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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    धृ॒तव्र॑ताः क्ष॒त्रिया॑ यज्ञनि॒ष्कृतो॑ बृहद्दि॒वा अ॑ध्व॒राणा॑मभि॒श्रिय॑: । अ॒ग्निहो॑तार ऋत॒सापो॑ अ॒द्रुहो॒ऽपो अ॑सृज॒न्ननु॑ वृत्र॒तूर्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धृ॒तऽव्र॑ताः । क्ष॒त्रियाः॑ । य॒ज्ञ॒निः॒ऽकृतः॑ । बृ॒ह॒त्ऽदि॒वाः । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अ॒भि॒ऽश्रियः॑ । अ॒ग्निऽहो॑तारः । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । अ॒द्रुहः॑ । अ॒पः । अ॒सृज॒न् । अनु॑ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धृतव्रताः क्षत्रिया यज्ञनिष्कृतो बृहद्दिवा अध्वराणामभिश्रिय: । अग्निहोतार ऋतसापो अद्रुहोऽपो असृजन्ननु वृत्रतूर्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धृतऽव्रताः । क्षत्रियाः । यज्ञनिःऽकृतः । बृहत्ऽदिवाः । अध्वराणाम् । अभिऽश्रियः । अग्निऽहोतारः । ऋतऽसापः । अद्रुहः । अपः । असृजन् । अनु । वृत्रऽतूर्ये ॥ १०.६६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (धृतव्रताः) दृढ़ सङ्कल्पवाले (क्षत्रियाः) धन के अधिकारी (यज्ञनिष्कृतः) श्रेष्ठकर्म से संस्कृत-सम्पन्न (बृहद्दिवाः) महाज्ञानी (अध्वराणम्) अहिंसनीय कर्मों के (अभिश्रियः) अच्छे आश्रयभूत (अग्निहोतारः) परमात्मा के उपासक (ऋतसापः) सत्य के आश्रयभूत (अद्रुहः) द्रोह न करनेवाले (वृत्रतूर्ये) पाप अज्ञान का नाश करने के लिए (अपः-अनु-असृजन्) कर्मों के अनुरूप गति करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य दृढ़सङ्कल्पी, महाज्ञानी, श्रेष्ठ कर्म के आचरणकर्ता होते हैं, वे सच्चे धन के अधिकारी होते हैं तथा परमात्मा के उपासक, किसी से भी द्रोह न करनेवाले, बाहर भीतर सत्य से परिपूर्ण जो महानुभाव हैं, वे पाप को नष्ट करने के लिए यथावत् प्रयत्न कर सकते हैं ॥८॥

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    विषय

    क्षत्रियों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (धृतव्रताः) व्रतों, सत्कर्मों और नियमों को स्थिर रूप से रखने वाले, (क्षत्रियाः) बलवान्, (यज्ञ-निष्कृतः) यज्ञों को निःशेष अर्थात् पूर्ण रूप से करने वाले, (बृहद्-दिवाः) बड़े तेजस्वी, ज्ञानी, (अध्वराणाम्) न नाश होने वाले अजेय सैन्यों और युद्धों के बीच (अभि-श्रियः) सब प्रकार से शोभायुक्त, (अग्नि-होतारः) अग्नि में आहुति देने वाले याज्ञिकों के तुल्य अपने अग्रणी पुरुष को अपना आह्वाता, आज्ञापक मानने वाले, उसी के निमित्त अपनी आहुति देने वाले, (ऋत-सापः) सत्य प्रतिज्ञा-वचन पर समवाय, संघ बल को बनाने वाले (अद्रुहः) परस्पर वा किसी से द्रोह, या भेद-बुद्धि न रखने वाले होकर (वृत्र-तूर्ये) दुष्टों वा बढ़ते शत्रु को नाश करने के कार्य में (अनु) निरन्तर (अपः असृजन्) कर्म या उद्योग करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रशस्त जीवन

    पदार्थ

    [१] प्रशस्त जीवनवाले व्यक्ति (धृतव्रताः) = व्रतों को धारण करनेवाले होते हैं। बिना व्रतों के जीवन कभी उत्तम बन ही नहीं सकता। व्रत जीवन में नियम को ले आते हैं । (क्षत्रियाः) = ये क्षतों से अपना त्राण करनेवाले होते हैं । व्रतमय जीवन का यह स्वाभाविक परिणाम है कि शरीर में रोगों का आक्रमण नहीं होता और मन वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है । [२] ये स्वस्थ व वासनाओं से ऊपर उठे हुए मनुष्य (यज्ञनिष्कृतः) = यज्ञों का निश्चय से सम्पादन करनेवाले होते हैं और (बृहद्दिवा:) = बड़े प्रकाशमय तेजस्वी जीवनवाले बनते हैं । [३] (अध्वराणाम्) = हिंसा शून्य कर्मों का (अभिश्रियः) = सेवन करते हुए ये इहलोक व परलोक दोनों की [अश्रि] श्रीवाले होते हैं। इन यज्ञात्मक कर्मों के परिणामरूप इनके दोनों लोक कल्याणमय बनते हैं । (अग्निहोतारः) = अग्नि का ये आह्वान करते हैं, उस अग्रेणी प्रभु का सदा आराधन करते हैं। इस प्रकार ये प्रभु का स्मरण करते हैं और अध्वरमय जीवन बिताते हैं । उन अध्वरों को प्रभु से होता हुआ पाते हैं। [४] (ऋत साप:) = प्रभु स्मरण करनेवाले ये ऋत की अपने साथ समवेत करते हैं, 'ऋतं वदिष्यामि' इस निश्चयवाले होते हैं । सब कार्यों को ठीक समय व ठीक स्थान पर करते हैं और (अद्रुहः) = किसी का द्रोह नहीं करते । [५] द्रोह आदि अशुभ वृत्तियाँ वासनाओं के कारण ही जागरित होती हैं । इन (वृत्रतूर्ये) = वासनाओं के संहार के निमित्त [वृत्र - वासना, तुर्वी हिंसायाम्] ये लोग (ननु) = निश्चय से (अपः) = कर्मों को (असृजन्) = नियमित रूप से करनेवाले होते हैं। कर्मों में लगे रहने से ये वासनाओं के आक्रमण से बचे रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रशस्त जीवन व्रती जीवन होता है, कर्ममय होता हुआ यह वासनाओं से अनाक्रान्त रहता है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (धृतव्रताः) धृतं व्रतं यैस्ते धृतव्रताः-दृढसङ्कल्पाः (क्षत्रियाः) धनार्हाः “क्षत्रं धननाम” [निघ० २।१०] (यज्ञनिष्कृतः) यज्ञस्य श्रेष्ठकर्मणः संस्कृताः (बृहद्दिवाः) महाज्ञानिनः (अध्वराणाम्) अहिंसनीयकर्मणाम् (अभिश्रियः) अस्याश्रयभूताः (अग्निहोतारः) परमात्मोपासकाः (ऋतसापः) सत्यस्याश्रयभूताः (अद्रुहः) अद्रोग्धारः (वृत्रतूर्ये) पापाज्ञाननाशाय (अपः-अनु-असृजन्) कर्म-अनुगच्छन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Dedicated Kshatriyas consecrated in yajna, brilliant in the knowledge of divinity, meticulous performers of yajna with beauty and grace with Agni as their high priest of yajna in observation and exaltation of the laws of divinity, free from hate and enmity, move forward in their battle against darkness and evil and set the waters of life aflow like rain showers on the break of dark clouds.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे दृढसंकल्पी, महाज्ञानी, श्रेष्ठ कर्माचे आचरण करतात. परमात्म्याचे उपासक असून कुणाचाही द्वेष न करता आत-बाहेर सत्याने परिपूर्ण असतात. ते पाप नष्ट करण्यासाठी यथायोग्य प्रयत्न करतात. ॥८॥

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