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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - मन आवर्त्तनम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्ते॑ समु॒द्रम॑र्ण॒वं मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । स॒मु॒द्रम् । अ॒र्ण॒वम् । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते समुद्रमर्णवं मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । समुद्रम् । अर्णवम् । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) हे मानसिक रोग से ग्रस्त मनुष्य ! तेरा (यत्-मनः-अर्णवं समुद्रं दूरकं जगाम) जो मन जलवाले समुद्र को दूर चला गया है (ते तत्……) पूर्ववत् ॥५॥

    भावार्थ

    मानसिक रोगग्रस्त का मन भ्रान्त हुआ-हुआ जल से आप्लावित समुद्र में अपने को तैरता हुआ या डूबता हुआ बतलाये, तो उसे इस प्रसङ्ग के निवारक आश्वासन देकर शान्त करें ॥५॥

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    विषय

    मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।

    भावार्थ

    (यत् ते मनः अर्णवं दूरकं जगाम तत्ते०) जो तेरा मन समुद्र तक भी दूर चला जाता है उसको भी हम यहां के ऐश्वर्य, निवास और जीवन सुख के लिये पुनः पुनः स्नेह वश लौटा लेवें, लौटता पावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥

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    विषय

    जलोंवाले समुद्र की ओर

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जो (ते मनः) = तेरा मन (अर्णवं समुद्रम्) = जलोंवाले समुद्र की ओर (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है (ते) = तेरे (तत्) = उस मन को (आवर्तयामसि) = लौटाते हैं जिससे (इह क्षयाय) = यह यहाँ ही निवास व गति के लिये हो और (जीवसे) = दीर्घ व उत्तम जीवन के लिये हो । [२] मन अपने अन्दर निहित संस्कारों के कारण कभी-कभी समुद्रों की सैर करने लगता है, समुद्रों में उठती हुई लहरों का ध्यान करता है, प्रस्तुत कार्य में स्थिर नहीं होता। वे कार्य ठीक से नहीं होते और जीवन में सफलता नहीं मिलती। सफल जीवन के लिये मन को न भटकने देना आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दूर-दूर समुद्रों में भटकते हुए मन को हम अपने अन्दर ही रोकने का प्रयत्न करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) हे मानसरोगग्रस्त जन ! तव (यत्-मनः अर्णवं समुद्रं दूरकं जगाम) यन्मनो जलवन्तं समुद्रं दूरं गतम् (ते तत्……) पूर्ववत् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your mind that wanders far over the sea and the waters of space, we bring back for you, here to be at peace for you for the good life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानसिक रोगग्रस्ताच्या मनाला भ्रमित होऊन जलाने युक्त समुद्रात पोहत किंवा बुडत आहे, असे वाटल्यास त्याला त्या प्रसंगातून निवारण करणारे आश्वासन देऊन शांत करावे. ॥५॥

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