ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 9
उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत् । वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचि॒: स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । जा॒य॒ता॒म् । प॒र॒शुः । ज्योति॑षा । स॒ह । भू॒याः । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽदुघा॑ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् । वि । रो॒च॒ता॒म् । अ॒रु॒षः । भा॒नुना॑ । शुचिः॑ । स्वः॒ । ण । शु॒क्रम् । शु॒शु॒ची॒त॒ । सत्ऽप॑तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत् । वि रोचतामरुषो भानुना शुचि: स्व१र्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । जायताम् । परशुः । ज्योतिषा । सह । भूयाः । ऋतस्य । सुऽदुघा । पुराणऽवत् । वि । रोचताम् । अरुषः । भानुना । शुचिः । स्वः । ण । शुक्रम् । शुशुचीत । सत्ऽपतिः ॥ १०.४३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतस्य) अमृतरूप परमात्मा का (परशुः) उपासक के शत्रुओं को हिंसित करनेवाला गुण (ज्योतिषा सह) अपने तेज के साथ है (सुदुघा पुराणवत्) सुदोहन-सुखदोहनवाली कृपा पूर्ववत् (भूयाः) होवे (अरुषः-भानुना रोचताम्) सब ओर से प्रकाशमान परमात्मा अपने प्रकाश से हमारे अन्दर प्रकाशित हो (सत्पतिः-स्वः-न शुचिः-शुक्रं शुशुचीत) वह सत्पुरुषों का पालक सूर्य के समान अपने शुभ्र तेज को बहुत प्रकाशित करे ॥९॥
भावार्थ
परमात्मा अपने उपासकों के कामादि शत्रुओं को अपने तेज से नष्ट करता है। दूध देनेवाली गौ की भाँति उसकी कृपा अमृतपान कराती है और वह हमारे अन्दर अपने तेजस्वरूप का दर्शन भी कराता है ॥९॥
विषय
[कैसा बनें ?] = सत्पति:
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार सोम का रक्षण करके यह पुरुष (ज्योतिषा सह) = ज्ञान की ज्योति के साथ (परशुः) = वासना वृक्ष के लिये कुठर के समान (उज्जायताम्) = हो जाए । इस पुरुष में ज्योति हो और वासना को नष्ट करके यह शक्तिशाली हो । [२] यह (प्रराणवत्) = अपने कुल में पूर्व पुरुषों की तरह (ऋतस्य) = ऋत का (सुदुघा) = उत्तम दोहन करनेवाला (भूयाः) = हो । 'ऋत' वेदवाणी है, जो सत्यज्ञान की प्रकाशिका है, उस ऋत का यह अपने में पूरण करनेवाला बने [दुह् प्रपूरणे] । यह बात कुलधर्म के रूप में इसके कुल में चलती चले। [३] इस प्रकार इस सत्य ज्ञान की वाणी का दोहन करते हुए यह (विरोचताम्) = विशेषरूप से चमके। (अ-रुषः) = क्रोध से तमतमानेवाला न हो । (भानुना शुचिः) = ज्ञान की दीप्ति के द्वारा यह पवित्र हो । (स्वः न) = उस देदीप्यमान सूर्य की तरह (शुक्रम्) = दीप्ति से (शुशुचीत्) = चमके और यह (सत्पतिः) = उत्तम कर्मों को उत्तम भावनाओं से और उत्तम प्रकार से करनेवाला हो कर्म भी उत्तम हो, भावना भी उत्तम हो और उस कर्म को करने का तरीका भी उत्तम हो। इस प्रकार इन तीनों के सत् होने पर यह 'सत्पति' कहाता है ।
भावार्थ
भावार्थ-वासनाओं को विनष्ट करने की शक्ति व ज्ञान को हम अपनाएँ, वेदज्ञान का दोहन करें, ज्ञान से दीप्त हों और सत्कर्मों को करनेवाले हों ।
विषय
राजा स्वयं दुधार गौ के समान प्रजा को ऐश्वर्य दे। तेजस्वी निष्क्रोध होकर भी चमके। हृदय में शुद्ध, तेजस्वी उत्तम आचरण वाला हो।
भावार्थ
(परशुः) दूसरे शत्रुओं का नाश करने वाला, इन्द्र राजा, (ज्योतिषा सह) तेज के साथ (उत् जायताम्) उन्नत पद को प्राप्त हो। हे राजन् ! स्वामिन् ! तू (सु-दुधा) उत्तम दुग्ध देने वाली, गौ के समान और (पुराणवत्) वृद्ध जन के समान, सब प्रजा का पालक, और ज्ञानप्रद होकर (ऋतस्य) धन, अन्न, ज्ञान का (सु-दुघाः) उत्तम रीति से देने वाला (भूयाः) हो। (अरुषः) स्वयं तेजस्वी और निष्क्रोध होकर (भानुना वि रोचताम्) तेज से विविध प्रकार से चमके और सब को प्रिय मालूम हो। वा (शुचिः) शुद्ध, कान्तिमान्, काम, अधर्म आदि सम्बन्ध में शुद्ध भाव वाला होकर (स्वः न शुक्रं) स्वच्छ प्रकाश को सूर्य के समान (सत्पतिः) उत्तम पालक होकर (शुक्रं शुशुचीत) शुद्ध तेज से प्रकाश करे, और (शुक्रं = शुक्लं) शुद्ध कर्म से आत्मा को पवित्र करे। और प्रजार्थ (शुक्रं) उत्तम जल अन्न प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतस्य) अमृतरूपस्य परमात्मनः “ऋतममृतमित्याह” [जै० २।१६०] (परशुः) उपासकस्य परान् शत्रून् शृणाति हिनस्ति येन सः “आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च-उः” [उणादि० १।३३] (ज्योतिषा सह) स्वतेजसा सहास्ति (सुदुघा पुराणवत्) सुदोहनरूपा सुखदोग्ध्री पूर्ववत्-शाश्वतिकी (भूयाः) भूयात् “पुरुष-व्यत्ययः” (अरुषः-भानुना रोचताम्) समन्तात् प्रकाशमानः स परमात्मा स्वेन प्रकाशेनास्मासु प्रकाशताम् (सत्पतिः स्वः न शुचिः शुक्रं शुशुचीत) स सतां पालकः सूर्य इव शुभ्रं तेजो भृशं प्रकाशयेत् ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the thunderbolt of power and justice arise, let the voice of truth and law divine be generous, creative and fruitful as ever before, let the bright sun rise with its immaculate light and glory, may the lord protector and promoter of the good reveal the light and power of divinity as the bliss of heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या उपासकांचे काम इत्यादी शत्रू आपल्या तेजाने नष्ट करतो. दूध देणाऱ्या गायीप्रमाणे त्याची कृपा अमृतपान करविते. तो आमच्यात त्याच्या तेजस्वरूपाचे दर्शनही घडवितो. ॥९॥
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