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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा पु॒रोहि॑त ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑मि साधु॒या । क्षेत्र॑स्य॒ पतिं॒ प्रति॑वेशमीमहे॒ विश्वा॑न्दे॒वाँ अ॒मृताँ॒ अप्र॑युच्छतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्याः॑ । होता॑रा । प्र॒थ॒मा । पु॒रःऽहि॑ता । ऋ॒तस्य॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । ए॒मि॒ । सा॒धु॒ऽया । क्षेत्र॑स्य । पति॑म् । प्रति॑ऽवेशम् । ई॒म॒हे॒ । विश्वा॑न् । दे॒वान् । अ॒मृता॑न् । अप्र॑ऽयुच्छतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा प्रथमा पुरोहित ऋतस्य पन्थामन्वेमि साधुया । क्षेत्रस्य पतिं प्रतिवेशमीमहे विश्वान्देवाँ अमृताँ अप्रयुच्छतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्याः । होतारा । प्रथमा । पुरःऽहिता । ऋतस्य । पन्थाम् । अनु । एमि । साधुऽया । क्षेत्रस्य । पतिम् । प्रतिऽवेशम् । ईमहे । विश्वान् । देवान् । अमृतान् । अप्रऽयुच्छतः ॥ १०.६६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (प्रथमा) हे प्रमुख प्रसिद्ध (पुरोहिता) पुरोहितो ! सामने वर्तमान ! (दैव्या होतारा) देवों–विद्वानों में योग्य ज्ञान के देनेवाले अध्यापक और उपदेशको ! (साधुया-ऋतस्य पन्थाम्-अन्वेमि) सद्भाव से वेदज्ञान के मार्गानुसार मैं चलूँ, (क्षेत्रस्य पतिम्) जगत् के स्वामी परमात्मा को (प्रतिवेशम्) जीवमात्र में प्रविष्ट को (ईमहे) याचना करते हैं-प्रार्थित करते हैं (विश्वान् देवान्-अमृतान्-अप्रयुच्छतः) सारे विद्वानों जीवन्मुक्तों प्रमादरहितों को प्रार्थित करते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    ऊँचे अध्यापक और उपदेशकों से वेदाध्ययन और श्रवण करके तदनुसार आचरण करें और परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना करते हुए जीवन्मुक्तों की श्रेणी में हो जाएँ ॥१३॥

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    विषय

    न्यायमार्ग का अनुसरण। विद्वानों के सत्संग का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (प्रथमा) सबसे श्रेष्ठ, (पुरः हिता) आगे साक्षिवत् स्थापित, (देव्या होतारा) देवों के बीच उनको शक्ति, ज्ञान देने वाले, उनको बुलाने वाले, उपदेष्टा गुरुजनो ! मैं (साधुया) उत्तम साधनायोग्य (ऋतस्य पन्थाम्) सत्यज्ञान युक्त, न्यायानुकूल, वेदोपादिष्ट मार्ग का (अनु एमि) अनुगमन करता हूं। और (क्षेत्रस्य पतिम्) क्षेत्र के पालक प्रकृति और देह के पालक आत्मा को जो (प्रति-वेशम्) प्रत्येक शरीर में प्रविष्ट है उसको और (अमृतान्) अमरणधर्मा, (अप्रयुच्छतः) अप्रमादी (विश्वान् देवान्) समस्त विद्वानों को (ईमहे) शरण जावें, उनसे ज्ञान, धन, सुखादि की याचना करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु व देवों का आराधन

    पदार्थ

    [१] (दैव्या होतारा) = अग्नि और आदित्य दैव्य होता हैं, ये हमें उस देव के प्राप्त करानेवाले हैं [हु-दाने] । (प्रथमा) = हमारी शक्तियों का विस्तार करनेवाले हैं। (पुरोहिता) = ये हमारे सामने आदर्श के रूप से रखे गये हैं। आदित्य की तरह हमने सब स्थानों से अच्छाई को ग्रहण करना है और अग्नि की तरह निरन्तर आगे बढ़ते चलना है [अग्निः = अग्रणीः] । [२] मैं आदित्य व अग्नि का शिष्य बनकर (साधुया) = उत्तमता से (ऋतस्य पन्थां अनुएभि) = ऋत के मार्ग का अनुसरण करता हूँ ऋत, अर्थात् यज्ञ को अपनाता हूँ और ऋत, अर्थात् प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करनेवाला बनता हूँ। [३] हम (क्षेत्रस्य पतिम्) = इस शरीर रूप क्षेत्र के स्वामी (प्रतिवेशम्) = समीप वर्तमान [पड़ोसी] उस प्रभु को (ईमहे) = प्रार्थित करते हैं और साथ ही (विश्वान् देवान्) = सब ज्ञानी पुरुषों के भी जो (अमृतान्) = विषयों के पीछे मरनेवाले नहीं तथा (अप्रयुच्छतः) = धर्म सत्य व स्वाध्यायादि में प्रमाद करनेवाले नहीं उनका आराधन करते हैं। इन देवों के सम्पर्क में आकर हम भी देववृत्ति का बनने का प्रयत्न करते हैं। इनसे हम दैवी सम्पत्ति की याचना करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आदित्य व अग्नि को अपना आदर्श बनाते हैं। प्रभु की प्रार्थना करते हैं। देवों के सम्पर्क से दैवी सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (प्रथमा) हे प्रमुखौ प्रतमौ प्रसिद्धौ (पुरोहिता) पुरोहितौ पुरतो वर्तमानौ (दैव्या होतारा) देवेषु विद्वत्सु योग्यौ “देवेषु विद्वत्सु साधु” [यजु० २८।७ दयानन्दः] होतारौ ज्ञानस्य दातारौ कर्त्तारावध्यापकोपदेशकौ “होतारौ दातारावध्यापकोदेशकौ” [यजु० २८।४० दयानन्दः] (साधुया-ऋतस्य पन्थाम्-अन्वेमि) सद्भावेन वेदज्ञानस्य मार्गमनुगच्छेयमनुसरेयम् “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] (क्षेत्रस्य पतिम्) जगतः स्वामिनं परमात्मानम्” क्षेत्रस्य क्षयन्ति निवसन्ति यस्मिञ्जगति तस्य” [ऋ० ७।३५।१० दयानन्दः] (प्रतिवेशम्) विशति शरीरेषु यः स जीवो वेशः “विश् प्रवेशने” [भ्वादिः] ‘ततोऽच् कर्तरि’ प्रतिगतो वेशं जीवमिति प्रतिवेशः परमात्मा तं (ईमहे) याचामहे प्रार्थयामहे वयं (विश्वान् देवान्-अमृतान्-अप्रयुच्छतः) तथा सर्वान् विदुषोऽमृतान् जीवन्मुक्तान् सदाऽप्रमादान् सावधानान्-ईमहे प्रार्थयामहे-वाञ्छामहे ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divine yajakas, O high priests of nature and humanity, I follow the straight path of rectitude and universal law of nature’s creativity. And we pray to the lord ruler and protector of the universe immanent in every form of existence, and, join all the divine powers, immortal and relentlessly active in the universal process, for study and advancement through yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उच्च अध्यापक व उपदेशकांकडून वेदाध्ययन व श्रवण करून त्यानुसार आचरण करावे व परमात्म्याची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करत जीवनमुक्ताच्या श्रेणीत यावे. ॥१३॥

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