ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 8
वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रज॒स्स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः । स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । न । क्रु॒द्धः । प॒त॒य॒त् । रजः॑ऽसु । आ । यः । अ॒र्यऽप॑त्नीः । अकृ॑णोत् । इ॒माः । अ॒पः । सः । सु॒न्व॒ते । म॒घऽवा॑ । जी॒रऽदा॑नवे । अवि॑न्दत् । ज्योतिः॑ । मन॑वे । ह॒विष्म॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा न क्रुद्धः पतयद्रजस्स्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः । स सुन्वते मघवा जीरदानवेऽविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । न । क्रुद्धः । पतयत् । रजःऽसु । आ । यः । अर्यऽपत्नीः । अकृणोत् । इमाः । अपः । सः । सुन्वते । मघऽवा । जीरऽदानवे । अविन्दत् । ज्योतिः । मनवे । हविष्मते ॥ १०.४३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(क्रुद्धः-वृषा न रजःसु पतयत्) बल से बढ़ा हुआ वृषभ जैसे धूलिकणों में गिरता है-बल से धूलि को कुरेदता है, उसी भाँति (यः-इमाः-अपः-अर्यपत्नीः-आ अकृणोत्) जो इन प्रापणशील उपासक आप्तजनों को, अपनी पालन करने योग्य प्रजाओं को स्वीकार करता है-अपनाता है, उनके विरोधी कामादि शत्रुओं पर प्रहार करता है (सः-मघवा) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा (हविष्मते) आत्मवान् (मनवे) मननशील (सुन्वते) उपासनारस निष्पादन करनेवाले (जीरदानवे) जीवनदाता के लिए (ज्योतिः-अविन्दत्) स्वज्योति-अपने स्वरूप को प्राप्त करता है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा अपने उपासकों को अपनाता है, उनके अन्दर से उनके कामादि शत्रुओं को ऐसे उखाड़ फेंकता है, जैसे बलवान् वृषभ पृथिवीस्तर से धूलिकणों को उखाड़ फेंकता है। उसका स्वभाव है कि आत्मसमर्पी उपासनारस सम्पादन करनेवाले, अन्यों को जीवन देनेवाले के लिए अपनी ज्योति-अपने स्वरूप को प्राप्त कराता है ॥८॥
विषय
'सुन्वत्- जीरदानु- मनु- हविष्मान् '
पदार्थ
[१] (यः) = जो भी पुरुष (इमाः अपः) = इन सोमकणों का (अर्य- पत्नी: अकृणोत्) = जितेन्द्रिय- स्वामी - पुरुष की पत्नी के रूप में बनाता है, वह (क्रुद्धः वृषा न) = एक क्रुद्ध शक्तिशाली वृषभ की तरह (रजः सु) = इन लोकों में, अथवा हृदयान्तरिक्ष में (आपतयत्) = समन्तात् शत्रुओं का नाश करता है । 'आप: रेतो भूत्वा' इस वाक्य के अनुसार 'आपः ' यहाँ रेतः कणों का वाचक है । ये रेतः कण जितेन्द्रिय पुरुष में सुरक्षित होते हैं और उसका पालन करते हैं । पत्नी जैसे पति की पूरक होती है, उसी प्रकार ये रेतःकण पुरुष के पूरक होते हैं, उसकी न्यूनताओं को दूर करते हैं । इन सोमकणों से शक्तिशाली बनकर यह वासनाओं को इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे क्रुद्ध वृषा विरोधी को नष्ट करनेवाला होता है। [२] ऐसा होने पर (स मघवा) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुन्वते) = इस सोम सम्पादन करनेवाले पुरुष के लिये, (जीरदानवे) = [जीरं - क्षिप्रं दाप् लवने] शीघ्रता से शत्रुओं का लवना करनेवाले के लिये, (मनवे) = विचारशील व (हविष्मते) = हविवाले के लिये, सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले के लिये (ज्योतिः अविन्दत्) = प्रकाश को प्राप्त कराते हैं। 'सुन्वन्- जीरदानु- मनु व हविष्मान्' को ही ज्योति प्राप्त होती है । इन सब बातों का मूल यही है कि हम जितेन्द्रिय बनकर सोमकणों को अपना पूरक बनाएँ। इन सोमकणों के रक्षण से शरीर के रोगों व मन की मलिनताओं को दूर करने का प्रयत्न करें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनें, सोमरक्षण के द्वारा न्यूनताओं को दूर करें, सोम का सम्पादन व वासनाओं का विलयन करते हुए ज्योति को प्राप्त करें ।
विषय
क्रुद्ध सांड के समान प्रजाओं वा शत्रुओं के राजा का उग्र रूप। उसका शासन। सेनाओं और प्रजाओं का जल का सा स्वभाव। राजा मनुष्यमात्र के हित के लिये पराक्रम धारण करे।
भावार्थ
(रजःसु क्रुद्धः वृषा न) मट्टी के ढेरों पर जिस प्रकार क्रुद्ध सांड (पतयत्) वेग से पड़ता है और (रजःसु क्रुद्धः वृषण न) रजोधर्मयुक्त गौओं के निमित्त साभिलाष सांड जिस प्रकार प्रतिद्वन्द्वी पर क्रुद्ध होकर पड़ता और विजयी हो उनके बीच पतिवत् आचरण करता है, उसी प्रकार (मघवा) नाना उत्तम धनों का स्वामी (वृषा) बलवान् राजा (क्रुद्धः) शत्रुओं के प्रति क्रोधयुक्त होकर ही (रजःसु) ऐश्वर्ययुक्त प्रजाजनों में (पतयत्) उनका पालक स्वामी होकर, उन पर शासन करे । वह (इमाः अपः) इन प्राप्त, जल-स्वभाव की, निम्न भाव से जानने वा विनय से झुकने वाली, प्रजाओं वा सेनाओं को (अर्यपत्नीः) स्वामी की पत्नियों के समान स्वामी द्वारा पालन योग्य एवं स्वामी के पालकवत् (अकृणोत्) बना लेवे। (सः) वह (सुन्वते) ऐश्वर्य उत्पन्न करने वाले, (जीर-दानवे) सब को प्राणदायक अन्न देने वाले (हविष्मते) अन्न के स्वामिरूप, (मनवे) कृषक आदि मनुष्य वर्ग के लिये (ज्योतिः अविन्दत्) तेज, पराक्रम, और ज्ञान-प्रकाश प्राप्त करे और करावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(क्रुद्धः-वृषा न रजःसु पतयत्) बलेन संवृद्धो वृषभो यथा धूलिषु मृत्कणेषु पतति, तद्वत् (यः-इमाः अपः अर्यपत्नीः आकृणोत्) य आप्तान् मनुष्यान् प्रापण-शीलानुपासकान् “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] अर्यस्य स्वस्य पालयितव्याः प्रजाः स्वीकरोति तस्मात्तद्विरोधिकामादिशत्रुषु पतति ताडयति, अत एव (सः मघवा) स ऐश्वर्यवान् परमात्मा (हविष्मते) आत्मवते “आत्मा वै हविः” [काठ० ८।५] (मनवे) मननकर्त्रे (सुन्वते) उपासनारसं निष्पादयते (जीरदानवे) जीवनदात्रे (ज्योतिः अविन्दत्) स्वज्योतिःस्वरूपं प्रापयति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as the swelling cloud causes the vapours of water in the skies to be released of itself and lets these showers of rain fall upon the earth, so does Indra, lord of glorious generosity, bring showers of light and bliss for the generous man of charity who offers the homage of soma to the lord for humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या उपासकांना आपलेसे करतो. त्यांच्यामधून काम इत्यादी शत्रूंना असे उपटून फेकतो जसे बलवान वृषभ पृथ्वीवरील धूलिकणांना उधळतो. त्याचा स्वभाव असा आहे, की आत्मसमर्पित उपासकांना इतरांना जीवन देण्यासाठी आपली ज्योती - आपल्या स्वरूपाला प्राप्त करवितो. ॥८॥
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