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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - आप अपान्नपाद्वा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एमा अ॑ग्मन्रे॒वती॑र्जी॒वध॑न्या॒ अध्व॑र्यवः सा॒दय॑ता सखायः । नि ब॒र्हिषि॑ धत्तन सोम्यासो॒ऽपां नप्त्रा॑ संविदा॒नास॑ एनाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒माः । अ॒ग्म॒न् । रे॒वतीः॑ । जी॒वऽध॑न्याः । अध्व॑र्यवः । सा॒दय॑त । स॒खा॒यः॒ । नि । ब॒र्हिषि॑ । ध॒त्त॒न॒ । सो॒म्या॒सः॒ । अ॒पाम् । नप्त्रा॑ । स॒म्ऽवि॒दा॒नासः॑ । ए॒नाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमा अग्मन्रेवतीर्जीवधन्या अध्वर्यवः सादयता सखायः । नि बर्हिषि धत्तन सोम्यासोऽपां नप्त्रा संविदानास एनाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इमाः । अग्मन् । रेवतीः । जीवऽधन्याः । अध्वर्यवः । सादयत । सखायः । नि । बर्हिषि । धत्तन । सोम्यासः । अपाम् । नप्त्रा । सम्ऽविदानासः । एनाः ॥ १०.३०.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इमाः-रेवतीः-जीवधन्याः-आ-अग्मन्) ये ऐश्वर्यवाली प्राणियों में पोषणरूप धन की प्रेरणा करनेवाली प्रजाएँ राजसूय यज्ञ में आती हैं (अध्वर्यवः सखायः-सादयत) हे राजसूययज्ञ के नेता विद्वानों ! उन्हें तुम सद्भाव से बैठाओ (बर्हिषि निधत्तन) तथा राष्ट्र के योग्य अधिकार में नियुक्त करो (सोम्यासः) हे सोम सम्पादन करनेवाले ऋत्विक् लोगो ! (अपां नप्त्रा संविदानासः-एनाः) प्रजाओं के पालन करनेवाले राजा द्वारा एक मत हुई प्रजाओं को मन्त्रणा में भाग दो ॥१४॥

    भावार्थ

    प्रजाएँ राष्ट्र में राष्ट्रिय जीवन को बल देनेवाली होती हैं। उनसे यथायोग्य सहयोग लेना और अवसर-अवसर पर मन्त्रणा करनी चाहिये ॥१४॥

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    विषय

    रेवतीः आपः

    पदार्थ

    [१] (इमा:) = ये रेतः कणों के रूप में स्थित जल (आ अग्मन्) = हमें सर्वथा प्राप्त हुए (रेवती:) = ये रयिवाले हैं, शरीर के सब कोशों को ये सम्पत्ति से परिपूर्ण करनेवाले हैं। (जीवधन्याः) = ये हमारे जीवन को धन्य बनानेवाले हैं, सब कमियों को दूर करके ये प्रीणित करनेवाले हैं । [२] इस प्रकार रयिवाले तथा प्रीणित करनेवाले इन रेतः कणों को हे (अध्वर्यवः) = अपने साथ हिंसारहित कर्मों के जोड़नेवाले (सखायः) = प्रभु की मित्रता को धारण करनेवाले लोगो ! (सादयता) = अपने शरीरों के अन्दर स्थापित करो। इन्हें नष्ट मत होने दो। [३] हे (सोम्यासः) = सोम का, वीर्य का सम्पादन करनेवालो! आप (अपांनप्त्रा) = इन रेतः कणों को नष्ट न होने देनेवाले उस प्रभु के साथ (संविदानास:) = संज्ञानवाले होते हुए, अर्थात् प्रातः - सायं उस प्रभु के चरणों में उपस्थित होनेवाले बनकर (एनाः) = इन रेतःकणों को (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय के होने पर (निधत्तन) = अन्दर शरीर में ही धारण करनेवाले बनो । रेतः कणों के रक्षण के लिये प्रभु का उपासन आवश्यक है। प्रभु के उपासन से हृदय वासनाशून्य बनता है और ऐसा होने पर ही रेतः कणों के रक्षण का सम्भव होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - रेतः कण ही शरीर के सब कोशों को रयि से पूर्ण करते हैं । इनके रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] यज्ञात्मक कर्मों में लगे रहें, [ख] प्रभु का उपासन करनेवाले बनें ।

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    विषय

    विद्वानों का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इमाः रेवतीः) ये उत्तम ऐश्वर्य से समृद्ध, (जीव-धन्याः) जीवित पुत्र, पति, पशु, आदि जीवों को धन समझने वाली, वा उनको पालन पोषण करने वाली, स्त्रियें (आ अग्मन्) आवें। हे (अध्वर्यः) यज्ञकर्त्ताजनो ! हे (सखायः) मित्रो ! (अपां नप्त्रा सं-विदानासः) आप्त दाराओं को अपने साथ बांधने वाले पति से संमन्त्रणा करती हुईं और (सोम्यासः) उत्तम सोम, पुरुष के योग्य (एनाः) उनको (बर्हिषि नि धत्तन) उत्तम आसन पर बिठाओ। (२) राष्ट्र में उत्तम शासक राज-सदस्य भी समृद्ध राजा के प्रिय प्रजाओं को उत्तम आसन पर बिठावें, उत्तम शासित राष्ट्र में रखें और उनको पुष्ट करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इमाः रेवतीः-जीवधन्याः-आ-अग्मन्) एताः श्रीमत्यः खलु जीवेषु धन्याः प्राणिषु पोषणधनाय हिताः “जीवधन्या जीवेषु धन्या धनाय हिताः” [ऋ० १।८०।४ दयानन्दः] प्रजाः खलु राजसूययज्ञमागच्छन्ति (अध्वर्यवः सखायः सादयत) हे राजसूययज्ञस्य नेतारो विद्वांसः ! यूयं ता उपवेशयत (बर्हिषि निधत्तन) राष्ट्रलोके नियोजयत “अयं लोको बर्हिः” [श० १।४।१।१४] (सोम्यासः) राज्यैश्वर्य-सम्पादिनोऽध्वर्यवः (अपां नप्त्रा संविदानासः-एनाः) यत एताः प्रजाः प्रजानां न पातयित्रा राज्ञा सहैकमत्यं गता यद्वा तेन सह मन्त्रणं कुर्वाणा वर्त्तन्ते तस्मात्ता उपवेशयत ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Friends, priests and yajakas, these waters, vibrant energies of nature and dynamic powers and personalities of humanity, all overflowing with life, fertility and generative potential, are come here. Give them an honourable place in yajna. They know, they are united with us, and they are blissful, and they never allow the waters of life to exhaust. Know them, seat them on the holy grass and create the beauties and joy of life for all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजा ही राष्ट्रात राष्ट्रीय जीवनाला बल देणारी असते. त्यांचा यथायोग्य सहयोग असला पाहिजे व वेळोवेळी विचार विनिमय केला पाहिजे. ॥१४॥

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