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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अदि॑ति॒र्द्यावा॑पृथि॒वी ऋ॒तं म॒हदिन्द्रा॒विष्णू॑ म॒रुत॒: स्व॑र्बृ॒हत् । दे॒वाँ आ॑दि॒त्याँ अव॑से हवामहे॒ वसू॑न्रु॒द्रान्त्स॑वि॒तारं॑ सु॒दंस॑सम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदि॑तिः । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ऋ॒तम् । म॒हत् । इन्द्रा॒विष्णू॒ इति॑ । म॒रुतः॒ । स्वः॑ । बृ॒हत् । दे॒वान् । आ॒दि॒त्यान् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ । वसू॑न् । रु॒द्रान् । स॒वि॒तार॑म् । सु॒ऽदंस॑सम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदितिर्द्यावापृथिवी ऋतं महदिन्द्राविष्णू मरुत: स्वर्बृहत् । देवाँ आदित्याँ अवसे हवामहे वसून्रुद्रान्त्सवितारं सुदंससम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदितिः । द्यावापृथिवी इति । ऋतम् । महत् । इन्द्राविष्णू इति । मरुतः । स्वः । बृहत् । देवान् । आदित्यान् । अवसे । हवामहे । वसून् । रुद्रान् । सवितारम् । सुऽदंससम् ॥ १०.६६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदितिम्) आचार्य को (द्यावापृथिवी) माता-पिताओं को (महत्-ऋतम्) उनसे प्राप्त महत् ज्ञान और पालन को (इन्द्राविष्णू) विद्युत् और सूर्य के ज्ञानवालों को (मरुतः) जीवन्मुक्तों को (बृहत्-स्वः) बड़े सुखवाले स्थान को-इन सबको (आदित्यान्-देवान्) अखण्डित ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों को (वसून् रुद्रान्) बसनेवाले और उपदेश करनेवाले विद्वानों को (सुदंससं सवितारम्) अच्छे कर्मवाले उत्पादक परमात्मा को (अवसे) रक्षा के लिए (हवामहे) आमन्त्रित करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य को अपनी रक्षार्थ माता-पिता, आचार्य, वैज्ञानिक, व्यावहारिक, उपदेशक, आदि महानुभावों के अनुभवों और ज्ञानों से लाभ उठाना चाहिए तथा परमरक्षक परमात्मा की उपासना से अध्यात्मलाभ लेना चाहिए ॥४॥

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    विषय

    माता पिता के तुल्य प्रिय, सत्यज्ञानी पुरुषों के आदर का उपदेश।

    भावार्थ

    (अदितिः) कभी न दीन, न खण्डित, अविनाशी वा माता पितावत् प्रिय (द्यावा पृथिवी) भूमि, और सूर्यवत् तेजस्वी और आश्रयरूप जन, और (महत् ऋतं) महान्, सत्य ज्ञान, (इन्द्राविष्णू) ऐश्वर्यवान् और व्यापक सामर्थ्य वाला, (मरुतः) दुष्टों को मारने वाले जन, (बृहत् स्वः) बड़ा भारी तेज और प्रकाश सुख, (आदित्यान् देवान्) १२ ऋतु सुखप्रद और (वसून् रुद्रान्) आठ वसु, पृथिवी आदि और १२ प्राण और (सु-दंससं) उत्तम कर्म करने वाले (सवितारं) सब के प्रेरक और उत्पादक को हम (अवसे) रक्षा, ज्ञान, प्रेम और समृद्धि के (अव) लिये (हवामहे) प्राप्त करें और उनका आदर करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वसु-रुद्र- आदित्य

    पदार्थ

    [१] (अदितिः) = स्वास्थ्य की देवता है [दो अवखण्डने से दिति, न+दिति], (द्यावापृथिवी) = ज्ञान से देदीप्यमान मस्तिष्करूप द्युलोक तथा दृढ़ शरीर रूप पृथिवीलोक, (ऋतं महत्) = महनीय ऋत, प्रत्येक कार्य का ठीक समय पर होना, अर्थात् जीवन की व्यवस्था जो अत्यन्त प्रशंसनीय है, (इन्द्राविष्णू) = शक्तिशाली कर्मों का प्रतीक 'इन्द्र' है तो व्यापक कर्मों का 'विष्णु' । (मरुतः) = प्राण तथा (बृहत् स्वः) = वृद्धि का कारणभूत प्रकाश। ये सब देव तो मेरे लिये सुख को करनेवाले हों ही । [२] हम (अवसे) = रक्षण के लिये (वसून्) = प्रकृति ज्ञान में निपुण वसु नामक विद्वानों को, (रुद्रान्) = जीव की प्राणविद्या को समझनेवाले रुद्रों को, (आदित्यान् देवान्) = प्रकृति, जीव परमात्म-ज्ञान में निपुण आदित्यों को, इन सब देवों को (हवामहे) = पुकारते हैं । इनके सम्पर्क में आकर प्रकृति, जीव व परमात्मा को समझते हुए हम शारीरिक, मानस व अध्यात्म उन्नति को करनेवाले होते हैं । [३] हम (सुदंससम्) = उत्तम कर्मोंवाले (सवितारम्) = सकल जगदुत्पादक व सकल जीव-प्रेरक प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं। प्रभु का अनुकरण करते हुए हम भी उत्तम कर्मोंवाले बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वसुओं, रुद्रों व आदित्यों के सम्पर्क में आकर, अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए हम प्रभु के अधिक समीप आ जाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदितिम्) आचार्यं (द्यावापृथिवी) मातापितरौ “द्यौर्मे पिता....माता पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] (महत्-ऋतम्) तेभ्यः प्राप्तं महज्ज्ञानं पालनं च (इन्द्राविष्णू) विद्युत्सूर्यज्ञानवन्तौ (मरुतः) जीवन्मुक्तान् (बृहत्-स्वः) महत् सुखमयं स्थानम्, इति सर्वान् (आदित्यान् देवान्) अखण्डितब्रह्मचर्यान् विदुषः (वसून् रुद्रान्) वासयितॄन्-उपदेष्टॄन् विदुषः (सुदंससं सवितारम्) सुकर्माणामुत्पादकं परमात्मानं (अवसे) रक्षणाय (हवामहे) आमन्त्रयामहे ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For our protection and promotion, we invoke Aditi, mother Nature, heaven and earth, the great cosmic law of Rtam, Indra, cosmic energy, Vishnu, omnipresent divinity that sustains the universe, Maruts, wind energies, cosmic joy, eight Vasus, eleven Rudras, Savita, lord of life and giver of light, lord supreme of cosmic action, and the twelve Adityas, all refulgent divinities of the universe.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाला आपल्या रक्षणासाठी माता, पिता, आचार्य, वैज्ञानिक, व्यावाहारिक, उपदेशक इत्यादी महानुभावांच्या ज्ञानाचा लाभ घेतला पाहिजे व परमरक्षक परमात्म्याची उपासना करून अध्यात्मलाभ घेतला पाहिजे. ॥४॥

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