ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - मन आवर्त्तनम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यत्ते॒ चत॑स्रः प्र॒दिशो॒ मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । चत॑स्रः । प्र॒ऽदिशः॑ । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते चतस्रः प्रदिशो मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । चतस्रः । प्रऽदिशः । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे मानसरोगग्रस्त मनुष्य ! तेरा (यत्-मनः) जो मन (चतस्रः-प्रदिशः-दूरकं जगाम) चारों प्रधान दिशाओं के प्रति दूर चला गया है। (ते तत्……) पूर्ववत् ॥४॥
भावार्थ
मानसिक रोग के रोगी का मन जब कभी पूर्व, कभी पश्चिम, कभी उत्तर, कभी दक्षिण दिशा सम्बन्धी बातें क्षण-क्षण में बदल कर करे, तो उस ऐसे भ्रान्त मनवाले को उचित आश्वासनों द्वारा स्वस्थ एवं शान्त बनाएँ ॥४॥
विषय
मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।
भावार्थ
(यत् ते मनः) जो तेरा मन (चतस्रः प्रदिशः दूरम् जगाम) चारों दिशाओं में दूर भी चला जावे (ते तत्) तेरे उस मन को भी (इह क्षयाय जीवसे) यहां ऐश्वर्य, निवास जीवन आदि लाभ के लिये (आ वर्त्तयामसि) लौटा लेवें, लौटता पावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥
विषय
जीवसे
पदार्थ
[१] (यत्) = जो (ते) = तेरा (मनः) = मन (चतस्रः प्रदिशः) = चारों विशाल दिशाओं में (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है (ते) = तेरे (तत्) = उस मन को (आवर्तयामसि) = लौटाते हैं जिससे (इह क्षयाय) = यह यहाँ ही निवास व गति के लिये हो और (जीवसे) = दीर्घ व उत्तम जीवन को हम सिद्ध कर सकें। [२] मन इधर-उधर इन अनन्त विस्तृत दिशाओं में भटकता है, इस भटकने से उसकी शक्ति विखर जाती है। परिणामतः कोई भी कार्य सुन्दरता से नहीं हो पाता ।
भावार्थ
भावार्थ - चारों दिशाओं में भटकते हुए मन को रोकना ही ठीक है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे मानसरोगग्रस्त जन ! तव (यत्-मनः) यदन्तःकरणम् (चतस्रः प्रदिशः-दूरकं जगाम) चतस्रः प्रधाना दिशः प्रति दूरं गतम् (ते तत्……) पूर्ववत् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Your mind which wanders far over all the four directions of space, that we bring back for you, here to be at peace for the good life.
मराठी (1)
भावार्थ
मानसिक रोग्याचे मन जेव्हा कधी पूर्व, कधी पश्चिम, कधी उत्तर, कधी दक्षिण दिशेसंबंधी गोष्टी क्षणाक्षणांत बदलून बोलते. तेव्हा त्या भ्रांत मनाच्या व्यक्तीला योग्य आश्वासनाद्वारे स्वस्थ व शांत करावे. ॥४॥
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