ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 11
ऋषिः - लबः ऐन्द्रः
देवता - आत्मस्तुतिः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
दि॒वि मे॑ अ॒न्यः प॒क्षो॒३॒॑ऽधो अ॒न्यम॑चीकृषम् । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि । मे॒ । अ॒न्यः । प॒क्षः । अ॒धः । अ॒न्यम् । अ॒ची॒कृ॒ष॒म् । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि मे अन्यः पक्षो३ऽधो अन्यमचीकृषम् । कुवित्सोमस्यापामिति ॥
स्वर रहित पद पाठदिवि । मे । अन्यः । पक्षः । अधः । अन्यम् । अचीकृषम् । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवि) द्युलोक में (मे) मेरा (अन्यः पक्षः) एक पार्श्व-एक दृष्टिकोण है (अन्यम्) भिन्न दूसरे पार्श्व या दृष्टिकोण को (अधः) नीचे पृथिवी पर या संसार में (अचीकृषम्) प्रसारित करता हूँ (कुवित्०) पूर्ववत् ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा के आनन्दरस को जो बहुत पी लेता है, उसका एक स्वरूप मुक्त होना मोक्ष में है और दूसरा संसार में बद्धरूप से होता है। इन दोनों का विवेचन वह करता है ॥११॥
विषय
एक पक्ष द्युलोक, दूसरा पक्ष पृथ्वीलोक
पदार्थ
[१] (कुवित्) = खूब ही (सोमस्य) = सोम का (अपाम्) = मैंने पान किया है (इति) = इस कारण (मे अन्यः पक्षः) = मेरा एक पक्ष (दिवि) = द्युलोक में है तो (अन्यम्) = दूसरे पक्ष को मैंने (अधः) = नीचे (अचीकृषम्) = [आस्थापयम् सा० ] स्थापित किया है। [२] वीर्यरक्षण के द्वारा मैंने मस्तिष्क को ज्ञान से खूब दीप्त किया है तो मैंने इस शरीर रूप पृथिवी को भी बड़ा दृढ़ बनाया है । द्युलोक मेरा एक पक्ष है तो पृथिवीलोक दूसरा । इन दोनों पक्षों से मैंने अपने उत्थान का साधन किया है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से द्युलोक मेरा एक पासा बनता है, तो पृथिवीलोक दूसरा । मेरा ज्ञान चमकता है और शरीर दृढ़ बनता है ।
विषय
परमेश्वर के महान् सामर्थ्य का वर्णन।
भावार्थ
(मे) मेरा (दिवि अन्यः पक्षः) सूर्य या आकाश में एक पक्ष है। और (अन्यम्) दूसरा पक्ष (अधः अचीकृषम्) नीचे भू लोक को बनाता हूँ। जिस प्रकार स्त्री पुरुष दायें बायें के तुल्य हैं। उसी प्रकार विराट् प्रजापति के द्यौ और आकाश दो अंश हैं। (कुवित्० पूर्ववत्)। पृथिवी पर सूर्य या आकाश के वर्षण आदि से स्त्री से सन्तानादिवत् ही अनेक प्रजाएं उत्पन्न होती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्लब ऐन्द्रः। देवता—आत्मस्तुतिः॥ छन्दः—१–५, ७—१० गायत्री। ६, १२, १३ निचृद्गायत्री॥ ११ विराड् गायत्री।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिवि मे-अन्यः पक्षः) द्युलोके ममैकः पार्श्वः (अन्यम्-अधः-अचीकृषम्) भिन्नं द्वितीयं पार्श्वं नीचैः पृथिव्यां कर्षयामि-प्रसारयामि “कृषधातोर्ण्यन्तात्-चङि लुङि रूपम्-सामान्यकाले (कुवित्०) पूर्ववत् ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I realise one mode of my existence high up in heaven and the other down here on earth, for I have drunk of the soma of the spirit divine.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचा आनंदरस जो पितो त्याचे एक स्वरूप मुक्त होणे, मोक्ष मिळणे दुसरे संसारात बद्ध होणे या दोन्हींचे विवेचन तो करतो. ॥११॥
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