ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 63/ मन्त्र 13
अरि॑ष्ट॒: स मर्तो॒ विश्व॑ एधते॒ प्र प्र॒जाभि॑र्जायते॒ धर्म॑ण॒स्परि॑ । यमा॑दित्यासो॒ नय॑था सुनी॒तिभि॒रति॒ विश्वा॑नि दुरि॒ता स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअरि॑ष्टः । सः । मर्तः॑ । विश्वः॑ । ए॒ध॒ते॒ । प्र । प्र॒ऽजाभिः॑ । जा॒य॒ते॒ । धर्म॑णः । परि॑ । यम् । आ॒दि॒त्या॒सः॒ । नय॑थ । सु॒नी॒तिऽभिः॑ । अति॑ । विश्वा॑नि । दुः॒ऽइ॒ता । स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरिष्ट: स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि । यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठअरिष्टः । सः । मर्तः । विश्वः । एधते । प्र । प्रऽजाभिः । जायते । धर्मणः । परि । यम् । आदित्यासः । नयथ । सुनीतिऽभिः । अति । विश्वानि । दुःऽइता । स्वस्तये ॥ १०.६३.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 63; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आदित्यासः) हे अखण्ड ज्ञान ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों ! (यं सुनीतिभिः) तुम जिस मनुष्य को शोभन नयन क्रियाओं द्वारा तथा सदाचरणशिक्षाओं द्वारा (विश्वानि दुरिता अति) सब पापों को अतिक्रमण कराकर (स्वस्तये नयथ) कल्याण के लिए ले जाते हो, (सः-विश्वः-मर्तः-अरिष्टः-प्र-एधते) वह सकल मनुष्य अपीडित होता हुआ बढ़ता है (प्रजाभिः-धर्मणः परि जायते) पुत्रादियों द्वारा गुण में अधिष्ठित हुआ प्रसिद्ध होता है ॥१३॥
भावार्थ
अखण्ड ज्ञान ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों के उपदेश व बताये हुए सदाचरण में जो मनुष्य रहता है, वह पाप से बचकर स्वस्थ रहता है और सन्तानों का सुख प्राप्त करता है ॥१३॥
विषय
तेजस्वी और उत्तम व्यापारियों के कर्त्तव्य। उनके आत्मा का अभ्युदय।
भावार्थ
हे (आदित्यासः) आदित्य, सूर्य की किरणों के तुल्य प्रजा के हितार्थ अन्न, जल, कर आदि लेने हारो, ऋतुओं के सदृश प्रजा को जल अन्न, प्रकाश, ज्ञान आदि का वितरण करने वाले विद्वान् तेजस्वी, व्यापारी आदि पुरुषो ! (यं) जिसको (स्वस्तये) कल्याणार्थ (सु-नीतिभिः) उत्तम नीतियों से (विश्वानि दुः-इता) समस्त दुःखों और दुराचरणों वा दुर्मार्गो से (परि अति नयथ) पार पहुंचा देते हो, वह (मर्त्तः) मनुष्य (विश्वाः) विविध लोकों, स्थानों को जाने में समर्थ, (अरिष्टः) अहिंसित, अनिष्टों से रहित होकर (प्र एधते) खूब वृद्धि को प्राप्त होता है और (प्रजाभिः) प्रजाओं से (धर्मणः प्रजायते) धर्माचरण से उत्कृष्ट हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लात ऋषिः। देवता—१—१४,१७ विश्वेदेवाः। १५, १६ पथ्यास्वस्तिः॥ छन्द:–१, ६, ८, ११—१३ विराड् जगती। १५ जगती त्रिष्टुप् वा। १६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सम-विकास
पदार्थ
[१] (स मर्तः) = वह मनुष्य (विश्वः) = सारे का सारा, अर्थात् पूर्णरूप से (अरिष्टः) = अहिंसित होता हुआ (एधते) = बढ़ता है, वृद्धि को प्राप्त करता है और (धर्मणः) = धर्म के द्वारा (प्रजाभिः) = अपने सन्तानों के साथ (परिप्रजायते) = सब प्रकार के विकास को प्राप्त करता है, (यम्) = जिस पुरुष को हे (आदित्यासः) = सब ज्ञानों व गुणों का आदान करनेवाले देवो! आप (सुनीतिभिः) = उत्तम मार्गों से हमें कल्याण के लिये (नयथा) = ले चलते हैं । [२] ये पाप हमारे न चाहते हुए भी हमारे में प्रविष्ट हो जाते हैं, अतः इन्हें 'विश्व' कहा गया है [विशन्ति] । आदित्यों का उपदेश हमें इस योग्य बनाता है कि हम इन पापों से बचे रहते हैं। धर्म के मार्ग पर चलते हुए हम अपने जीवनों को उत्तम बनाते हैं, साथ ही हमारे सन्तानों के जीवन भी सुन्दर बनते हैं । इस प्रकार (स्वस्तये) = हम उत्तम स्थिति के लिये होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- आदित्यों का उपदेश हमें सदा सन्मार्ग के दिखानेवाला हो, उस पर चलते हुए हम दुरितों से दूर हों और स्वस्ति को सिद्ध करें ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आदित्यासः) हे अखण्डितज्ञान-ब्रह्मचर्यवन्तो विद्वांसः ! (यं सुनीतिभिः) यं जनं शोभननयनक्रियाभिः-सदाचरणशिक्षाभिः (विश्वानि दुरिता-अति) सर्वाणि पापानि खल्वतिक्रम्य (स्वस्तये नयथ) कल्याणाय नयथ (सः-विश्वः-मर्तः-अरिष्टः-प्र-एधते) स सकलो जनोऽपीडितः सन् प्रवर्धते (प्रजाभिः-धर्मणः-परि-जायते) पुत्रादिभिः गुणेऽधिष्ठितः “पञ्चम्याः परावध्यर्थे” [अष्टा० ८।३।५] सञ्जायते प्रसिद्ध्यति ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Unhurt does the mortal advance in the world, rises in values and practice of Dharma and thrives with family and progeny whom you, O brilliant divines, lead by noble paths of rectitude. Indeed, he crosses over all evils of the world whom you enlighten and guide for the good life and well being all round.
मराठी (1)
भावार्थ
अखंड ज्ञान व ब्रह्मचर्य पालन केलेल्या विद्वानांकडून उपदेश घेऊन जो माणूस सदाचरणी बनतो तो पापापासून वाचतो व स्वस्थ राहतो व संतानाचे सुख प्राप्त करतो. ॥१३॥
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