Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 60 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - सुबन्धोर्जीविताह्वानम् छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यथे॒यं पृ॑थि॒वी म॒ही दा॒धारे॒मान्वन॒स्पती॑न् । ए॒वा दा॑धार ते॒ मनो॑ जी॒वात॑वे॒ न मृ॒त्यवेऽथो॑ अरि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । इ॒यम् । पृ॒थि॒वी । म॒ही । दा॒धार॑ । इ॒मान् । वन॒स्पती॑न् । ए॒व । दा॒धा॒र॒ । ते॒ । मनः॑ । जी॒वात॑वे । न । मृ॒त्यवे॑ । अथो॒ इति॑ । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान्वनस्पतीन् । एवा दाधार ते मनो जीवातवे न मृत्यवेऽथो अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । इयम् । पृथिवी । मही । दाधार । इमान् । वनस्पतीन् । एव । दाधार । ते । मनः । जीवातवे । न । मृत्यवे । अथो इति । अरिष्टऽतातये ॥ १०.६०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यथा-इयं मही पृथिवी-इमान् वनस्पतीन् दाधार) जैसे यह महती पृथिवी इन वृक्षादि वनस्पतियों को धारण करती है (एवा दाधार ते……) आगे पूर्ववत् ॥९॥

    भावार्थ

    यह महत्त्वपूर्ण-महती पृथिवी ओषधि वनस्पतियों को जैसे संभालती है, ऐसे ही चिकित्सक को भी रोगी के मन को शरीर में दृढ़रूप से धैर्य देकर स्थिर करना चाहिए तथा ओषधियों से उसके मन को शान्त करना चाहिए। उसके जीवित रहने का यत्न करना चाहिए ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनोदमन का प्रभु को साधन बनाना।

    भावार्थ

    (यथा इयं पृथिवी) जिस प्रकार यह पृथिवी (मही) बड़ी विशाल होकर भी (इमान् वनस्पतीन् दाधार) इन महावृक्षों को धारण करता है। इसी प्रकार (पृथिवी) सर्वाश्रय बड़ा प्रभु (जीवातवे) जीवन के लिये (ते मनः) तेरे मन, वा धारक बल को लगाम के तुल्य (दाधार) धारण करे, थामे, (न मृत्यवे) तेरे मौत के लिये नहीं (अथो अरिष्टतातये) बल्कि कल्याण के लिये हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। ६ अगस्त्यस्य स्वसैषां माता। देवता–१–४, ६ असमाता राजा। ५ इन्द्रः। ७–११ सुबन्धोजींविताह्वानम्। १२ मरुतः॥ छन्द:—१—३ गायत्री। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ पादनिचदनुष्टुप्। ७, १०, १२ निचृदनुष्टुप्। ११ आर्च्यनुष्टुप्। ८, ९ निचृत् पंक्तिः॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मन को यज्ञों में बाँधना

    पदार्थ

    [१] (यथा) = जैसे (इयं मही पृथिवी) = यह महनीय पृथ्वी (इमान् वनस्पतीन्) = इन वनस्पतियों को दाधार धारण करती है। पृथ्वी में गड़े हुए [दृढमूल] ये वनस्पति इधर-उधर भटकते नहीं। (एवा) = इसी प्रकार (ते मनः) = तेरे मन को भी (दाधार) = प्रभु में व यज्ञ में (दाधार) = धारण करते हैं । जिससे (जीवातवे) = तेरा जीवन सुन्दर बना रहे, (न मृत्यवे) = तू मृत्यु की ओर न चला जाए। (अथ उ) - और अब निश्चय से (अरिष्टतातये) = अहिंसन व शुभ का विस्तार हो सके। [२] हमारा मन यज्ञादि उत्तम कर्मों में इस प्रकार स्थिर बना रहे जैसे कि वृक्ष पृथ्वी में स्थिरता से बद्धमूल होते हैं। इसी में जीवन है, इसी में मृत्यु से बचाव है, यही शुभ के विस्तार का साधन है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मन को स्थिर करके दीर्घजीवी व शुभ जीवनवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यथा इयं मही पृथिवी इमान् वनस्पतीन् दाधार) यथा हीयं महती पृथिवी वनस्पतीन् वृक्षादीन् धारयति (एवा दाधार ते……) अग्रे पूर्ववत् ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O man, just as this great earth holds and bears these herbs and trees (for the sustenance of life), so does the soul hold and bear your mind and spirit, not for death but for your life, fulfilment and freedom from evil and misfortune.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ही महान पृथ्वी औषधी वनस्पतींना जशी सांभाळते, तसेच चिकित्सकानेही रोग्याच्या मनाला शरीरात दृढ रूपाने धैर्य देऊन स्थिर केले पाहिजे व औषधीने त्याचे मन शांत केले पाहिजे. त्याने जीवित राहावे, असा प्रयत्न केला पाहिजे. ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top