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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॑ क्ष॒त्रास॑मातिषु॒ रथ॑प्रोष्ठेषु धारय । दि॒वी॑व॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । क्ष॒त्रा । अस॑मातिषु । रथ॑ऽप्रोष्ठेषु । धा॒र॒य॒ । दि॒विऽइ॑व । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र क्षत्रासमातिषु रथप्रोष्ठेषु धारय । दिवीव सूर्यं दृशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । क्षत्रा । असमातिषु । रथऽप्रोष्ठेषु । धारय । दिविऽइव । सूर्यम् । दृशे ॥ १०.६०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे शासक ! (रथप्रोष्ठेषु-असमातिषु) रथप्रोष्ठ-रथ के संचालन में प्रोष्ठ-प्रौढ़-कुशल, असमान गति प्रवृत्तिवाले अधिकारी में (क्षत्रा धारय) बलों को समर्पित कर (दिवि-इव सूर्यं दृशे) जैसे आकाश में सूर्य को-जगत् को प्रकाशित करने के लिए परमात्मा धारण करता है ॥५॥

    भावार्थ

    महारथी युद्धकुशल के अधीन अपने विविध सैन्य बलों को समर्पित करे-सौंपे, जैसे परमात्मा ने आकाश के अन्दर सब जगत् को प्रकाशित करने के लिए धारण कर रखा है ॥५॥

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    विषय

    राजा के आश्रयभूत जन असाधारण बल और ज्ञान वाले हों।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाशकारिन् ! हे ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू (रथ-प्रोष्ठेषु) रथों पर आगे बढ़ने वाले, (असमातिषु) असाधारण बलशाली जनों के आश्रय पर, उनके बीच (दिवि-इव सूर्यम्) आकाश में सूर्य के समान (क्षत्रा धारय) नाना बलों और ऐश्वर्यों को धारण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। ६ अगस्त्यस्य स्वसैषां माता। देवता–१–४, ६ असमाता राजा। ५ इन्द्रः। ७–११ सुबन्धोजींविताह्वानम्। १२ मरुतः॥ छन्द:—१—३ गायत्री। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ पादनिचदनुष्टुप्। ७, १०, १२ निचृदनुष्टुप्। ११ आर्च्यनुष्टुप्। ८, ९ निचृत् पंक्तिः॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    रथ-प्रोष्ठ 'असमाति'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! आप (रथप्रोष्ठेषु) = [प्रोष्ठ= ऋषभ - श्रेष्ठ] रंहणशील- गतिशील- स्फूर्तिमय पुरुषों में श्रेष्ठ (असमातिषु) = अनुपम जीवनवाले इन पुरुषों में (क्षत्रा) = बलों को (धारय) = धारण करिये। इस प्रकार धारण करिये, (इव) = जैसे कि (दिवि) = द्युलोक में (सूर्यम्) = आप सूर्य को धारण करते हैं, (दृशे) = जिससे सब लोग मार्ग को देख सकें। [२] 'रथ' शब्द 'रंहतेर्गतिकर्मणः ' धातु से बनकर तीव्र गतिवाले, स्फूर्तिमय जीवनवाले पुरुष का वाचक है। उनमें भी श्रेष्ठ 'रथ-प्रोष्ठ' है । यह इस स्फूर्ति व गति के कारण ही 'असमाति' बना है, अनुपम जीवनवाला हुआ है। इसके जीवन में शक्ति का स्थापन होगा तो ये लोकहित के कार्यों को करने में अधिक क्षम होंगे, ये उसी प्रकार लोगों के मार्ग-दर्शन के लिये होंगे जिस प्रकार कि आकाश में उदित हुआ हुआ सूर्य लोगों का मार्गदर्शन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्फूर्तिमय जीवनवाले, कामादि के विजेता अनुपम जीवनवाले पुरुष हमारे लिये मार्ग-दर्शन करनेवाले हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे शासक ! (रथप्रोष्ठेषु असमातिषु) रथयानस्य चालने प्रोष्ठाः-प्रौढाः, ये ते रथप्रोष्ठाः “प्रोष्ठे प्रौढे” [ऋ० ७।५५।८ दयानन्दः] ‘आदरार्थं बहुवचनम्’ रथचालनप्रोढे-असुमातौ-असमानगतिप्रवृत्तिके-अधिकारिणि (क्षत्रा धारय) बलानि स्थापय (दिवि-इव सूर्यं दृशे) यथा ह्याकाशे सूर्यं जगद्द्रष्टुं परमात्मा धारयति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of light and law, ruler of the world, first among exceptional equals of the chariot commanders of the world, pray hold and rule the order of the commonwealth of humanity as the lord supreme holds the sun in heaven for all the worlds to see.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महारथी युद्धात कुशल असणाऱ्याच्या आधीन आपले विविध सैन्यबल सोपवावे. जसे परमात्म्याने आकाशात सूर्याला सर्व जग प्रकाशित करण्यासाठी धारण केलेले आहे. ॥५॥

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