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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त् । न तत्ते॑ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं॑ शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒तम् । न । श्व॒ऽघ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । देव॑ने । स॒म्ऽवर्ग॑म् । यत् । म॒घऽवा॑ । सूर्य॑म् । जय॑त् । न । तत् । ते॒ । अ॒न्यः । अनु॑ । वी॒र्य॑म् । श॒क॒त् । न । पु॒रा॒णः । म॒घ॒ऽव॒न् । न । उ॒त । नूत॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्गं यन्मघवा सूर्यं जयत् । न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृतम् । न । श्वऽघ्नी । वि । चिनोति । देवने । सम्ऽवर्गम् । यत् । मघऽवा । सूर्यम् । जयत् । न । तत् । ते । अन्यः । अनु । वीर्यम् । शकत् । न । पुराणः । मघऽवन् । न । उत । नूतनः ॥ १०.४३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (श्वघ्नी कृतं न वि चिनोति) भेड़िया अपने प्रहार किये हुए-मारे हुए प्राणी को जैसे स्वाधीन करता है, (यत् मघवा देवने संवर्गं सूर्यं जयत्) वैसे ही ऐश्वर्यवान् परमात्मा प्रकाश करने के लिए प्रकाश को छोड़नेवाले-बिखेरनेवाले सूर्य को स्वाधीन करता है (तत्-ते-अन्यः अनुवीर्यं शकत्) तदनन्तर ही वह तुझसे भिन्न सूर्य तेरे अनुकूल वीर्य तेज करने में समर्थ होता है (मघवन्) हे परमात्मन् ! (न पुराणः-न-उत-नूतनः) वह सूर्य न तेरे जैसा पूर्ववर्ती है और न अन्य वस्तुओं जैसा नवीन है-पश्चाद्वर्ती है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा के अधीन बड़े-बड़े शक्तिशाली सूर्य जैसे पिण्ड हैं। जो सूर्य ब्रह्माण्ड में प्रकाश फेंकता है, वह परमात्मा के अधीन होकर ही फेंकता है। सूर्य शाश्वतिक नहीं है, न अन्य जड़ वस्तुओं जैसा अर्वाचीन है, क्योंकि उसके प्रकाश से ही वनस्पति आदि जीवन धारण करती हैं ॥५॥

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    विषय

    सूर्यलोक-विजय

    पदार्थ

    [१] (न) = जैसे (श्वघ्नी) = कल की परवाह न करनेवाला जुवारी देवने जुए की क्रीड़ा में (कृतम्) = उत्पन्न किये हुए धन को (विचिनोति) = बखेर देता है इसी प्रकार (यत्) = जब (मघवा) = ऐश्वर्य- सम्पन्न पुरुष (संवर्गम्) = [सम्यग् वर्जवित्वा] धनों का यज्ञों में सम्यक् विनियोग करके (सूर्य जयत्) = सूर्यलोक को जीतता है, अर्थात् 'सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा' इस वाक्य के अनुसार सूर्य द्वार से ब्रह्मलोक में पहुँचता है, तो (ते) = तेरे (तत्वीर्यम्) = उस पराक्रम के कार्य को (अन्यः) = कोई दूसरा (न अनुशकत्) = करने में समर्थ नहीं होता । हे (मघवन्) = [मघ- ऐश्वर्य, मघ-मख ] ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले पुरुष (न पुराणः न उत नूतन:) = आजतक कोई पुराण व्यक्ति इस पराक्रम को कर सका नांही कोई भविष्य में नूतन पुरुष कर सकेगा। यह तेरा ब्रह्मलोक विजयरूपी कार्य अद्वितीय है । [२] यहाँ श्वघ्नी की उपमा हीनोपमा है, वह केवल उदारतापूर्वक धनों का यज्ञों में विनियोग करने का संकेत कर रही है। 'संवर्ग' शब्द धनों के यज्ञों में सम्यग् विनियोग का प्रतिपादन करता है । विलास में धन का व्यय 'संवर्ग' नहीं है । यह यज्ञ की क्रिया पुरुष को सूर्य-द्वार से ब्रह्मलोक में ले जानेवाली होती है। यह इस मघवा मनुष्य की अनुपम विजय होती है इसी बात को इस वाक्य विन्यास से प्रकट करते हैं कि ऐसी विजय न तो किसी ने की और नांही कोई करेगा। यह ब्रह्मलोक की विजय अनुपम है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-धनों का यज्ञों में विनियोग करते हुए हम सूर्यलोक का विजय करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    द्यूतकार के समान प्रजा को कृतकर्मा कुशल पुरुषों के संग्रह का उपदेश। जिससे वह सदा बलशाली बना रहे।

    भावार्थ

    (श्वघ्नी देवने कृतं न) दूसरों के धनों को बाज़ी से मार लेने वाला कुशल द्यूतकार जिस प्रकार खेलने के समय ‘कृत’ नाम अक्ष को ही प्राप्त करता है उसी प्रकार (मघवा) उत्तम ऐश्वर्यवान् राजा (श्वघ्नी) शत्रु के ऐश्वर्यों को लूटने में समर्थ होकर (देवने) विजयकाल में (सं-वर्गं) उत्तम वर्ग के, उत्तम श्रेणी के, वा शत्रु को वर्जन करने में समर्थ (कृतं) कार्य करने में कुशल, अनुशिष्ट, कृतकर्मा, (सूर्यं) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को (विचिनोति) विशेष रूप से संग्रह करता है और (जयत्) इसके द्वारा जय लाभ करता है (तत्) उस समय हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! हे राजन् (ते अन्यः) तेरे से दूसरा कोई (ते वीर्यं न अनु शकत्) तेरे बल वीर्य का मुकाबला नहीं कर सकता। (न पुराणः उत न नूतनः) ऐसा न कोई पुराना और न कोई नया ही होना सम्भव है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (श्वघ्नी कृतं न विचिनोति) श्वहन्ता वृकः कृतं प्रहृतं यथा स्वाधीनं करोति (यत्-मघवा देवने संवर्गं सूर्यं जयत्) यत्-यथा तथा ऐश्वर्यवान् परमात्मा प्रकाशस्य वर्जयितारं प्रसारयितारं प्रकाशकरणे सूर्यमभिभवति-स्वाधीनी करोति “जि-अभिभवे” [भ्वादि०] (तत्-ते अन्यः-अनुवीर्यं शकत्) यथा तव वीर्यमनुकर्त्तुं शक्नोति (मघवन्) हे परमात्मन् ! (न पुराणः-न-उत नूतनः) स एष सूर्यो न पूर्वकालीनो नावरकालीनः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as a player in the game casts the die and wins and piles up his gains, so does Indra, lord omnipotent and omnificent, in this pleasure garden of the dynamics of existence win over the sun and the rain bearing cloud. O lord almighty, no one else can possibly equal your might, no one old or new.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या अधीन मोठमोठे शक्तियुक्त सूर्यासारखे पिंड असतात. जो सूर्य ब्रह्मांडात प्रकाश फेकतो तो परमात्म्याच्या अधीन होऊनच फेकतो. सूर्य शाश्वतिक नाही किंवा इतर जड वस्तूप्रमाणे अर्वाचीन नाही. कारण त्याच्या प्रकाशानेच वनस्पती इत्यादी जीवन धारण करतात. ॥५॥

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