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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॒स्पति॑र्न॒: परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः । इन्द्र॑: पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो न॒: सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हस्पतिः॑ । नः॒ । परि॑ । पा॒तु॒ । प॒श्चात् । उ॒त । उत्ऽत॑रस्मात् । अध॑रात् । अ॒घ॒ऽयोः । इन्द्रः॑ । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त । म॒ध्य॒तः । नः॒ । सखा॑ । सखि॑ऽभ्यः । वरि॑ऽवः । कृ॒णो॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिर्न: परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः । इन्द्र: पुरस्तादुत मध्यतो न: सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पतिः । नः । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरस्मात् । अधरात् । अघऽयोः । इन्द्रः । पुरस्तात् । उत । मध्यतः । नः । सखा । सखिऽभ्यः । वरिऽवः । कृणोतु ॥ १०.४३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) वेदवाणी का स्वामी परमात्मा (अघायोः) हमारे प्रति पाप-अनिष्ट को चाहनेवाले से (नः पश्चात्-उत-उत्तरस्मात्) हमें पश्चिम की ओर से, उत्तर की ओर से (अधरात् परि पातु) और नीचे की ओर से बचावे (इन्द्रः) वही ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पुरस्तात्-उत मध्यतः) पूर्वदिशा की ओर से और मध्य दिशा की ओर से भी रक्षा करे (सखा नः सखिभ्यः-वरिवः कृणोतु) मित्ररूप परमात्मा हम मित्रों के लिए धन प्रदान करे ॥११॥

    भावार्थ

    किसी भी दिशा में वर्त्तमान अनिष्टकारी से परमात्मा रक्षा करता है, जब कि हम सखासमान गुण आचरण को कर लेते हैं ॥११॥

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    विषय

    प्रभु विश्वास

    पदार्थ

    प्रस्तुत दोनों मन्त्र ४२.१० तथा ४२.११ पर व्याख्यात हो चुके हैं। 'सत्पति' बनने के लिये गोदुग्ध व जौ का प्रयोग आवश्यक है और उस बृहस्पति प्रभु में विश्वास आवश्यक है । सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि हमारी मतियाँ प्रभु का आलिंगन करनेवाली बनें, [१] हमारा मन प्रभु प्रवण हो, [२] हमारी सुमति हो, न कि कुमति, [३] हमें आर्य-ज्योति प्राप्त हो, [४] सूर्यलोक का विजय करके हम ब्रह्मलोक को प्राप्त करें, [५] इस लोक में सोमरक्षण के द्वारा शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हों, [६] इस सोमरक्षण से तेजस्विता का संवर्धन करें, [७] 'सुन्वन्, जीरदानु, मनु व हविष्मान्' बनकर ज्योति को प्राप्त करें, [८] सत्पति बनें, [९] सत्पति बनने के लिये आवश्यक है कि हम 'स्वपति' हों-

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    विषय

    राजा उसकी सब ओर से रक्षा करे। राजा प्रजा का सख्य हो।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) बड़े भारी बल, राष्ट्र और वाणी का पालक (नः पश्चात् उत उत्तरस्मात् अधरात्) हमें पीछे से, ऊपर से और नीचे से वा उत्तर और दक्षिण से (अघायोः पातु) पापाचार करना चाहने वाले से बचावे । (इन्द्रः) शत्रुहन्ता, ऐश्वर्यवान् प्रभु (पुरस्तात् उत मध्यतः) आगे से और बीच में से भी (नः परि पातु) हमारी रक्षा करे। (सखा सखिभ्यः) वह सब का मित्र, सबको समान दृष्टि से देखने वाला, न्यायी ज्ञानी हम मित्रों के उपकारार्थ (वरिवः कृणोतु) उत्तम धन प्रदान करे। इति पञ्चविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) वेदवाण्याः स्वामी परमात्मा (अघायोः) पापकामिनोऽनिष्टेच्छुकात् (पश्चात्-उत उत्तरस्मात्-अधरात्-नः परिपातु) पश्चिमतोऽप्युत्तरतो दक्षिणतश्चास्मान् रक्षतु (इन्द्रः) स ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पुरस्तात्-उत मध्यतः) पूर्वदिक्तो मध्यतश्च रक्षतु (सखा नः सखिभ्यः-वरिवः कृणोतु) स एव सखिभूतः परमात्माऽस्मभ्यं सखिभूतेभ्यो धनप्रदानं करोतु “वरिवः धननाम” [निघ० २।१०] ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Brhaspati, lord of Infinity and the master of knowledge protect us against the violence of sin and sinners upfront, behind, above or below. May Indra, ruler and friend of humanity, create and lead us to the wealth of life for us and our friends, all at present and in our midst.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही दिशेत असलेल्या अनिष्टापासून परमात्मा रक्षण करतो. जेव्हा आम्ही मित्राप्रमाणे त्याच्या गुणांचे आचरण करतो. ॥११॥

    टिप्पणी

    या दोन मंत्रांची व्याख्या बेचाळिसाव्या सूक्तात यापूर्वीच केलेली आहे.

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