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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - आप अपान्नपाद्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आपो॑ रेवती॒: क्षय॑था॒ हि वस्व॒: क्रतुं॑ च भ॒द्रं बि॑भृ॒थामृतं॑ च । रा॒यश्च॒ स्थ स्व॑प॒त्यस्य॒ पत्नी॒: सर॑स्वती॒ तद्गृ॑ण॒ते वयो॑ धात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒पः । रे॒व॒तीः॒ । क्षय॑थ । हि । वस्वः॑ । क्रतु॑म् । च॒ । भ॒द्रम् । बि॒भृ॒थाम् । ऋत॑म् । च॒ । रा॒यः । च॒ । स्थ । सु॒ऽअ॒प॒त्यस्य॑ । पत्नीः॑ । सर॑स्वती । तत् । गृ॒ण॒ते । वयः॑ । धा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो रेवती: क्षयथा हि वस्व: क्रतुं च भद्रं बिभृथामृतं च । रायश्च स्थ स्वपत्यस्य पत्नी: सरस्वती तद्गृणते वयो धात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आपः । रेवतीः । क्षयथ । हि । वस्वः । क्रतुम् । च । भद्रम् । बिभृथाम् । ऋतम् । च । रायः । च । स्थ । सुऽअपत्यस्य । पत्नीः । सरस्वती । तत् । गृणते । वयः । धात् ॥ १०.३०.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (रेवतीः-आपः-वस्वः क्षयथ हि) हे ऐश्वर्यवाली प्रजाओं ! तुम राष्ट्रिय धन का स्वामित्व करती हो (भद्रं क्रतुं च-अमृतं च बिभृथ) भजनीय अर्थात् अनुकूल संकल्प और अमृत अर्थात् मोक्ष सुख के समान सुख को धारण करती हो (रायः स्वपत्यस्य च पत्नीः स्थ) भोग धन और उत्तम सन्तान-वीर सन्तान की पालनेवाली-धारण करनेवाली हो (सरस्वती तत्-वयः-गृणते धात्) तुम्हारी ज्ञानवती सभा मुझ शासनघोषणा करनेवाले राजा के लिए प्राण को धारण कराती है ॥१२॥

    भावार्थ

    किसी भी राष्ट्र में राष्ट्रशासक प्रजाओं द्वारा निर्वाचित किया हुआ होना चाहिए। प्रजाएँ ही वास्तव में राष्ट्र की स्वामिनी हैं। वे उत्तम सन्तान की धनी हैं, उनकी सभा राजा के शासन की विशेष विचारक शक्ति है ॥१२॥

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    विषय

    भद्र ऋतु व अमृत

    पदार्थ

    [१] (आप:) = हे रेतः कणों के रूप से शरीर में स्थित जलो! आप (रेवती:) = रयिवाले हो, अन्नमयादि सब कोशों की सम्पत्ति आपके अन्दर है । (हि) = निश्चय से (वस्वः) = निवास के लिये सब आवश्यक तत्त्वों का (क्षयथा) = [क्षि= निवास] अपने में धारण करते हो । जीवन के सब वसु आप में स्थित हैं । [२] (च) = और (भद्रम्) = कल्याणकारक व सुखजनक (क्रतुम्) = ज्ञान को व शक्ति को आप (बिभृथ) = धारण करते हो। ये रेतः कण ऊर्ध्व गतिवाले होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं । तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके हम अपने कल्याण व सुख को सिद्ध करनेवाले होते हैं । (अमृतं च) = ज्ञान के साथ आप अमरता को भी धारण करते हो 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्' । वीर्यकण सुरक्षित होकर रोगकृमियों का विध्वंस करते हैं और हमारा जीवन नीरोग बनता है। रोगरूप मृत्युओं के शिकार न होकर हम अमर बनते हैं । [३] हे रेतःकणो! आप (स्वपत्यस्य रायः च) = उत्तम सन्तानवाले धन के भी (पत्नीः) = रक्षक हो। आपके द्वारा जहाँ हम धन कमाने की योग्यता प्राप्त करते हैं, वहाँ हमारे सन्तान भी उत्तम होते हैं । रेतः कणों का रक्षण उत्तम सन्तान को तो प्राप्त कराता ही है, साथ ही हमारी शक्ति व बुद्धि में वृद्धि होकर हम धन भी कमानेवाले बनते हैं । [४] (सरस्वती) = अब ज्ञान स्वरूप परमात्मा (तद् गृणते) = उन रेतः कणों का स्तवन करनेवाले पुरुष के लिये (वय:) = उत्कृष्ट जीवन को (धात्) = धारण करता है। रेतः कणों का स्तवन यही है कि हम उनका रक्षण करनेवाले बनें और इनका रक्षण करने पर हमारा ज्ञान व बल बढ़ता है, परिणामतः हमारा जीवन उत्तम बनता है। ज्ञान स्वरूप परमात्मा का अर्चन वीर्यरक्षण से ही होता है, क्योंकि ये सुरक्षित रेत: कण ही तो ज्ञानाग्नि के ईंधन हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित रेतः कण हमें 'श्रेयो ज्ञान' तथा अमरता [नीरोगता] प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    आप्त प्रजाओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (आपः) आप्त प्रजाजनो ! एवं प्राप्त करने योग्य (रेवतीः) समृद्ध गृह-लक्ष्मियो ! आप लोग (वस्वः हि क्षयथः) ऐश्वर्य की स्वामिनी होवो। और (क्रतुम् भद्रं) उत्तम सुखप्रद कर्म यज्ञ और ज्ञान और (अमृतं च) अन्न, जल, दीर्घ जीवन और सन्तान को (विभृथ) उत्पन्न और धारण करो। आप लोग (स्वपत्यस्य रायः) उत्तम सन्तान और ऐश्वर्य का (पत्नी) पालन करने वाली होवो, (सरस्वती) उत्तम ज्ञान से युक्त विदुषी भी वेदवाणी के समान ही (गृणते) विद्वान् को (तत् वयः) वह उत्तम अन्नवत् ज्ञान (धात्) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (रेवतीः-आपः-वस्वः, क्षयथ हि) हे श्रीमत्यः प्रजाः ! यूयं राष्ट्रधनस्य स्वामित्वं कुरुथ हि “क्षयति ऐश्वर्यकर्मा” [निघं० २।२१] (भद्रं क्रतुं च-अमृतं च बिभृथ) भजनीयमनुकूलं प्रज्ञानं सङ्कल्पं “क्रतुः प्रज्ञानाम” [निघं ३।९] मृतत्वरहितं मोक्षसुखमिव सुखञ्च धारयथ (रायः स्वपत्यस्य च पत्नीः स्थ) भोगधनस्य सुसन्तानस्य वीरसन्तानस्य पालयित्र्यः स्थ (सरस्वती तत्-वयः-गृणते धात्) युष्माकं परिषत् खलु ज्ञानवती सती युष्माकं प्रशासनं प्रवक्त्रे मह्यं राज्ञे प्राणं धारयति “प्राणो वै वयः” [ऐ० १।२८] ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O cosmic dynamics of mother nature, O fluent streams of earth and the environment, O vibrant people of the land, O generous mothers of mankind, be master rulers of the world’s wealth, promote the yajnic development, well being and immortal values of happy life, be protectors and promoters of the veins of nation’s wealth and makers of the noble generations of humanity’s heroes. May Sarasvati, mother stream of divine knowledge, culture and grace bear and bring good health, full age and vibrant energy for the celebrant.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही राष्ट्रात राष्ट्रशासक प्रजेद्वारे निवडला गेला पाहिजे. प्रजाच वास्तविक राष्ट्राची स्वामिनी आहे. ती उत्तम संतानाचे पालन करणारी आहे. त्यांची सभा राजाच्या शासनाची विशेष विचारक शक्ती आहे. ॥१२॥

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