ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
य ईशि॑रे॒ भुव॑नस्य॒ प्रचे॑तसो॒ विश्व॑स्य स्था॒तुर्जग॑तश्च॒ मन्त॑वः । ते न॑: कृ॒तादकृ॑ता॒देन॑स॒स्पर्य॒द्या दे॑वासः पिपृता स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । ईशि॑रे । भुव॑नस्य । प्रऽचे॑तसः । विश्व॑स्य । स्था॒तुः । जग॑तः । च॒ । मन्त॑वः । ते । नः॒ । कृ॒तात् । अकृ॑तात् एन॑सः । परि॑ । अ॒द्य । दे॒वा॒सः॒ । पि॒पृ॒त॒ । स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः । ते न: कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठये । ईशिरे । भुवनस्य । प्रऽचेतसः । विश्वस्य । स्थातुः । जगतः । च । मन्तवः । ते । नः । कृतात् । अकृतात् एनसः । परि । अद्य । देवासः । पिपृत । स्वस्तये ॥ १०.६३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 63; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जो (प्रचेतसः) प्रकृष्ट सावधान (मन्तवः) मननशील (विश्वस्य भुवनस्य) सब उत्पन्न हुए (स्थातुः-जगतः-च) स्थावर और जङ्गम तथा उन सम्बन्धी ज्ञान का (ईशिरे) स्वामित्व करते हैं, उनके ज्ञान में समर्थ हैं अथवा परमात्मा उनके ज्ञान में समर्थ है (ते देवासः) वे विद्वान् या परमात्मा (नः) हमें (कृतात्-अकृतात्-एनसः-अद्य पिपृत) किये या किये जानेवाले सङ्कल्पमय पाप से आज अथवा इस जीवन में हमारी रक्षा करें (स्वस्तये) कल्याण के लिए ॥८॥
भावार्थ
मननशील सावधान विद्वान् अथवा परमात्मा सब उत्पन्न हुए स्थावर जङ्गम के जाननेवाले होते हैं। वे हमें वर्तमान और भविष्य में होनेवाले पापों से हमारे कल्याण के लिए हमें सावधान किया करते हैं। उनके उपदेश और सङ्गति में जीवन बिताना चाहिए ॥८॥
विषय
उत्तम ज्ञानी ऐश्वर्यवानों से सुख-कल्याण रक्षा की याचना।
भावार्थ
(ये) जो (प्रचेतसः) उत्कृष्ट ज्ञान और हृदय वाले, और (मन्तवः) मननशील ज्ञानी पुरुष (विश्वस्य स्थातुः जगतः च भुवनस्य) स्थावर और जंगम समस्त भुवन वा जीव संसार के (ईशिरे) स्वामी, शासक होते हैं (ते) वे आप लोग (कृतात् अकृतात् एनसः) किये और न किये हुए पाप से, हे (देवासः) ज्ञान, धन, शक्ति आदि के देने और प्रकाश करने वाले जनो ! (स्वस्तये) सुख-कल्याण के लिये (अद्य नः परि पिपृत) आज हमें सब प्रकार से बचाकर परिपालन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लात ऋषिः। देवता—१—१४,१७ विश्वेदेवाः। १५, १६ पथ्यास्वस्तिः॥ छन्द:–१, ६, ८, ११—१३ विराड् जगती। १५ जगती त्रिष्टुप् वा। १६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
देव का लक्षण [वे देव]
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के प्रसंग में ही कहते हैं कि (ते देवासः) = वे (देव नः) = हमें (एनसः) = पापों से (अद्या) = आज ही (पिपृता) = पार करें, अर्थात् पापरहित करें, (स्वस्तये) = जिससे हमारी जीवन स्थिति उत्तम हो । उन पापों से दूर करें जो आप (कृतात्) = क्रिया से निर्वृत्त हुए हैं, अर्थात् जिन पापों को हमने इस शरीर के अंगों से किया है और (अकृतात्) = जिन्हें शरीर के अंगों से तो अभी नहीं किया, अभी जो मन में ही विचार रूप में रह रहे हैं। (अकृतात्) = [करचरणादिभिरकृतात् मानसात् सा० ] उन कामिक व तामस सभी पापों से ये देव हमें बचाएँ । [२] (ये) = जो (देव ईशिरे) = अपने ईश हैं, इन्द्रियों के स्वामी हैं, जितेन्द्रिय हैं। (भुवनस्य) = इस भुवन के, लोक के प्रचेतसः प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं, प्रकृति व जीव को जो जानते हैं। (विश्वस्य) = सम्पूर्ण (स्थातुः जगतः च) = स्थावर व जंगम का जो (मन्तवः) = मनन करनेवाले हैं। जड़ व चेतन जगत् को समझनेवाले हैं। [३] इस जड़ व चेतन जगत् के ज्ञान से ही मार्ग का ज्ञान होता है। प्रकृति का ज्ञान शरीर स्वास्थ्य के मार्ग को बतलाता है, जीव का ज्ञान मानस स्वास्थ्य के मार्ग का प्रदर्शक होता है । इस प्रकार ये देव 'शरीर व मन' के दृष्टिकोण से ठीक मार्ग पर चलनेवाले होते हैं। ये हमें भी इस मार्ग का उपदेश देकर शरीर व मानस स्वास्थ्य को प्राप्त करायें। प्रभु का ज्ञान व स्मरण हमें इस मार्ग से भ्रष्ट होने से बचाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रकृति व जीव को समझनेवाले जितेन्द्रिय ज्ञानी पुरुष हमें मार्ग का ज्ञान देकर शरीर व मानस पापों से बचानेवाले हों ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Those divine, brilliant and generous powers of nature and humanity with a noble heart and mind that know and rule the entire moving and unmoving world of existence may, we pray, save us today and protect us from sin and evil whether past or future for the good and all round well being of life.
मराठी (1)
भावार्थ
मननशील सावधान असलेले विद्वान किंवा परमात्मा स्थावर व जंगम यांना जाणणारे असतात. ते वर्तमान व भविष्यात होणाऱ्या पापांपासून आमच्या कल्याणसाठी आम्हाला सावधान करतात. त्यांचा उपदेश व संगती यात जीवन घालविले पाहिजे. ॥८॥
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