ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
ऋषिः - कवष ऐलूषः
देवता - आप अपान्नपाद्वा
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वेद्यूने॑ युव॒तयो॑ नमन्त॒ यदी॑मु॒शन्नु॑श॒तीरेत्यच्छ॑ । सं जा॑नते॒ मन॑सा॒ सं चि॑कित्रेऽध्व॒र्यवो॑ धि॒षणाप॑श्च दे॒वीः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । इत् । यूने॑ । यु॒व॒तयः॑ । न॒म॒न्त॒ । यत् । ई॒म् । उ॒शन् । उ॒ष॒तीः । एति॑ । अच्छ॑ । सम् । जा॒न॒ते॒ । मन॑सा । सम् । चि॒कि॒त्रे । अ॒ध्व॒र्यवः॑ । धि॒षणा॑ । आपः॑ । च॒ । दे॒वीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवेद्यूने युवतयो नमन्त यदीमुशन्नुशतीरेत्यच्छ । सं जानते मनसा सं चिकित्रेऽध्वर्यवो धिषणापश्च देवीः ॥
स्वर रहित पद पाठएव । इत् । यूने । युवतयः । नमन्त । यत् । ईम् । उशन् । उषतीः । एति । अच्छ । सम् । जानते । मनसा । सम् । चिकित्रे । अध्वर्यवः । धिषणा । आपः । च । देवीः ॥ १०.३०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यूने युवतयः-नमन्त) मिश्रण स्वभाववाले जन के लिये मिश्रण स्वभाववाली पारिवारिक स्त्रियाँ नम्र स्वभाव से वर्तनेवाली हो जाती हैं (एव-इत्) ऐसे ही (यत्-ईम्) जब भी (उशन्-उशतीः-अच्छ-एति) प्रजा को चाहनेवाला राजा, राजा को चाहनेवाली प्रजाओं को प्राप्त होता है (अध्वर्यवः) हे राजसूययज्ञ के नेता ऋत्विजों ! (मनसा सं जानते सं चिकित्रे) मनोभाव से राज्याभिषेकार्थ राजसूययज्ञ के द्वारा राजा से संयुक्त होते हैं, सहमत होते हैं तथा सम्यक् देखते हैं-अच्छा मानते हैं (धिषणा-आपः-देवीः-च) प्रतिज्ञारूप वाणी के द्वारा दिव्य प्रजाएँ भी सहमत होती हैं और सम्यक् देखती हैं-अच्छा मानती हैं ॥६॥
भावार्थ
राजा प्रजाजन परस्पर वैर भाव से रहित एक दूसरे से मिश्रण स्वभाव रखनेवाले होने चाहिएँ और राष्ट्र के अन्य नेताजन भी उत्तम गुणों से युक्त हुए सहमति से वर्तें ॥६॥
विषय
मानस व बौद्धिक स्वास्थ्य
पदार्थ
[१] (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (उशती:) = हित की कामनावाले, अर्थात् सदा अपने रक्षक का हित करनेवाले इन [आप] रेतःकणों की (अच्छ) = ओर (उशन्) = चाहता हुआ युवक (एति) = प्राप्त होता है, तो (एवा इत्) = ऐसा होने पर ही (यूने) = उस युवक के लिये (युवतयः) = युवतियाँ (नमन्त) = आदरवाली होती हैं। रेतःकणों के रक्षण से युवक का शरीर इतना सुन्दर प्रतीत होता है कि सब युवतियाँ उसकी ओर आकृष्ट होती हैं, उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करती हैं, उनमें उसके प्रति आदर का भाव होता है । [२] (च) = और ये (देवी:) = सब रोगों के जीतने की कामनावाले (आपः) = रेतः कण (संजानते) = संज्ञानवाले होते हैं। अपने रक्षक में उत्तम ज्ञान को पैदा करनेवाले होते हैं और (मनसा) = मन के दृष्टिकोण से (संचिकित्रे) = इसकी उत्तम चिकित्सा करते हैं, अर्थात् इसके मन में किसी प्रकार के विकार को नहीं रहने देते एवं रेतःकणों के रक्षण से जहाँ बुद्धि में दीप्ति आकर ज्ञानवृद्धि होती है वहाँ मन में पवित्रता का संचार होता है। [३] इस प्रकार ये दिव्यगुणोंवाले रेतः कण (अध्वर्यवः) = अपने रक्षक के साथ अ+ध्वर+यु' = अहिंसा को जोड़नेवाले हैं और (धिषणा) = ये बुद्धि ही बुद्धि हैं, अर्थात् इनका रक्षण बुद्धि को तीव्र बनानेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ - रेतः कणों का रक्षण शरीर के स्वास्थ्य के साथ मन व बुद्धि के स्वास्थ्य को देनेवाला है।
विषय
गृहस्थ के तुल्य राजा प्रजा का परस्पर प्रसन्नता का व्यवहार।
भावार्थ
(यूने) युवा पुरुष को प्राप्त करने के लिये जिस प्रकार (युवतयः नमन्त) युवती स्त्रियें झुकती हैं, (यत्) और जिस प्रकार (उशत्) कामनावान् पुरुष (उशती: ईम् अच्छ एति) कामना वाली दाराओं को प्राप्त करता है, उसी प्रकार (अध्वर्यः) प्रजाओं का हिंसन या पीड़न चाहने वाले जन (मनसा) मन से (देवीः) उत्तम आप्त प्रजाओं को (सं जानते) विचारते और (धिषणां संचिकित्रे) बुद्धिपूर्वक मिल कर विवेक करते हैं उसी प्रकार अध्वर अर्थात् गृहस्थ यज्ञ के इच्छुक जन मन और कर्म से प्राप्त देवियों को मन से चाहें और उनके साथ मिल कर गृह कार्यों को विचारा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा ॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यूने युवतयः-नमन्त) मिश्रयित्रे जनाय मिश्रयित्र्यो नार्यो नम्रीभवन्ति (एव-इत्) एवं हि (यत्-ईम्) यदा खलु (उशन्-उशतीः-अच्छ-एति) प्रजाः कामयमानो राजा तथा राजानं कामयमानाः प्रजाः प्रति खल्वभ्येति-अभिप्राप्नोति (अध्वर्यवः) राजसूययज्ञस्य नेतार ऋत्विजः “अध्वर्युरध्वरस्य नेता” [निरु० १।८] (मनसा सञ्जानते सञ्चिकित्रे) मनोभावेन राज्याभिषेकार्थं राजसूये कार्ये संयुज्यन्ते सहमता भवन्ति तथा सम्यक् पश्यन्ति साधु मन्यन्ते (धिषणा-आपः देवीः च) प्रतिज्ञारूपया वाचा च “धिषणा वाङ्नाम” [निघं० १।११] “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति टाविभक्तेलुर्क् दिव्याः प्रजाश्च सञ्जानते सहमता भवन्ति तथा च सम्यक् कल्याणं पश्यन्ति-अनुभवन्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as youthful women submit to young men, and as men with love eagerly advance to loving women, so do the leaders of social and scientific yajna know the liquid energies of nature and with their science and intelligence create, obtain and develop. So do also they develop the energies and competence of the rising youthful generation for the social yajna of the world order of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व प्रजा यांनी परस्पर वैरभाव सोडून एकमेकाशी मैत्री करावी व राष्ट्राच्या इतर नेत्यांनीही प्रजेबरोबर सहमतीने वागावे व प्रजेनेही उत्तम गुणांनी युक्त होऊन सहकार्य करावे. ॥६॥
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