कः-धीरः-छन्दसां योगम्-आ वेद) को ज्ञानवान् मन्त्राणां यथावद् योजनमुपयोगं समन्ताज्जानीयात् (कः-प्रति वाचम् धिष्ण्यां पपाद) कः खलु प्रतिस्तुतिं धिषणा वाक्-तत्रत्या “धिषणा वाङ्नाम” [निघ० १।१२] “धिष्ण्यः-धिषणाभवः” [निरु० ८।३] फलसिद्धिं पद्यते (ऋत्विजाम्-अष्टमं कं शूरम्-आहुः) छन्दसाम् “छन्दांसि वा ऋत्विजः” [काठ० २६।९] अष्टमं शूरं प्राक्रमिणं कं सुखस्वरूपं ‘ओ३म्’ कथयन्ति (इन्द्रस्य हरीकः स्वित्-नि चिकाय) ऐश्वर्यवतः ऋक्सामे “ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी” [ऐ० २।२४] करोति नितरां जानाति ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Who is the constant sage that knows the structure, end and purpose of the hymns? Who attains to the centre meaning of divine reality corresponding to the word of divine voice? Who would say who is the eighth veteran of the sagely yajakas? Who knows the two mighty carriers of the cosmic chariot of Indra?
मराठी (1)
भावार्थ
वेदाच्या मंत्रांचा अर्थ व त्यानुसार उपयोग एखादाच ज्ञानवान बुद्धिमान जाणू शकतो व वेदवाणीत सांगितलेल्या स्तुतीची फलसिद्धी एखादाच प्राप्त करू शकतो. व छंदामध्ये प्रमुख सुखस्वरूप ‘ओ३म्’ ला म्हटले जाते. त्यालाही एखादाच जाणतो, तसेच ऐश्वर्यवान परमात्म्याच्या स्तुती उपासनेला आपल्यात पाहणारा एखादाच असतो. त्यासाठी माणसाला विशेष ज्ञानी झाले पाहिजे. ॥९॥
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