ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 63/ मन्त्र 16
ऋषिः - गयः प्लातः
देवता - पथ्यास्वस्तिः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्व॒स्तिरिद्धि प्रप॑थे॒ श्रेष्ठा॒ रेक्ण॑स्वत्य॒भि या वा॒ममेति॑ । सा नो॑ अ॒मा सो अर॑णे॒ नि पा॑तु स्वावे॒शा भ॑वतु दे॒वगो॑पा ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्तिः । इत् । हि । प्रऽप॑थे । श्रेष्ठा॑ । रेक्ण॑स्वती । अ॒भि । या । वा॒मम् । एति॑ । सा । नः॒ । अ॒मा । सो इति॑ । अर॑णे । नि । पा॒तु॒ । सु॒ऽआ॒वे॒शा । भ॒व॒तु॒ । दे॒वऽगो॑पा ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति । सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तिः । इत् । हि । प्रऽपथे । श्रेष्ठा । रेक्णस्वती । अभि । या । वामम् । एति । सा । नः । अमा । सो इति । अरणे । नि । पातु । सुऽआवेशा । भवतु । देवऽगोपा ॥ १०.६३.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 63; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(स्वस्तिः-इत्-हि) कल्याण भावना ही (प्रपथे) पथाग्र-मार्ग के प्रारम्भ में (श्रेष्ठा) श्रेष्ठरूप (रेक्णस्वती) धनधान्यवाली (या वामम्-अभ्येति) जो सेवन करनेवालों को प्राप्त होती है (सा नः) वह हमें (अमा) घर में (सा नु-अरणे) वह ही जंगल में (निपातु) निरन्तर रक्षा करे (देवगोपा स्वावेशा भवतु) विद्वानों द्वारा सुरक्षित शोभन प्रवेशवाली होवे ॥१६॥
भावार्थ
विद्वानों द्वारा कल्याणभावना तथा रक्षा जीवन के प्रारम्भिक मार्ग पर, घर में अथवा जंगल में हमें सदा प्राप्त होती रहे, ऐसा सदा यत्न करना चाहिए ॥१६॥
विषय
उत्तम गृहणी के सेना के सदृश कर्त्तव्य।
भावार्थ
(प्रपथे) उत्तम मार्ग में चलने वाले का (स्वस्तिः) कल्याण हो। (श्रेष्ठा) सर्वश्रेष्ठ, अति प्रशंसायोग्य (रेक्णस्वती) उत्तम धन ऐश्वर्य और वीर्यवाली, (या) जो पृथिवीवत् (वामम् अभि एति) सेवनीय धन वा पुरुष आदि को प्राप्त होती है (सा अमा) वह सहचारिणी गृहवत् गृहणी हो। (सो) और वही, (नः) हमें (अरणे) जाने योग्य मार्ग, वा देश में, वा आनन्द सुखादि से रहित निर्जन स्थान में भी (पातु) हमारी सेनावत् रक्षा करे, वह (सु-आवेशा) सुखप्रद उत्तम आवेश अर्थात् निवास गृह से युक्त होकर (देवगोपा भवतु) उत्तम पुरुषों और उत्तम प्रिय पति से सुरक्षित हो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लात ऋषिः। देवता—१—१४,१७ विश्वेदेवाः। १५, १६ पथ्यास्वस्तिः॥ छन्द:–१, ६, ८, ११—१३ विराड् जगती। १५ जगती त्रिष्टुप् वा। १६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
स्वावेशा- देवगोपा [पृथिवी]
पदार्थ
[१] हमारा शरीर पाँचभौतिक होते हुए भी पृथिवी की प्रधानता के कारण 'पार्थिव' कहलाता है। इस पृथिवी देवता से प्रार्थना करते हैं कि यह पृथिवी (प्रपथे) = हमारे प्रकृष्ट मार्ग में चलने पर (इत् हि) = निश्चय से (स्वस्ति) = कल्याण करनेवाली होती है। (श्रेष्ठा) = यह हमारे जीवन को प्रशस्यतम बनाती है । (रेक्णस्वती) = यह हमारे लिये उत्तम धनोंवाली होती है। हम उत्कृष्ट मार्ग पर चलते हैं तो यह मातृभूत पृथिवी हमारे लिये सब आवश्यक तत्त्वों को उपस्थित करती है और हमारा जीवन जहाँ धार्मिक होता है वहाँ धन की दृष्टि से भी उसमें न्यूनता नहीं होती । 'श्रेष्ठा' शब्द 'धर्म' का संकेत करता है और 'रेक्णस्वती' 'धन' का। इस प्रकार यह पृथिवी (या) = जो (अभि) = धर्म व धन दोनों ओर हमें ले चलती है वह (स्वस्ति) = हमारे कल्याण के लिये होती है और वामं एति = उस सब प्रकार से सुन्दर प्रभु की ओर हमें ले चलती है । हमारे जीवनों में जब धर्म व धन का सुन्दर समन्वय होता है तभी हम प्रभु प्राप्ति के अधिकारी होते हैं । [२] (सा) = वह पृथिवी (नः) = हमें (अमा) = घर में निपातु सुरक्षित करे (सा उ) = और वह ही हमें (अरणे) = घर से बाहर भी सुरक्षित करे। यह पृथिवी हमारे लिये (स्वावेशा) = [सु आ विश्] बड़ी उत्तमता से सब आवश्यक तत्त्वों का प्रवेश करानेवाली हो और इन सब आवश्यक तत्त्वों के प्रवेश कराने के साथ (देवगोपा) = हमारे में दिव्यगुणों का रक्षण करनेवाली भवतु हो । शरीर के लिये आवश्यक सब तत्त्वों को प्राप्त कराने से यह हमें 'शारीरिक स्वास्थ्य' देती है और दिव्यगुणों के रक्षण से 'मानस स्वास्थ्य' । पृथिवी से उत्पन्न विविध वानस्पतिक पदार्थ शरीर के लिये सब आवश्यक तत्त्वों का पोषण तो करते ही हैं, ये वानस्पतिक पदार्थ उपयुक्त होने पर हमारी बुद्धि, मन को भी शुद्ध रखते हैं और इस प्रकार हमारे में दिव्यगुणों का विकास होता है।
भावार्थ
भावार्थ- पृथिवी अनुकूल होकर हमारे जीवन को धर्म व धन से युक्त करती है, यह हमें शारीरिक व मानस स्वास्थ्य प्राप्त कराती है और इस प्रकार प्रभु की ओर ले चलती है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(स्वस्तिः-इत्-हि) स्वस्तिः कल्याणभावना खल्वेव (प्रपथे) पथाग्रे (श्रेष्ठा) श्रेष्ठरूपा (रेक्णस्वती) धनधान्यवती (या वामम्-अभ्येति) या वनयितारं सम्भजयितारं प्राप्नोति (सा नः) साऽस्मान् (अमा) गृहे “अमा गृहनाम” [निघ० ३।४] (सा नः-अरणे) सा हि अरण्ये (नि पातु) निरन्तरं रक्षतु (देवगोपा स्वावेशा भवतु) देवैर्विद्वद्भी रक्षिता शोभनावेशयित्री भवतु ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let there be peace, goodness and all round well being of the highest order in our long term programmes of development, only that which brings abundant wealth, noble success and honour and splendour of grace. May that peace and splendour strengthen us at home and protect us abroad and may that peace, protected by noble and brilliant divine souls, have the rightful passion and pride of self-confidence.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनाच्या प्रारंभिक मार्गावर, घरात, जंगलात विद्वानाद्वारे कल्याण व रक्षण असावे, असा प्रयत्न केला पाहिजे. ॥१६॥
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