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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - सुबन्धोर्जीविताह्वानम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒यं मा॒तायं पि॒तायं जी॒वातु॒राग॑मत् । इ॒दं तव॑ प्र॒सर्प॑णं॒ सुब॑न्ध॒वेहि॒ निरि॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । मा॒ता । अ॒यम् । पि॒ता । अ॒यम् । जी॒वातुः॑ । आ । अ॒ग॒म॒त् । इ॒दम् । तव॑ । प्र॒ऽसर्प॑णम् । सुब॑न्धो॒ इति॒ सुऽब॑न्धो । आ । इ॒हि॒ । निः । इ॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं मातायं पितायं जीवातुरागमत् । इदं तव प्रसर्पणं सुबन्धवेहि निरिहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । माता । अयम् । पिता । अयम् । जीवातुः । आ । अगमत् । इदम् । तव । प्रऽसर्पणम् । सुबन्धो इति सुऽबन्धो । आ । इहि । निः । इहि ॥ १०.६०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुबन्धो) हे सुख में बान्धनेवाले कुमार ! (अयं माता-अयं पिता) ये चिकित्सक तुझ रोगी का माता-माता के समान स्नेह करनेवाला, यह पिता-पिता के समान पालन करनेवाला-रक्षण देनेवाला (अयं जीवातुः-आ अगमत्) यह जीवन देनेवाला आया है-आता है (इदं तव प्रसर्पणम्) यह शरीर तो तेरा प्रकृष्टरूप से प्राप्त होने योग्य स्थान है (एहि)(निः इहि) निश्चितरूप से प्राप्त हो ॥७॥

    भावार्थ

    बालक या कुमार स्नेह में बाँधनेवाला होता है, वह विशेष स्नेहपात्र-दयापात्र होता है। जब वह रोगी हो जाये, तो कोई भी चिकित्सक माता के समान स्नेह करता हुआ या पिता के समान पालन करता हुआ उसके जीवन के लिए चिकित्सा करे और आश्वासन दे कि तू इसी शरीर में स्वस्थ और दीर्घजीवी हो जायेगा ॥७॥

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    विषय

    माता पिता के तुल्य राजपद।

    भावार्थ

    (अयं माता अयं पिता) यह मातावत् राष्ट्र का बनाने वाला, (अयं पिता) यह पिता के तुल्य पालक, (अयं जीवातुः आगमत्) यह जीवनदाता होकर प्राप्त होता है। हे (सुबन्धो) उत्तम सुप्रबन्धक राजन् ! (इदं) यह तेरा (प्रसर्पणम्) आगे बढ़ना हो, (इहि) आ, (निर् इहि) निकल कर मैदान में आ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। ६ अगस्त्यस्य स्वसैषां माता। देवता–१–४, ६ असमाता राजा। ५ इन्द्रः। ७–११ सुबन्धोजींविताह्वानम्। १२ मरुतः॥ छन्द:—१—३ गायत्री। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ पादनिचदनुष्टुप्। ७, १०, १२ निचृदनुष्टुप्। ११ आर्च्यनुष्टुप्। ८, ९ निचृत् पंक्तिः॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आजा, निकल आ

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि हे (सुबन्धो) = मन को बाँधनेवाले ! मन को विषयों में न भटकने देने वाले! (अयम्) = यह यज्ञ ही अथवा प्रभु ही (माता) = तेरी माता हैं, तेरे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं, (अयं पिता) = यही तेरे पिता अथवा रक्षण करनेवाले हैं। (अयं जीवातुः) = यह जीवनौषध के रूप में (आगमत्) = तुझे प्राप्त हुए हैं। मन को निरुद्ध करके हम प्रभु में लगाने का प्रयत्न करें, यज्ञादि उत्तम कर्मों में इसे लगाये रखें। हम प्रभु को ही माता, पिता व जीवनोषध के रूप में जानें। [२] हे सुबन्धो ! (इदम्) = यह प्रभु व यज्ञ की ओर चलना ही (तव प्रसर्पणम्) = तेरा प्रकृष्ट मार्ग है । (एहि) = तू इस मार्ग पर चलता हुआ मुझे [प्रभु को ] प्राप्त करनेवाला बन । (निरिहि) = इस विषयपंक से तू बाहर निकल आ । विषयों में फँसे रहकर तेरा विनाश हो जाएगा। यज्ञ में ही तेरा कल्याण है, प्रभु की ओर झुकना ही जीवन है, उससे दूर होकर विषय-प्रवण होना ही मृत्यु है । प्रभु जीव से कहते हैं कि आ जा, विषयों के पंक से बाहिर निकल आ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु को ही माता, पिता व जीवन के रूप में जानें। प्रभु की ओर ही हम चलें। प्रभु को प्राप्त हो जाएँ, विषयों से दूर रहें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुबन्धो) हे सुखे बन्धयितः कुमार ! (अयं माता-अयं पिता अयं जीवातुः-आगमत्) अयं चिकित्सकस्तव रुग्णस्य माता-मातृवत्स्नेहकर्त्ताऽयं पिता-पितृवद्रक्षकः-अयं जीवयिता खल्वागच्छति (इदं तव प्रसर्पणम्) इदं शरीरं तु तव प्रकृष्टरूपेण सर्पणं प्राप्तव्यस्थानमस्ति (एहि) आगच्छ (निरिहि) निश्चितरूपेण प्रापय ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O holy brother, O friend, O brilliant soul of the system, this systemic order is your mother, your father, come up as your life giver. Come in, come here, O soul and ruler of the system, this is your haven and home for life’s advancement, its meaning and purpose.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बालक किंवा कुमार स्नेहात बांधणारा असतो. तो विशेष स्नेहपात्र-दयापात्र असतो. जेव्हा तो आजारी असेल तेव्हा एखाद्या चिकित्सकाने मातेप्रमाणे स्नेह करत किंवा पित्याप्रमाणे पालन करत त्याच्या जीवनासाठी चिकित्सा करावी व आश्वासन द्यावे, की तू याच शरीरात स्वस्थ व दीर्घजीवी होशील. ॥७॥

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