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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यस्य स्वसैषां माता देवता - असमाती राजा छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒गस्त्य॑स्य॒ नद्भ्य॒: सप्ती॑ युनक्षि॒ रोहि॑ता । प॒णीन्न्य॑क्रमीर॒भि विश्वा॑न्राजन्नरा॒धस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒गस्त्य॑स्य । नत्ऽभ्यः॑ । सप्ती॒ इति॑ । यु॒न॒क्षि॒ । रोहि॑ता । प॒णीन् । नि । अ॒क्र॒मीः॒ । अ॒भि । विश्वा॑न् । रा॒ज॒न् । अ॒रा॒धसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अगस्त्यस्य नद्भ्य: सप्ती युनक्षि रोहिता । पणीन्न्यक्रमीरभि विश्वान्राजन्नराधस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अगस्त्यस्य । नत्ऽभ्यः । सप्ती इति । युनक्षि । रोहिता । पणीन् । नि । अक्रमीः । अभि । विश्वान् । राजन् । अराधसः ॥ १०.६०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (राजन्) हे राजन् ! (अगस्त्यस्य नद्भ्यः) पाप को त्याग दिया है जिसने, ऐसे निष्पाप के प्रशंसकों के लिए (रोहिता सप्ती युनक्षि) शुभ्र रोहण करनेवाले सभेश और सेनेश को युक्त कर (पणीन् न्यक्रमीः) व्यापारियों को स्वाधीन कर और उनको अपने व्यापार में प्रेरित कर (विश्वान्-अराधसः-अभि) सब उद्दण्डों को दबा-तिरस्कृत कर ॥६॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए कि निष्पाप-पाकर्मसम्पर्क से रहित, परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवाले ऋषि-मुनियों के लिए विशेष न्यायव्यवस्था और रक्षाप्रबन्धार्थ सभेश और सेनेश को नियुक्त करे तथा व्यापारियों के लिए व्यापारार्थ प्रेरणा दे और राष्ट्र में जो उद्दण्ड हों, उन पर पूरा नियन्त्रण रखे ॥६॥

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    विषय

    प्रजा के हितार्थ राजा-प्रजावर्गों को सन्मार्ग पर चलाने और दुष्टों के दमन का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (राजन्) दीप्तियुक्त तेजस्विन् ! राजन् ! तू (अगस्त्यस्य) वृक्षों और पर्वतों को भी उखाड़ देने में समर्थ बलशाली के (नद्भ्यः) अभिनन्दक प्रजाओं के लिये (रोहिता सप्ती युनक्षि) वेग से जाने वाले लाल दो अश्वों के तुल्य (रोहिता) अनुरक्त वा वृद्धिशील प्रजा वर्गों को (युनक्षि) सन्मार्ग पर चला। और (विश्वान्) समस्त (अराधसः पणीन्) निर्धन, आराधना न करने वाले व्यवहारवानों को (नि अक्रमीः) नीचे कर। राजा के दो अश्व, एक गृहस्थ बसे प्रजा जन, दूसरा कर्म में नियुक्त समस्त वेतनबद्ध राज्य कर्मचारी, (ऐत० अ० १३। ३॥)

    टिप्पणी

    अराधसम् अनाराधयन्तम्। निरु० ५।३।५॥ इति चतुर्विंशो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। ६ अगस्त्यस्य स्वसैषां माता। देवता–१–४, ६ असमाता राजा। ५ इन्द्रः। ७–११ सुबन्धोजींविताह्वानम्। १२ मरुतः॥ छन्द:—१—३ गायत्री। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ पादनिचदनुष्टुप्। ७, १०, १२ निचृदनुष्टुप्। ११ आर्च्यनुष्टुप्। ८, ९ निचृत् पंक्तिः॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अगस्त्यस्य नद्भयः

    पदार्थ

    [१] अगस्त्य की स्वसा [= बहिन ] सुबन्धु की माता है। वही प्रस्तुत मन्त्रों की देवता है । अगं अचलं कूटस्थं प्रभुं स्त्यायति [स्त्यै शब्दे ] = अचल प्रभु के नामों का जो उच्चारण करता है वह 'अगस्त्य' है । वह चित्तवृत्ति जो कि प्रभु-स्तवन की ओर झुकती है वही अगस्त्य की स्वसा है, 'सु अस्' = अगस्त्य की स्थिति को उत्तम बनानेवाली है। यह 'अगस्त्य स्वसा' सुबन्धु को जन्म देती है, सुबन्धु, अर्थात् उत्तमता से मन को बाँधनेवाला । हे प्रभो ! आप इन (अगस्त्यस्य नद्भ्यः) = [नन्दपितृभ्य] अगस्त्य के आनन्दित करनेवाले, अगस्त्य के भगिनी पुत्रों, अर्थात् प्रभु- स्तवन की ओर चित्तवृत्ति को लगाकर चित्त के बाँधनेवालों के लिये (रोहिता) = तेजस्वी अथवा प्रादुर्भूत शक्तियोंवाले (सप्ती) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को (युनक्षि) = इस शरीर रूप रथ में जोतते हैं । अर्थात् मनोनिरोध करनेवाले व्यक्तियों को आप उत्तम इन्द्रियाश्वों की प्राप्ति कराते हैं । इन्द्रियों ने तो विषयों का ग्रहण करना ही है, परन्तु यदि वे आत्मवश्य होती हुई विषयों में जाती हैं तो पवित्रता बनी रहती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य की वृत्ति भौतिक नहीं बन जाती । [२] इसके विपरीत हे (राजन्) = संसार के शासक प्रभो ! आप (विश्वान्) = सब (अराधसः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को न सिद्ध करनेवाले (पणीन्) = बणिये की मनोवृत्तिवाले व्यवहारी लोगों को (अभि) = इस लोक व परलोक दोनों के दृष्टिकोण से (नि अक्रमी:) = नीचे कुचल देते हैं। धन का लोभ इन्हें यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होने से रोकता है, सो ये इहलोक से भी जाते हैं, परलोक से भी ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु-स्तवन की ओर चित्तवृत्ति को झुकायेंगे तो हमारे इन्द्रियाश्व उत्तम होंगे। केवल व्यवहारी पुरुष बन जायेंगे तो कुचले जाएँगे ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (राजन्) हे राजन् ! (अगस्त्यस्य नद्भ्यः) त्यक्तपापस्य प्रशंसकेभ्यः (रोहिता सप्ती युनक्षि) शुभ्रौ रोहणकर्त्तारौ प्रगतिशीलौ सभासेनेशौ योजय (पणीन् न्यक्रमीः) व्यापारिणः स्वाधीनीकुरु (विश्वान्-अराधसः-अभि) सर्वान् उद्दण्डान्-अभिभव ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the supporters and admirers of the simple, sinless, enlightened and disciplined ruling soul of the order, you harness two nimble bright forces of internal discipline and external defence, and, O refulgent ruler of the system, you control all the greedy, selfish, uncreative and uncommitted elements of the world order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने निष्पाप-पापसंपर्करहित परमात्म्याची स्तुती प्रार्थना उपासना करणाऱ्या ऋषी-मुनींसाठी विशेष न्यायव्यवस्था व रक्षणव्यवस्थेसाठी सभेश व सेनेशची नियुक्ती करावी व व्यापाऱ्यांसाठी व्यापार करण्याची प्रेरणा द्यावी व राष्ट्रात जो उद्दंड असेल त्याच्यावर पूर्ण नियंत्रण ठेवावे.

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