ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
याभि॒: सोमो॒ मोद॑ते॒ हर्ष॑ते च कल्या॒णीभि॑र्युव॒तिभि॒र्न मर्य॑: । ता अ॑ध्वर्यो अ॒पो अच्छा॒ परे॑हि॒ यदा॑सि॒ञ्चा ओष॑धीभिः पुनीतात् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । सोमः॑ । मोद॑ते । हर्ष॑ते । च॒ । क॒ल्या॒णीभिः॑ । यु॒व॒तिऽभिः । न । मर्यः॑ । ताः । अ॒ध्व॒र्यो॒ इति॑ । अ॒पः । अच्छ॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । यत् । आ॒ऽसि॒ञ्चाः । ओष॑धीभिः । पु॒नी॒ता॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: सोमो मोदते हर्षते च कल्याणीभिर्युवतिभिर्न मर्य: । ता अध्वर्यो अपो अच्छा परेहि यदासिञ्चा ओषधीभिः पुनीतात् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः । सोमः । मोदते । हर्षते । च । कल्याणीभिः । युवतिऽभिः । न । मर्यः । ताः । अध्वर्यो इति । अपः । अच्छ । परा । इहि । यत् । आऽसिञ्चाः । ओषधीभिः । पुनीतात् ॥ १०.३०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(याभिः-सोमः-मोदते हर्षते च) जिन प्रजाओं के साथ नवीन राजा संसर्ग करता है-मेल करता है और प्रसन्नता को प्राप्त होता है (मर्यः-न युवतिभिः कल्याणीभिः) जैसे मनुष्य मिलने के स्वभाववाली तथा कल्याण साधनेवाली पारिवारिक स्त्रियों के साथ मेल और हर्ष को प्राप्त करता है (अध्वर्यो-ताः-अपः-अच्छ परा इहि) हे राजसूययज्ञ के याजक ! तू उन प्रजाओं को अभिमुख कर-लक्ष्यकर उन्हें प्राप्त हो (ओषधीभिः-आसिञ्चाः पुनीतात्) राजसूययज्ञ में राजा के अभिषिक्त हो जाने पर प्रजाओं को भी अवशिष्ट जल से अभिषिक्त कर अर्थात् प्रजा के प्रतिनिधि अधिकारीजनों को पवित्र कर और सत्यसंकल्प बनाकर अधिकारीपद के लिये प्रतिज्ञा करा ॥५॥
भावार्थ
राजा को चाहिये कि प्रजाओं के साथ समागम और हर्ष आनन्द को प्राप्त करे। ऋत्विक् जैसे राजा का राज्याभिषेक करे, वैसे प्रजा के प्रतिनिधि प्रमुखजनों को अधिकारपद पर नियुक्त करने ले लिये अभिषिक्त एवं प्रतिज्ञाबद्ध करे ॥५॥
विषय
मोद व हर्ष
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में 'आपः ' शब्द से 'सोम-कणों' का उल्लेख है। ये सोमकण वे हैं (याभिः) = जिनसे (सोमः) = सोमकणों का रक्षण करनेवाला और अतएव सौम्य स्वभाव पुरुष अथवा [स उमा] उमा, अर्थात् ब्रह्मविद्या से युक्त पुरुष (मोदते) = एक पूर्ण स्वास्थ के मौदिक सुख को प्राप्त करता है (च) = और (हर्षते) = अध्यात्म आनन्द का अनुभव करता है, उसी प्रकार अनुभव करता है (न) जैसे कि (मर्यः) = एक मनुष्य (कल्याणीभिः युवतिभिः) = मंगल स्वभाववाली युवतियों से । यदि घर में पत्नी, बहिन, ननद व भतीजी आदि सभी युवतियाँ प्रसन्न स्वभाव की तथा मुस्कराते हुए चेहरेवाली हों तो युवक पुरुष को प्रसन्नता का अनुभव होता है। इसी प्रकार सोम के रक्षण से एक आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होती है। (२) हे (अध्वर्यो) = अपने साथ अहिंसात्मक कर्मों को जोड़नेवाले पुरुष ! तू (ताः अपः) = उन रेत: कणों की (अच्छा) = ओर आनेवाला हो। सदा इन रेतः कणों का रक्षण कर। इस रक्षण के लिये ही (परा-इहि) = सदा विषयों से दूर होने का प्रयत्न कर। मन को विषयों में न लगने देना ही वह उपाय है जो कि मनुष्य को सोम के रक्षण के योग्य बनाता है। (३) यदा जब (आसिञ्चा) = तू इन रेतःकण रूप जलों से शरीर को समन्तात् सींच डालता है तो (ओषधीभिः पुनीतात्) = रोगमात्र की ओषधियों से ही अपने को पवित्र कर लेता है। इन वीर्यकणों में वह शक्ति है जो सब रोगकृमियों का संहार कर देती है, (ओष) = दहन को (धि) = आहित करती है एवं हमारा जीवन नीरोग हो जाता है, न केवल शरीर के दृष्टि से ही हम नीरोग हो जाते हैं, अपितु मानसदृष्टि से भी तभी तो वस्तुतः हमारे जीवन में मोद व हर्ष आ पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वीर्यरक्षण से हम शरीर व मन के दृष्टिकोण से स्वस्थ हों और यह स्वास्थ्य हमें मोद व हर्ष का अनुभव कराये ।
विषय
गृहस्थ के तुल्य राजा प्रजा का परस्पर प्रसन्नता का व्यवहार।
भावार्थ
(कल्याणीभिः युवतिभिः मर्यः न) कल्याणी, सुखदायक जवान धर्मपत्नी के साथ जिस प्रकार युवा पुरुष (मोदते हर्षते च) प्रसन्न होता और हर्ष अनुभव करता है, उसी प्रकार (याभिः) जिन (कल्याणीभिः) कल्याणकारिणी, आप्त प्रजाजनों के साथ (सोमः) उत्तम शासक (मोदते) आनन्द अनुभव करे और (हर्षते) हर्ष लाभ करे, हे (अध्वर्यो) प्रजापालन रूप कार्य के संचालक ! तू (ताः अपः) उन आप्त जनों को (अच्छ परा इहि) दूर से भी प्राप्त कर। (यत् आ-सिञ्चाः) जिस प्रकार जलों से वृक्ष को सेचन किया जाता है और वृक्ष बढ़ता है, उन ओषधियों वा जलों से वृक्ष पवित्र होजाता है उसी प्रकार तू भी (यत् आ-सिञ्चाः) जिन आप्त जनों से उस राजा की वृद्धि करेगा उनको तू भी (ओषधीभिः) ओषधिवत् विशेष तेज धारण करने वाली प्रजाओं द्वारा (पुनीतात्) पवित्र कर, स्वच्छ आचारवान् बना, वा अभिषेक कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा ॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(याभिः सोमः मोदते हर्षते च) याभिः प्रजाभिः सह सोमो राजा सङ्गच्छते “मुद संसर्गे” [चुरादि०] णिज्विधेरनित्यत्वात् तदभावः तथा हर्षमाप्नोति च (मर्यः न युवतिभिः कल्याणीभिः) यथा मनुष्यो मिश्रणस्वभाववतीभिः कल्याणसाधिकाभिः पारिवारिकस्त्रीभिः सह सहयोगं हर्षं च प्राप्नोति (अध्वर्योः ताः अपः अच्छ परेहि) हे राजसूययज्ञस्य याजक ऋत्विक् त्वं ताः प्रजाः-अभिमुखीकृत्याभिलक्ष्यप्राप्तो भव (ओषधीभिः-आसिञ्चाः पुनीतात्) राजसूययज्ञेऽभिषिक्ते राज्ञि प्रजा अपि खल्ववशिष्टाभिरद्भिः “आपो वा ओषधयः” [मै० २।५] समन्तात् सिञ्च प्रजात्वेन प्रजाप्रतिनिधिभूतान्-अधिकारिणो जनान्-एवं पवित्रीकुरु सत्यसङ्कल्पमयान् कुरु-अधिकारिपदे स्थापनाय प्रतिज्ञां कारयित्वा ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The liquids with which Soma, the ruling spirit, rejoices and feels exhilarated as men feel happy and exhilarated by noble youthful women, those exciting liquid energies, O high priest of yajna, find from far and near, and when you find them, then cleanse and strengthen the drinks and sanatives for health and joy.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने प्रजेबरोबर संगती करून आनंद प्राप्त करावा. ऋत्विक जसा राजाचा राज्याभिषेक करतो तसे प्रजेच्या प्रतिनिधीने प्रमुख लोकांना अधिकार पदावर नियुक्त करण्यासाठी अभिषिक्त व प्रतिज्ञाबद्ध करावे. ॥५॥
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