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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - आप अपान्नपाद्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रति॒ यदापो॒ अदृ॑श्रमाय॒तीर्घृ॒तं पयां॑सि॒ बिभ्र॑ती॒र्मधू॑नि । अ॒ध्व॒र्युभि॒र्मन॑सा संविदा॒ना इन्द्रा॑य॒ सोमं॒ सुषु॑तं॒ भर॑न्तीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । यत् । आपः॑ । अदृ॑श्रम् । आ॒ऽय॒तीः । घृ॒तम् । पयां॑सि । बिभ्र॑तीः । मधू॑नि । अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑ । मन॑सा । स॒म्ऽवि॒दा॒नाः । इन्द्रा॑य । सोम॑म् । सुऽसु॑तम् । भर॑न्तीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति यदापो अदृश्रमायतीर्घृतं पयांसि बिभ्रतीर्मधूनि । अध्वर्युभिर्मनसा संविदाना इन्द्राय सोमं सुषुतं भरन्तीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । यत् । आपः । अदृश्रम् । आऽयतीः । घृतम् । पयांसि । बिभ्रतीः । मधूनि । अध्वर्युऽभिः । मनसा । सम्ऽविदानाः । इन्द्राय । सोमम् । सुऽसुतम् । भरन्तीः ॥ १०.३०.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 13
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आपः) हे प्रजा ! (यत्) जिस समय (घृतं पयांसि मधूनि बिभ्रतीः आयतीः) राजसूययज्ञ के लिये घी दूध की बनी हुईं और मधुर वस्तुएँ धारण करती हुई और आती हुई तथा (अध्वर्युभिः-मनसा संविदानाः) राजसूययज्ञ के नेता विद्वानों के साथ मन से एक भाव को प्राप्त होती हुई (इन्द्राय सुषुतं सोमं भरन्तीः) राजा के लिये सुसंस्कृत उपहार की धारण करती हुई तुम को (प्रति-अदृश्रम्) मैं पुरोहित प्रत्यक्ष देखता हूँ-प्रशंसा करता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    राजसूययज्ञ में प्रजाएँ भी ऋत्विजों की अनुमति में रहती हैं। घृत और मधुर आदि वस्तुएँ होमने को लावें तथा राजा के लिये अनुकूल उपहार भी भेंट करें ॥१३॥

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    विषय

    'घृतं पयांसि - मधूनि '

    पदार्थ

    [१] हे (आपः) = रेतः कणो ! (यद्) = जब मैं आपको (आयती:) = शरीर में सर्वत्र गति करते हुए, अर्थात् शरीर में रुधिर के साथ व्याप्त होते हुए (प्रति अदृश्रम्) = प्रतिदिन देखता हूँ, अर्थात् जब आपका अपव्यय न होकर शरीर में ही रक्षण होता है तो मैं देखता हूँ कि आप (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति व मलों के क्षरण को बुद्धि की तीव्रता व मानस निर्मलता को, (पयांसि) = सब प्रकार के आप्यायन को, शरीर की शक्तियों के वर्धन को तथा (मधूनि) = मधुर वचनों व व्यवहारों को (बिभ्रतीः) = धारण करते हुए हो । वीर्यरक्षण से जहाँ [क] हमारी बुद्धि बढ़ती है, वहाँ [ख] मन निर्मल होता है, [ग] हमारे शरीर की सब शक्तियों का आप्यायन होता है और [घ] हमारे जीवन में माधुर्य की वृद्धि होती है । [२] हे रेतःकणो! आप (अध्वर्युभिः) = अध्वर-हिंसारहित यज्ञों को अपने साथ जोड़नेवाले पुरुषों के साथ (मनसा संविदाना:) = मन से संज्ञानवाले होवो । अध्वर्युओं के साथ आपका मेल हो । दूसरे शब्दों में जो भी व्यक्ति अध्वर्यु बनता है उसके साथ आपका मेल होता है । यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगा हुआ पुरुष इनका रक्षण करनेवाला बनता है। ये (आपः) = रेतः कण (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (सुषुतं सोमम्) = इस उत्तमता से उत्पादित सोम को (भरन्तीः) = पुष्ट करनेवाले होते हैं। सोम शक्ति सम्पन्न बनकर यह व्यक्ति सोम्य व शान्त स्वभाव का होता है । [३] यहाँ मन्त्र के पूर्वार्ध में रेतःकणों के रक्षण के लाभों का देना है। 'घृतं पयांसि, मधूनि ' ये शब्द उन लाभों का वर्णन इस रूप में कर रहे हैं कि ज्ञान दीप्त होगा, मन निर्मल होगा, शरीर की शक्तियों का आप्यायन होगा तथा वचन व व्यवहार में मिठास आ जायेगी। उत्तरार्ध में रेतः कणों के रक्षण के उपाय 'अध्वर्युभिः ' तथा 'इन्द्राय' शब्दों से सूचित किये गये हैं। 'यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहना' यह रेतः रक्षण के लिये आवश्यक है। दूसरा उपाय जितेन्द्रियता है, अजितेन्द्रिय के लिये वीर्यरक्षण का सम्भव नहीं। 'खाली न रहें, जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करें' यही रास्ता है जिस पर कि चलकर हम वीर्यरक्षण कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- वीर्यरक्षण के लाभ हैं-ज्ञानदीप्ति, मानस नैर्मल्य, शक्तियों का आप्यान व माधुर्य । वीर्यरक्षण का उपाय है-यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहना और जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करना ।

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    विषय

    उत्तम स्त्री-जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (आपः) आप्त स्त्रीजनो ! (यद्) जब (पयांसि) जलों, पुष्टिकारक दुग्धों और (मधूनि) अन्नों को (बिभ्रतीः) धारण करती हुईं और (अध्वर्युभिः) हिंसारहित यज्ञ वा प्रजापालन के इच्छुक विद्वानों के साथ (मनसा संविदाना) चित्त से उत्तम ज्ञान लाभ करती हुई और (इन्द्राय) अपने स्वामी पुरुष के लिये (सु-सुतं सोमं भरन्तीः) उत्तम सुस्नात वीर्यवान् पुरुष वा पुत्र को धारण करती हुई को (प्र अदृश्रम्) अच्छी प्रकार देखता हूं तो आप की स्तुति करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आपः) हे प्रजाः !  (यत्) यदा (घृतं पयांसि मधूनि बिभ्रतीः आयतीः) राजसूययज्ञाय घृतं दुग्धमयानि वस्तूनि मधुराणि धारयन्तीरागच्छन्तीर्युष्मान् प्रति (अध्वर्युभिः-मनसा संविदानाः) राजसूययज्ञस्य नेतृभिर्विद्वद्भिः सभासद्भिः सह स्वमनसा खल्वैकमत्यं गता तदनुकूलीभूताः सतीः (इन्द्राय सुषुतं सोमं भरन्तीः) राज्ञे सुसम्पादितं सुसंस्कृतमुपहारं भरन्तीर्युष्मान् (प्रति-अदृश्रम्) अहं पुरोहितः पश्यामि तदा युष्मान् प्रशंसामीति शेषः ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Apah, all fluent streams of nature and humanity, dynamic forces, powers and people of the world, I see you rising and coming in response to the call and prayer of the high priests and celebrants of yajna, bearing water, milk and ghrta and the honey sweets of life for fertility and life’s generation, in perfect union with the mind, hopes and aspirations of the priests and yajakas on the vedi and bringing pure distilled Soma beauty, prosperity and joy for Indra, ruling power and reigning glory of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजसूय यज्ञात प्रजा ही ऋत्विजांच्या अनुकूल असते, घृत व मधुर पदार्थांची आहुती द्यावी व राजाला अनुकूल उपहारांची भेट द्यावी. ॥१३॥

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