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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षद॑: । प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्व१॒॑र्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वयः॑ । न । वृ॒क्षम् । सु॒ऽप॒ला॒शम् । आ । अ॒स॒द॒न् । सोमा॑सः । इन्द्र॑म् । म॒न्दिनः॑ । च॒मू॒ऽसदः॑ । प्र । ए॒षा॒म् । अनी॑कम् । शव॑सा । दवि॑द्युतत् । वि॒दत् । स्वः॑ । मन॑वे । ज्योतिः॑ । आर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषद: । प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्व१र्मनवे ज्योतिरार्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयः । न । वृक्षम् । सुऽपलाशम् । आ । असदन् । सोमासः । इन्द्रम् । मन्दिनः । चमूऽसदः । प्र । एषाम् । अनीकम् । शवसा । दविद्युतत् । विदत् । स्वः । मनवे । ज्योतिः । आर्यम् ॥ १०.४३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वयः-न सुपलाशं वृक्षम्-आसदन्) पक्षी जैसे सुन्दर हरे-भरे पत्तोंवाले वृक्ष पर बैठते हैं, उसी भाँति (चमूषदः सोमासः-मन्दिनः-इन्द्रम्) अध्यात्मरस का आस्वादन करानेवाली समाधि में स्थित शान्त, स्तुति करनेवाले उपासक परमात्मा को आश्रित करते हैं (एषाम्-अनीकं शवसा प्र दविद्युतत्) इनका मुख आत्मबल अर्थात् आत्मतेज से प्रकाशित हो जाता है (मनवे-आर्यं स्वः-ज्योतिः-विदत्) मननशील के लिए श्रेष्ठ और सुखद ज्योति प्राप्त हो जाती है ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे पक्षी हरे-भरे सुन्दर पत्तोंवाले वृक्ष पर बैठ कर आनन्द लेते हैं, ऐसे स्तुति करनेवाले उपासक समाधिस्थ, शान्त हो परमात्मा के आश्रय में आनन्द लेते हैं। उनका मुख आत्मतेज से दीप्त हो जाता है और उन्हें श्रेष्ठ सुखद ज्ञानज्योति प्राप्त हो जाती है ॥४॥

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    विषय

    आर्यं ज्योतिः

    पदार्थ

    [१] (न) = जैसे (वयः) = पक्षी (सुपलाशम्) = उत्तम पत्तोंवाले (वृक्षम्) = वृक्ष पर (आसदन्) = बैठते हैं, उसी प्रकार (मन्दिनः) = तृप्ति व हर्ष को करनेवाले (चमूषदः) = शरीररूप पात्र में स्थित होनेवाले ['अर्वाग् विलश्चमस ऊर्ध्वमूलः 'यहाँ शरीर को पात्र ही कहा गया है जो ऊपर मूल व नीचे मुखवाला है] (सोमासः) = सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष में स्थित होते हैं । 'सुपलाश वृक्ष' का संकेत यह है कि शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर यह शरीर वृक्ष भी 'सुपलाश' बनता है। इस शरीर का अंग-प्रत्यंग सुन्दर होकर शरीर शोभान्वित होता है । [२] (एषाम्) = इन सोमकणों का (अनीकम्) = [splendons brilhimce] तेज (शवसा) = गति के द्वारा (प्रदविद्युतद्) = खूब ही चमकता है । सोमकणों के रक्षण से मनुष्य तेजस्वी बनता है और वह क्रियाशील होता है। [३] यह सोम मनवे विचारशील पुरुष के लिये (स्वः) = [nediamce] प्रकाश को अथवा स्वर्ग को, सुख को तथा (आर्यं ज्योतिः) = प्राप्त करने योग्य श्रेष्ठ ज्ञान की ज्योति को (विदत्) = प्राप्त कराता है । सोम रक्षण से बुद्धि तीव्र होती है और ज्ञान की ज्योति प्राप्त होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम 'बल क्रियाशीलता, स्वर्गसुख व उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति' को प्राप्त कराता है।

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    विषय

    उत्तम २ नायकों का समर्थ पुरुष को आश्रय रूप से अपनाना।

    भावार्थ

    (वयः सुपलाशम् वृक्षं न) जिस प्रकार पक्षिगण उत्तम पत्तों से हरे भरे वृक्ष का आश्रय लेते हैं उसी प्रकार (मन्दिनः) उत्तम रीति से स्तुति करने और उसके साथ हर्ष अनुभव करने और उसे हर्षित करने वाले, (चमू-सदः सोमासः) बड़ी २ सेनाओं पर अध्यक्ष रूप से विराजने वाले अभिषिक्त नायकगण (वयः) शत्रुनाशक, तेजस्वी, वेग से जाने में समर्थ होकर उस (वृक्षं) भूमि को वरण कर, अपनाकर विराजने वाले (सु-पलाशम्) शुभ गमन-साधन रथादि पर विराजने वा उत्तम भोग्यों को प्राप्त करने वाले, (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान् स्वामी को (आ असदन्) प्राप्त कर चारों ओर उसके समीप विराजते, उसका आश्रय लेते हैं। (एषाम् अनीकं) उनका मुख और सैन्य (शवसा) बलसे खूब (दविद्युतत्) चमकता है। और (मनवे) विचारपूर्वक शासन कार्य करने वाले, राष्ट्रस्तम्भक, वा प्रबन्धक स्वामी को (आर्यम्) सर्वश्रेष्ठ, स्वामिजनोचित (ज्योतिः) तेज, प्रकाश, ज्ञान और (स्वः) सुख (विदत्) प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वयः न सुपलाशं वृक्षम्-आसदन्) पक्षिणो यथा शोभन-पर्णयुक्तं वृक्षमासीदन्ति, तद्वत् (चमूषदः सोमासः-मन्दिनः-इन्द्रम्) चमन्ति खल्वध्यात्मरसं  यस्मिन् समाधौ तत्र स्थिताः शान्ताः स्तोतारः “मदि स्तुतिमोद…” [भ्वादि०] उपासकाः परमात्मानमासीदन्ति (एषाम्-अनीकं शवसा प्रदविद्युतत्) एषां मुखमात्मबलेन तेजसा प्रकाशयति (मनवे-आर्यं स्वः-ज्योतिः-विदत्) मननशीलाय श्रेष्ठं सुखप्रदं ज्ञानज्योतिः प्राप्नोति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as birds take to the tree of rich foliage for rest and replenishment of life energy, so the soma cheer and energy of the sevenfold fluent streams of cosmic and individual systems take to Indra, the soul, for life and peace and joy. Then the expressive face of these shines with the splendour of Indra, and thus the living light of divinity descends in showers for the bliss of man.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे पक्षी हिरव्यागार सुंदर पानावर बसून आनंद घेतात. तसे स्तुती करणारे प्रशंसक उपासक समाधिस्थ, शांत होऊन परमात्म्याच्या आश्रयात आनंद घेतात. त्यांचे मुख आत्मतेजाने दीप्त होते-प्रभावशाली बनते व त्यांना श्रेष्ठ सुखद ज्ञानज्योती प्राप्त होते. ॥४॥

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