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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - सावर्णेर्दानस्तुतिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒ह॒स्र॒दा ग्रा॑म॒णीर्मा रि॑ष॒न्मनु॒: सूर्ये॑णास्य॒ यत॑मानैतु॒ दक्षि॑णा । साव॑र्णेर्दे॒वाः प्र ति॑र॒न्त्वायु॒र्यस्मि॒न्नश्रा॑न्ता॒ अस॑नाम॒ वाज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒ऽदाः । ग्रा॒म॒ऽनीः । मा । रि॒ष॒त् । मनुः॑ । सूर्ये॑ण । अ॒स्य॒ । यत॑माना । ए॒तु॒ । दक्षि॑णा । साव॑र्णेः । दे॒वाः । प्र । ति॒र॒न्तु॒ । आयुः॑ । यस्मि॑न् । अस्रा॑न्ताः । अस॑नाम । वाज॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनु: सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा । सावर्णेर्देवाः प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽदाः । ग्रामऽनीः । मा । रिषत् । मनुः । सूर्येण । अस्य । यतमाना । एतु । दक्षिणा । सावर्णेः । देवाः । प्र । तिरन्तु । आयुः । यस्मिन् । अस्रान्ताः । असनाम । वाजम् ॥ १०.६२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सहस्रदाः-ग्रामणीः-मनुः) बहुत धन आदि के दाता ग्राम के नेता रक्षक और मननशील ज्ञान का दाता (मा रिषत) हमें हिंसित नहीं करता है, यह सत्य है, परन्तु (अस्य) इस ज्ञानदाता की (दक्षिणा यतमाना) दानक्रिया आगे-आगे प्रवर्तमान होती हुई (सूर्येण-एतु) सूर्य के समान होती हुई प्रकाशित हो-प्रसिद्धि को प्राप्त हो (देवाः सावर्णेः-आयुः प्रतिरन्तु) देवसमान ज्ञानभरण करने में कुशल के जीवन को बढ़ावें (यस्मिन्-अश्रान्ताः-वाजम् असनाम) जिस आश्रय में न थकते हुए ज्ञान का सम्भजन हम करें ॥११॥

    भावार्थ

    अन्नादि का दाता मनुष्यों की रक्षा करता है, परन्तु ज्ञान के दाता की दानक्रिया बढ़ती हुई सूर्य की दीप्ति के समान प्रसिद्ध हो जाती है, आयु को बढ़ाती है, उसके आश्रय ज्ञानी बन जाते हैं ॥११॥

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    विषय

    तेजस्वी नायक के कर्त्तव्य। उसके ग्राह्य गुण।

    भावार्थ

    (सहस्र-दाः) सहस्रों का देने वाला, (ग्राम-नीः) जन समूह, सैन्य-समूहों का नायक, (मनुः) विचारवान् मनुष्य (सूर्येण) सूर्य के तुल्य तेजस्वी होकर भी (मा रिषत्) स्वयं पीड़ित न हो, न अन्यों को पीड़ित करे। उस (सावर्णेः) समान रूप से वरण करने योग्य प्रजाजनों के पुत्र के तुल्य उन्हों से उत्पादित वृत नायक की (दक्षिणा) क्रियाशीलता, उत्साह और दानशक्ति, (यतमाना) निरन्तर उद्योग, यत्न करती हुई ही (एतु) हमें प्राप्त हो। और (देवाः) दानशील और तेजस्वी पुरुष (आयुः प्रतिरन्तु) सूर्य की किरणों के तुल्य हमारे जीवनों को बढ़ावें। (यस्मिन्) जिसमें हम (अश्रान्ताः) कभी न थकते हुए (वाजम् असनाम) अन्न, बल, ज्ञान और ऐश्वर्य का भोग करें। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    'अश्रान्ता असनाम वाजाम्'

    पदार्थ

    [१] (सहस्रदा) = [स+हस्+दा] आनन्दपूर्वक देनेवाला, देने में आनन्द को अनुभव करनेवाला अथवा खूब दान करनेवाला, हजारों के देनेवाला (ग्रामणीः) = इन्द्रिय समूह का प्रणयन करनेवाला (मनुः) = ज्ञानी पुरुष (मा रिषत्) = हिंसित न हो । हिंसित न होने का मार्ग यही है कि हम [क] दानशील हों, [ख] इन्द्रिय समूह को यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रखें, [ग] ज्ञानी विचारशील बनें। [२] (अस्य) = इस मनु की दक्षिणा दानवृत्ति (सूर्येण) = सूर्योदय के साथ ही (यतमाना) = लोकहित के लिये उद्योग करती हुई एतु गतिमय हो, प्रवृत्त हो । अर्थात् यह ज्ञानी पुरुष दिन के प्रारम्भ से ही दान की वृत्तिवाला बने, प्रातः काल को दान से ही प्रारम्भ करे। इसका यह दान ' देशकालपात्र' का विचार करके दिया जाए जिससे वह सबके हितकारी कारण बने, अहित का नहीं। अपात्र में दिया गया दान उसके जीवन को और अधिक विकृत करनेवाला ही हो जाता है। [३] जो दान की वृत्ति के द्वारा अपने जीवन को उस सब कुछ देनेवाले प्रभु के समान ही बनाने के लिये बलशील होता है उस (सावर्णे:) = प्रभु के समान वर्णवाले की (आयुः) = आयु को (देवा:) = सब देव (प्रतिरन्तु) = बढ़ानेवाले हों। देवों की अनुकूलता से हम (वाजम्) = अन्न, बल का (असनाम) = उपभोग करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- दानी की अन्न, धन का अभाव नहीं हो सकता ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सहस्रदाः-प्रामणीः-मनुः) सहस्रस्य बहुनो धनादिकस्य दाता ग्रामस्य नेता रक्षको मननशीलो ज्ञानदाता च (मा रिषत्) अस्मान्-न हिनस्तीति तु सत्यम्, परन्तु (अस्य) मनोज्ञानदातुः (दक्षिणा यतमाना) ज्ञानदान-क्रिया गच्छन्ती-अग्रेऽग्रे प्रवर्तमाना “यतो गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (सूर्येण-एतु) सूर्येण समाना सती प्रकाशते प्रसिद्धिमेतु प्राप्नोतु (देवाः सावर्णेः-आयुः-प्रतिरन्तु) विद्वांसः समानज्ञानवरणे कुशलस्य जीवनं प्रवर्धयन्तु वर्धयन्ति हि (यस्मिन्-अश्रान्ताः-वाजम्-असनाम) यस्मिन्नाश्रयमाणे भ्रान्ति-रहिताः सन्तो वयं ज्ञानं सम्भजेमहि सम्भजामहे ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The giver of thousands, leader of the community, must not be hurt, nor would he hurt anyone. May this generosity, active and advancing, rise with the sun day by day. May the divinities prolong and elevate the health and age of the man of versatile generosity and competence, and may we, under his guidance and leadership, relentlessly advancing, win the goal and victory of our aspirations.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अन्न इत्यादींचा दाता माणसांचे रक्षण करतो; परंतु ज्ञानदात्याची दानक्रिया सूर्याच्या दीप्तीप्रमाणे प्रसिद्ध होते. आयु वाढविते. त्याच्या आश्रयाने आपण ज्ञानी बनतो. ॥११॥

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