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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    ये अ॒ग्नेः परि॑ जज्ञि॒रे विरू॑पासो दि॒वस्परि॑ । नव॑ग्वो॒ नु दश॑ग्वो॒ अङ्गि॑रस्तमो॒ सचा॑ दे॒वेषु॑ मंहते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नेः । परि॑ । ज॒ज्ञि॒रे । विऽरू॑पासः । दि॒वः । परि॑ । नव॑ऽग्वः । नु । दश॑ऽग्वः । अङ्गि॑रःऽतमः । सचा॑ । दे॒वेषु॑ । मं॒ह॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्नेः परि जज्ञिरे विरूपासो दिवस्परि । नवग्वो नु दशग्वो अङ्गिरस्तमो सचा देवेषु मंहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्नेः । परि । जज्ञिरे । विऽरूपासः । दिवः । परि । नवऽग्वः । नु । दशऽग्वः । अङ्गिरःऽतमः । सचा । देवेषु । मंहते ॥ १०.६२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये विरूपासः) जो ज्ञान का विशेष निरूपण करनेवाले विद्वान् (दिवः परि) मोक्षधाम में मोक्षधाम का लक्ष्य करके (अग्नेः परिजज्ञिरे) परमात्मा की कृपा से या उसके ध्यान से प्रसिद्ध होते हैं (तेषु) उनमें (अङ्गिरस्तमः) जो अतिशय से परमात्मपुत्र-या संयमी होता है (नवग्वः-दशग्वः) मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों में सिद्धि को प्राप्त हुआ और दस कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों में सिद्धि को प्राप्त हुआ (देवेषु सचा मंहते) विद्वानों में संगति से प्रशंसा को प्राप्त होता है ॥६॥

    भावार्थ

    ज्ञान का विशेष निरूपण करनेवाले साक्षाद्द्रष्टा ऋषि, ज्ञानपूर्ण और संयमी होकर मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। वे विद्वानों में प्रशंसा को प्राप्त होते हैं ॥६॥

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    विषय

    उनके बीच सूर्यवत् उनको ज्ञान देना।

    भावार्थ

    (ये) जो (अग्नेः) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष के (परि) चारों ओर (दिवः परि) सूर्य के चारों ओर किरणों के समान (विरू-पासः) विविध रूप और कान्ति से युक्त होकर प्रकट होते हैं उन (देवेषु) विद्याभिलाषी जनों के बीच में (नवग्वः दशग्वः नु) नव या दश अमुख्य प्राणों में अध्यक्ष मुख्य प्राण के तुल्य नव या दश विद्याओं में गतिमान्, (अङ्गिरस्तमः) अति तेजस्वी होकर (सचा) सब के साथ (विराज कर (मंहते) ज्ञान वितरण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    नवग्व- दशग्व

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (अग्नेः) = उस प्रभु से परिजज्ञिरे शक्तियों के विकास को प्राप्त करते हैं, वे (विरूपासः) = विशिष्टरूपवाले तो होते ही हैं। ये (दिवः परि) = [परेर्वर्जने] द्युलोक से भी परे पहुँचते हैं । द्युलोक को छोड़कर द्युलोक से ऊपर उठते हैं। पृथ्वीलोक से ऊपर उठकर ये अन्तरिक्ष में आरुढ़ हुए, अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर द्युलोक में पहुँचे और द्युलोक से भी ऊपर उठकर इन्होंने स्वर्ज्योति को प्राप्त किया है 'पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहं, अन्तरिक्षादिवमारुहं, दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम्'। शरीर, मन व मस्तिष्क की उन्नति करके ये प्रभु को प्राप्त करनेवाले हुए हैं। [२] यह व्यक्ति (नवग्वः) = [नवग्व शब्द पर्यन्तं गच्छति] आयु के नौवें दशक तक जानेवाला होता है, (नु दशग्वः) = निश्चय से दशवें दशक तक पहुँचनेवाला होता है। अर्थात् ९० व १०० वर्ष तक आयुष्यवाला होता है। इस आयुष्य में भी यह (अंगिरस्तमः) = अधिक से अधिक सरस अंगोंवाला होता है। (सचा देवेषु) = यह सदा देवों में साथ रहनेवाला होता है । अर्थात् सूर्यादि देव इसके अक्षि आदि स्थानों में ठीक प्रकार निवास करते हैं 'सूर्यः चक्षुर्भूत्वा अक्षिणी प्राविशत् 'सूर्य चक्षु बनकर आँखों में रहता है तो चन्द्रमा मन बनकर हृदय में निवास करता है, वायु प्राण बनकर नासिका में, अग्नि वाणी बनकर मुख में, दिशाएँ श्रोत्र बनकर कानों में रहती हैं। इस प्रकार यह विरूप सब देवों के साथ रहता है 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते' । [२] इस प्रकार सब देवों के साथ रहता हुआ यह देवों की सब से बड़ी विशेषता को धारण करता है और (मंहते) = खूब देनेवाला होता है। यह त्याग इसके जीवन को उत्कृष्ट बनाये रखता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के उपासन से हम द्युलोक से परे स्वर्ज्योति को प्राप्त करनेवाले बनें। नब्बे व सौ साल की उमर में भी सरस अंगोंवाले हों। देवों के साथ निवास करते हुए त्यागशील हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये विरूपासः) ये ज्ञानस्य विशिष्टनिरूपणकर्तारः ! (दिवः परि) मोक्षधाम्नः अधि “मोक्षमधिलक्ष्य पञ्चम्याः परावध्यर्थे” [अष्टा० ८।३।५१] अग्नेः परिजज्ञिरे परमात्माग्नेः कृपया ध्यानेन वा परितः प्रसिध्यन्ति (तेषु अङ्गिरस्तमः) यः खलु अतिशयेन परमात्मपुत्रोऽतिशयति संयमी वा (नवग्वः-दशग्वः) नवमनोबुद्धि- चित्ताहङ्कारेषु पञ्चज्ञानेन्द्रियेषु नवसु सिद्धिङ्गतः, अथ च दशसु कर्मेन्द्रियेषु ज्ञानेन्द्रियेषु सिद्धिङ्गतः (देवेषु सचा मंहते) विद्वत्सु सङ्गत्या प्रशंसामर्हन्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Of these various forms of existence bom of Agni in the regions of light, the waves called navagu and dashagu being most powerful excel among the divine forms of nature.$Similarly among the living forms of existence born of the divine soul and divine energy, the human form of five elements and four powers of the self, i.e., mana, buddhi, chitta and ahankara, all together nine, and further, ten pranas and ten senses, excels as the highest and most powerful of the divine forms of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानाचे विशेष निरुपण करणारे साक्षात द्रष्टा, ऋषी ज्ञानपूर्ण व संयमी बनून मोक्षाचे अधिकारी बनतात. ते विद्वानात प्रशंसा प्राप्त करतात. ॥६॥

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