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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वि॒षू॒वृदिन्द्रो॒ अम॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते । तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो॑ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिण॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षु॒ऽवृत् । इन्द्रः॑ । अम॑तेः । उ॒त् । क्षु॒धः । सः । इत् । रा॒यः । म॒घऽवा॑ । वस्वः॑ । ई॒श॒ते॒ । तस्य॑ । इ॒मे । प्र॒व॒णे । स॒प्त । सिन्ध॑वः । वयः॑ । व॒र्ध॒न्ति॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । शु॒ष्मिणः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषूवृदिन्द्रो अमतेरुत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते । तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिण: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषुऽवृत् । इन्द्रः । अमतेः । उत् । क्षुधः । सः । इत् । रायः । मघऽवा । वस्वः । ईशते । तस्य । इमे । प्रवणे । सप्त । सिन्धवः । वयः । वर्धन्ति । वृषभस्य । शुष्मिणः ॥ १०.४३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः-इन्द्रः) वह परमात्मा (विषुवृत्) विषम अर्थात् कुटिलों को दबाता है, हटा देता है, वह (अमतेः-उत क्षुधः) अज्ञान और भोगेच्छा को भी निवृत्त करता है (मघवा-इत्-रायः-वस्वः-ईशते) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा बाह्यधन का और बसानेवाले आन्तरिक धन-आत्मबल का स्वामी है (तस्य वृषभस्य शुष्मिणः-इत्-प्रवणे) उस सुखवर्षक बलवान् परमात्मा के शासन में (इमे सप्त सिन्धवः) ये सर्पणशील प्राण या नदियाँ (वयः-वर्धन्ति) जीवन और अन्न को बढ़ाते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा कुटिलों पर कृपा नहीं करता। उनको किसी न किसी ढंग से दण्ड देता है। अज्ञान और बहुत भोगेच्छा को भी निवृत्त करता है। समस्त बाहरी और आन्तरिक धन का स्वामी है। उसी के शासन से नदियाँ प्रवाहित होती हुई अन्न को बढ़ाती हैं और उसी में प्राण प्रगति करते हुए जीवन को बढ़ाते हैं ॥३॥

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    विषय

    सुमति, नकि अमति

    पदार्थ

    [१] वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (अमतेः) = निन्दित बुद्धि का (विषूवृत्) = [विश्वग् वर्तकः] इधर उधर फेंक देनेवाला हो, हमारे से अमति को दूर करनेवाला हो । अमति नष्ट होकर, सुमति हमें प्राप्त हो । (उत) = और प्रभु हमारी (क्षुधः) = भूख के भी विषूवृत् हों, हमारी भूख का भी प्रतीकार करनेवाले हों । (स मघवा इत्) = वे सम्पूर्ण ऐश्वर्योंवाले प्रभु ही (वस्व रायः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले धन का (ईशते) = स्वामित्व करते हैं, प्रभु ही सब धनों के मालिक हैं । इन धनों को देकर प्रभु ने ही हमारी क्षुधा का प्रतीकार करना है । [२] क्षुधा के प्रतीकार के लिये साधनभूत अन्नों का उत्पादन भी उस प्रभु की व्यवस्था से होता है। (वृषभस्य) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (शुष्मिणः) = शक्तिशाली (तस्य) = उस प्रभु के ही (प्रवणे) = [srefnission] प्रशासन में (इमे) = ये (सप्त) = सर्पणशील [सप्त-सृप्त] अथवा प्रभु के प्रशासन को माननेवाली [सप् to obey] (सिन्धवः) = नदियाँ (वयः) = अन्न को (वर्धन्ति) = बढ़ाती हैं । प्रभु ने सूर्य किरणों द्वारा जल के वाष्पी भवन, व ऊपर आकर शीत प्रदेश में घनी भवन की व्यवस्था से वृष्टि का प्रबन्ध किया है। उसी से नदियों का प्रवाह होता है। पूर्व से पश्चिम में व उत्तर से दक्षिण में, सब दिशाओं में ये नदियाँ प्रभु के प्रशासन में ही बह रही हैं और विविध भूभागों को खींचती हुईं ये अन्न के उत्पादन का कारण बनती हैं। एवं प्रभु ने अन्नोत्पादन द्वारा हमारी क्षुधा का प्रतीकार किया है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारी कुमति को दूर करते हैं, क्षुधा के प्रतीकार के लिये अन्नोत्पादन की व्यवस्था करते हैं ।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य। उसके प्रजा के प्रति अन्नादि को समृद्ध करने और बल बढ़ाने का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) जिस प्रकार सूर्य जब (विषू-वृत्) विषुवत् वृत्तपर अतिक्रमण कर रहा होता है तब वह (मघवा) मघा नक्षत्र का योग करता हुआ (रायः वस्वः ईशते) अति अन्नप्रद वसु नक्षत्र का स्वामी होता है और (अमतेः उत क्षुधः) दारिद्र्य और क्षुधा, भूख, अकाल को वश करता है। अर्थात् अन्न उत्पन्न करता है। (इमे प्रवणे सप्त सिन्धवः) ये निम्न देश में बहने वाली जलधाराएं (तस्य इत् शुष्मिणः वृषभस्य वयः वर्धन्ति) उस ही बलशाली जलशोषक, वृष्टिकर्त्ता मेघ वा सूर्य के बल वा महिमा को बढ़ाते हैं। ठीक उसी प्रकार (वि-सु-वृत्) विविध उत्तम व्यवहार करने में कुशल, न्यायवर्त्ती, धर्मात्मा, (इन्द्रः) राजा (अमतेः) प्रजा के भीतर विद्यमान अज्ञान, दारिद्र्य और (क्षुधः) भूख, अकाल पर वश करे, इन को मिटाने का यत्न करें। क्योंकि (सः इत्) वह ही (रायः) प्रजाओं के देने योग्य (वस्वः) प्रजाओं को सुखपूर्वक बसाने वाले धन, अन्नादि और राष्ट्र में बसाने वाले प्रजाजन का भी (ईशते) सब प्रकार से स्वामी है। (अस्य इत् इमे) उसके ही ये (प्रवणे) शत्रु को खूब मारने वाले सैन्य बल में, शत्रु के नाश के निमित्त (सप्त सिन्धवः) सात वा वेग से दौड़ने वाले वेगवान् अश्व सैन्य हैं जो (वृषभस्य) बलवान् (शुष्मणः) शत्रुशोषक, बलशाली पुरुष के (वयः) जीवन और बल को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः इन्द्रः) स परमात्मा (विषुवृत्) विषमान् खल्वसरलान् वृणोति-आच्छादयति निवारयति वा सः ‘विषुरूपे विषमरूपे” [निरु० १२।२८] (अमतेः-उत क्षुधः) अज्ञानस्यापि चाशनायाश्च निवारकः (मघवा-इत्-रायः-वस्वः ईशते) स ऐश्वर्यवान् परमात्मा हि बाह्यधनस्य तथा वासयितुरात्मबलस्याध्यात्मैश्वर्यस्य चेष्टे स्वामित्वं करोति (वृषभस्य शुष्मिणः-तस्य इत् प्रवणे) तस्यैव सुखवर्षयितुर्बलवतः परमात्मनो निम्ने शासने (इमे सप्त सिन्धवः) एते सर्पणशीलाः प्राणा नद्यो वा “प्राणो वै सिन्धुश्छन्दः” [श० ८।५।२।४] (वयः-वर्धन्ति) जीवनमन्नं वा वर्धयन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of all power and glory, dynamic presence all round in the world, dispels hunger and ignorance, rules and dispenses wealth, power and peace of shelter and settlement. Indeed, under the rule of this mighty generous master, all these seven streams of nature, life and living energy flow on and evolve to perfection. (This is true of both the external world of nature under the law of the cosmic spirit and of the internal world of mind and pranic energy under the rule of the spirit within.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा कुटिल लोकांवर कृपा करत नाही. त्यांना कोणत्या ना कोणत्या प्रकारे दंड देतो. अज्ञान व अधिक भोगेच्छाही निवृत्त करतो. तो संपूर्ण बाह्य व आंतरिक धनाचा स्वामी आहे. त्याच्या शासनात नद्या प्रवाहित होतात व अन्नाची वृद्धी करतात व शरीरात प्राण प्रगती करत जीवन वाढवितात. ॥३॥

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