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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय । राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । घ॒ । त्व॒द्रिक् । अप॑ । वे॒ति॒ । मे॒ । मनः॑ । त्वे इति॑ । इत् । काम॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । शि॒श्र॒य॒ । राजा॑ऽइव । द॒स्म॒ । नि । स॒दः॒ । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । अ॒स्मिन् । सु । सोमे॑ । अ॒व॒ऽपान॑म् । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय । राजेव दस्म नि षदोऽधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेऽवपानमस्तु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ । त्वद्रिक् । अप । वेति । मे । मनः । त्वे इति । इत् । कामम् । पुरुऽहूत । शिश्रय । राजाऽइव । दस्म । नि । सदः । अधि । बर्हिषि । अस्मिन् । सु । सोमे । अवऽपानम् । अस्तु । ते ॥ १०.४३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पुरुहूत) हे बहुत प्रकार से बुलाने योग्य राजन् ! (मे मनः- त्वद्रिक्-न घ अप वेति) मेरा मन तेरे में लगकर अलग नहीं होता है (त्वे-इत् कामं शिश्रय) तेरे अन्दर ही कामना को आश्रय देता हूँ (दस्म) हे दर्शनीय परमात्मन् ! (राजा-इव बर्हिषि निषदः) राजा की भाँति तू मेरे हृदयावकाश-हृदयासन पर विराजमान हो (अस्मिन् सोमे सु-अवपानम्-अस्तु) इस उपासनारस में तेरा सुन्दर तुच्छपान हो ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा में मन को ऐसा लगाना चाहिए कि उसी के अन्दर सब इच्छाएँ पूरी हो सकें। मन ठीक परमात्मा में लग जाने पर इधर-उधर भटकना छोड़ देता है। उपासक परमात्मा को अपने हृदय में तब साक्षात् कर लेता है ॥२॥

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    विषय

    प्रभु-प्रवण-मन

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (त्वद्रिग्) = [त्याग् अञ्चति] आपकी ओर जानेवाला (मे मनः) = मेरा मन (घा) = निश्चय से (न अपवेति) = दूर नहीं जाता है। एक बार मन प्रभु की ओर गया तो वह वहाँ उलझ ही जाता है, न उस प्रभु के ओर-छोर को वह मन देख पाता है और न वहाँ से हटता है। (ते इत्) = आप में ही (कामम्) = अपनी अभिलाषा को (शिश्रय) = मैं स्थापित करता हूँ। मुझे आपकी प्राप्ति की ही प्रबल कामना है। [२] (दस्म) = हे सब दुःखों के विनाशक प्रभो ! आप (बर्हिषि) = मेरे वासनाशून्य हृदय में (राजा इव) = राजा की तरह (अधिनिषदः) = निषण्ण होइये । आपकी प्रेरणा के अनुसार ही मेरा जीवन चले, आप मेरे जीवन को शासित करनेवाले हों । आपके द्वारा ही मेरे जीवन की प्रत्येक क्रिया व्यवस्थित हो [राज् to regnlete ] । आप ही हृदय में स्थित होकर उसे प्रकाश से दीप्त करनेवाले हों [राजू दीप्तौ] । आपके प्रकाश में मैं अपने कर्त्तव्य कर्मों को करता हुआ भटकूँ नहीं। [३] हे प्रभो ! (अस्मिन्) = इस सोमे शरीर में उत्पन्न सोम शक्ति के विषय में (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये अवपानं अस्तु पुनः शरीर में ही पी लेना, रुधिर में उसका फिर से व्याप्त कर देना हो। इस सोम को शरीर में ही व्याप्त कर देनेवाले बनें। शरीर में इसकी उत्पत्ति हुई है, यह फिर से वहीं व्याप्त हो जाए। इस प्रकार इसके व्यापन से ही मेरा शरीर स्वस्थ होगा, मन निर्मल होगा और बुद्धि तीव्र होकर आपके दर्शन योग्य बनेगी। आपकी प्राप्ति के लिये इस सोम का रक्षण आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मेरा मन प्रभु में लीन हो जाए, हृदयस्थ प्रभु मेरे राजा हों, सोमरक्षण के द्वारा सूक्ष्म बनी हुई हुई बुद्धि प्रभु दर्शन का साधन बने।

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    विषय

    राजावत् प्रभु की स्तुति। प्रभु में मन का अनुराग।

    भावार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुत मनुष्यों से पुकारे गये स्वामिन् ! प्रभो ! (त्वद्रिग्) तेरे प्रति लगा हुआ (मे मनः) मेरा मन (न घ अप वेति) अब तुझ से दूर नहीं जाता। प्रत्युत्त (वे इत् कामं शिश्रय) तुझ में ही मैं अपनी अभिलाषा को स्थापित करता हूँ। (राजा इव बर्हिषि) राजा जिस प्रकार आसन वा वृद्धियुक्त वा प्रजा पर विराजता है, उसी प्रकार हे (दस्म) दर्शनीय, दुष्टों वा दुःखों के नाशक ! तू (अस्मिन् बर्हिषि राजा, इव नि षदः) इस लोक-समूह वा यज्ञ में राजा के तुल्य अधिष्ठित हो। (अस्मिन् सोमे) इस उत्पन्न जगत् में (ते सु अवपानं अस्तु) तेरा ही सर्वश्रेष्ठ परिपालन कार्य हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पुरुहूत) हे बहुप्रकारेण ह्वातव्य राजन् ! (मे मनः त्वद्रिक् न घ-अपवेति) मम मनः खलु त्वयि सम्पृक्तम् ‘रिच सम्पर्चने’ [चुरादि०] ‘ततः क्विप्’ न हि पृथग्भवति (त्वे-इत् कामं शिश्रय) त्वयि हि सर्वमभिलाषं स्थापयामि (दस्म) हे दर्शनीय परमात्मन् ! (राजा-इव बर्हिषि निषदः) राजा यथा तथाभूतस्त्वं हृदयावकाशे-हृदयासने निषीद (अस्मिन् सोमे सु-अवपानम्-अस्तु) अस्मिन्-उपासनारसे तव शोभनं तुच्छपानं भवतु ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord universally invoked and celebrated, may my mind and soul having surrendered its love and ambition to you, never go astray from the presence such as yours. O lord beatific and glorious, you abide on my vedi and in my heart as the sovereign ruling presence. May your divine love, joy and protection ever abide in this mind and soul and bless it with peace and joy in your presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्यात असे मन लावले पाहिजे, की त्याच्यातच सर्व इच्छा पूर्ण होऊ शकतील. मन परमात्म्यात लागल्यास मनुष्य इकडे तिकडे भटकणे सोडून देतो. उपासक परमात्म्याला आपल्या हृदयात साक्षात करतो. ॥२॥

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