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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    वसि॑ष्ठासः पितृ॒वद्वाच॑मक्रत दे॒वाँ ईळा॑ना ऋषि॒वत्स्व॒स्तये॑ । प्री॒ता इ॑व ज्ञा॒तय॒: काम॒मेत्या॒स्मे दे॑वा॒सोऽव॑ धूनुता॒ वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसि॑ष्ठासः । पि॒तृ॒ऽवत् । वाच॑म् । अ॒क्र॒त॒ । दे॒वान् । ईळा॑नाः । ऋ॒षि॒ऽवत् । स्व॒स्तये॑ । प्री॒ताःऽइ॑व । ज्ञा॒तयः॑ । काम॑म् । आ॒ऽइत्य॑ । अ॒स्मे इति॑ । दे॒वा॒सः । अव॑ । धू॒नु॒त॒ । वसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसिष्ठासः पितृवद्वाचमक्रत देवाँ ईळाना ऋषिवत्स्वस्तये । प्रीता इव ज्ञातय: काममेत्यास्मे देवासोऽव धूनुता वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वसिष्ठासः । पितृऽवत् । वाचम् । अक्रत । देवान् । ईळानाः । ऋषिऽवत् । स्वस्तये । प्रीताःऽइव । ज्ञातयः । कामम् । आऽइत्य । अस्मे इति । देवासः । अव । धूनुत । वसु ॥ १०.६६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वसिष्ठासः) वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य में अत्यन्त वास करनेवाले (पितृवत्-वाचम्-अक्रत) गुरु को पिता के समान मानकर उसके वचन-आज्ञा का पालन करें (देवान्-ऋषिवत्) अन्य जीवन्मुक्त परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए प्रशस्त ऋषियों की भाँति विद्वानों को अपने कल्याण के लिए सेवन करते हुए (प्रीताः-इव ज्ञातयः) प्रसन्न-तृप्त बान्धवों के समान (देवासः कामम्-एत्य) देव-विद्वानों ! यथेष्ट हमारे घर को प्राप्त होकर (अस्मे वसु-अवधूनुत) हमारे लिए बसानेवाले ज्ञानधन को प्रेरित करो ॥१४॥

    भावार्थ

    वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य में निष्णात जो विद्वान् हों, उनका पिता के समान आदर करना चाहिए तथा ज्ञानलाभ लेना चाहिए। परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए जीवन्मुक्तों को ऋषियों की भाँति सम्मानित करके अध्यात्मलाभ लेना चाहिए। विद्वानों को बन्धुओं के समान स्नेहदृष्टि से देखते हुए घर पर बुलाकर ज्ञानोपदेश ग्रहण करना चाहिए ॥१४॥

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    विषय

    उत्तम गुरु जनों का कर्त्तव्य वे प्रेम से वेदोपदेश करें।

    भावार्थ

    (वसिष्ठासः) उत्तम वसु, ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ गुरुजन (पितृवत्) पिता के समान ही (वाचम् अक्रत) वाणी, वेद का उपदेश करें। वे (देवान्) विद्याभिलाषियों को (स्वस्तये) सुख कल्याण के लिये (ऋषिवत्) तत्वार्थदर्शी के तुल्य (ईडानाः) स्तुति उपदेश करते हुए (ज्ञातयः प्रीता इव) प्रिय बन्धुओं के तुल्य ही प्रसिद्ध और ज्ञानवान् होकर (देवासः) नाना दिव्य सुख देते हुए, (अस्मे वसु अव धूनुत) हमें नाना ऐश्वर्य प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पितृवत्-ऋषिवत्

    पदार्थ

    [१] (वसिष्ठासः) = अपने निवास को अत्यन्त उत्तम बनानेवाले ज्ञानी पुरुष (पितृवत्) = पिता की तरह (वाचं अक्रत) = ज्ञान की वाणियों का उपदेश करनेवाले होते हैं । जैसे पिता पुत्र के लिये प्रेम से प्रेरणा को प्राप्त कराता है, इसी प्रकार ये वसिष्ठ हमारे लिये प्रेम से ज्ञानोपदेश को करनेवाले होते हैं । [२] (देवान् ईडाना) = देवों का स्तवन करते हुए, अर्थात् देवों से देवत्व को प्राप्त करते हुए ये (ऋषिवत्) = तत्त्वद्रष्टा की तरह ज्ञान को देते हैं जिससे (स्वस्तये) = हमारा कल्याण हो। इनका उपदेश एक पिता की तरह प्रेम से दिया जाता है और ऋषि की तरह तात्त्विकता को लिये हुए होता है। इस प्रकार प्रेम से दिया हुआ तत्त्वज्ञान का उपदेश हमारा कल्याण करता है। [२] हे (देवास:) = देवो! (प्रीताः ज्ञातयः इव) = प्रसन्न हुए हुए बन्धुओं की तरह (कामं एत्य) = प्रसन्नतापूर्वक आकर (अस्मे) = हमारे लिये (वसु) = धन को (अवधूनुत) = प्रेरित करो। जैसे बन्धु किसी उत्सव में सम्मिलित होने पर कुछ धन स्वेच्छा से देनेवाले होते हैं, इसी प्रकार देव हमें दैवी सम्पत्ति रूप धन को देनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्वयं उत्तम निवासवाले लोग प्रेम से हमें तत्त्वद्रष्टा पुरुष की भान्ति उपदेश करें। देव हमें दैवी सम्पत्ति के देनेवाले हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वसिष्ठासः) वेदाध्ययनब्रह्मचर्ययोरतिशयेन वासिनः “वसिष्ठाः-अतिशयेन ब्रह्मचर्ये कृतवासाः” [ऋ० ७।३३।३ दयानन्दः] (पितृवत्-वाचम्-अक्रत) गरुं पितृवन्मत्वा तस्य वचनमाज्ञापालनं कुर्वन्तु (देवान्-ऋषिवत्-स्वस्तये-ईळानाः) अन्यान् गुरुभिन्नान् जीवन्मुक्तान् परमात्मसाक्षात्कृतवतः प्रशस्तानृषीनिव कल्याणाय तान् सेवमानाः (प्रीताः-इव ज्ञातयः-देवासः कामम्-एत्य) प्रसन्नाः-तृप्ता बान्धवा इव विद्वांसः ! यथेष्टमस्माकं गृहमागत्य (अस्मे वसु-अवधूनुत) अस्मभ्यं वासयित्रधनं ज्ञानधनमवप्रेरयत ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brilliant sages and scholars studying the divine powers and researching the divine resources of nature like the seers and, like parents and protectors, creating the knowledge and the language of knowledge for life’s well being, and, O noble benefactors, having known our cherished needs and desires like loving friends and relations, pray energise our economy and create wealth for the community.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्ययुक्त वेदाध्ययन करणाऱ्या विद्वानांचा पित्याप्रमाणे आदर केला पाहिजे व ज्ञानाचा लाभ घेतला पाहिजे. परमात्म्याचा साक्षात्कार केलेल्या जीवनमुक्ताचा ऋषींप्रमाणे सन्मान करून अध्यात्म लाभ घेतला पाहिजे. विद्वानांना बंधूप्रमाणे स्नेहदृष्टीने पाहून त्यांच्याकडून ज्ञानोपदेश ग्रहण केला पाहिजे. ॥१४॥

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