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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्नीषोमा॒ वृष॑णा॒ वाज॑सातये पुरुप्रश॒स्ता वृष॑णा॒ उप॑ ब्रुवे । यावी॑जि॒रे वृष॑णो देवय॒ज्यया॒ ता न॒: शर्म॑ त्रि॒वरू॑थं॒ वि यं॑सतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नीषोमा॑ । वृष॑णा । वाज॑ऽसातये । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्ता । वृष॑णौ । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । यौ । ई॒जि॒रे । वृष॑णः । दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑ । ता । नः॒ । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । वि । यां॒स॒तः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमा वृषणा वाजसातये पुरुप्रशस्ता वृषणा उप ब्रुवे । यावीजिरे वृषणो देवयज्यया ता न: शर्म त्रिवरूथं वि यंसतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमा । वृषणा । वाजऽसातये । पुरुऽप्रशस्ता । वृषणौ । उप । ब्रुवे । यौ । ईजिरे । वृषणः । देवऽयज्यया । ता । नः । शर्म । त्रिऽवरूथम् । वि । यांसतः ॥ १०.६६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्नीषोमा) ज्ञानप्रकाशक और शान्तिप्रद विद्वान् (वृषणा) सुखवर्षक हों (वाजसातये) ज्ञानलाभ के लिए (पुरुप्रशस्ता) बहुत प्रशस्त (वृषणा) सुखवर्षक हों (उपब्रुवे) मैं प्रार्थना करता हूँ (यौ वृषणः) जैसे दूसरे सुखवर्षक जन (देवयज्यया) विद्वत्सङ्गति से (ईजिरे सङ्गत होते हैं, (ता) वे दोनों (नः) हमारे लिए (त्रिवरूथं शर्म-वियंसतः) तीन प्रकार के सुखों की वारक-निवारक सुखशरण को प्रदान करें ॥७॥

    भावार्थ

    ज्ञानप्रकाशक और शान्तिप्रसारक विद्वान् अन्य जनों की सहायता से लोगों में ज्ञान और शान्ति का प्रसार करें, जिससे सुख की वृष्टि सर्वत्र हो ॥७॥

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    विषय

    अग्नि जलवत् शान्तिप्रद और दुष्ट-संतापक से सुख की प्रार्थना।

    भावार्थ

    मैं (वाज-सातये) ज्ञान, बल, ऐश्वर्य और वेग को प्राप्त करने के लिये (अग्नी-सोमा) अग्नि और ओषधि वर्ग के तुल्य तेजस्वी और शान्तिदायक अग्नि, जल एवं विद्वानों को, (उप ब्रुवे) प्रार्थना करता हूं, वा अग्नि जल वा अग्नि ओषधियों का मैं अन्यों को उपदेश करता हूं। और इसी प्रयोजन से मैं (पुरु-प्रशस्ता) बहुतों में प्रशस्त, इन्द्रियगण बहुत से ज्ञान को बतलाने वाले दो चक्षुओं के तुल्य (वृषणा) बलवान् प्रभु व जनों को (उप ब्रुवे) प्रार्थना करता हूँ, और (यौ) जिन दोनों को (वृषणः) बलवान् जन (देव-यज्यया) विद्वान् एवं तेजस्वी पुरुषों के आदर करने की रीति से (ईजिरे) आदर-आतिथ्य करते हैं (ता) वे दोनों (नः) हमें (त्रि-वरुथम्) तीनों प्रकार के संतापों को वारण करने वाला (शर्म) गृह एवं सुख (यंसतः) प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अग्नि व सोम का समन्वय

    पदार्थ

    [१] 'अग्नि' तेजस्विता का प्रतीक है और 'सोम' शान्ति का । इन दोनों का समन्वय 'अग्नीषोमा' इस समस्त शब्द से सूचित हो रहा है। केवल 'तेजस्विता' उग्रता में परिवर्तित हो जाती है और अकेला 'सोम' कायरता का आभास देता है। इन दोनों का समन्वय ही ठीक है । (अग्नीषोमा) = ये अग्नि और सोम तत्त्व (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । (वाजसातये) = ये शक्ति की प्राप्ति के लिये होते हैं। (पुरुप्रशस्ता) = सम्मिलित हुए हुए ये अत्यन्त प्रशंसनीय हैं। (वृषणा) = शक्ति के वर्धन करनेवाले इन दोनों तत्त्वों को (उपब्रुवे) = मैं पुकारता हूँ। अपने जीवन में इन दोनों के समन्वय के लिये प्रार्थना करता हूँ। [२] (वृषण:) = शक्तिशाली पुरुष (देवयज्ञया) = देवयज्ञ के द्वारा, बड़ों के उपासन के द्वारा तथा अग्रिहोत्र आदि के द्वारा (यौ) = जिन अग्नि और सोम का (ईजिरे) = यजन करते हैं, (ता) = वे अग्नि और सोम (नः) = हमारे लिये (त्रिवरूथम्) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि तीनों को आच्छादित करनेवाला (शर्म) = रक्षण [protection or अथवा shelter] (वि यंसतः) = विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं । अग्नि व सोम के समन्वय के होने पर इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब ठीक बने रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अग्नि और सोम तत्त्वों के समन्वय से अपने जीवन को प्रशस्त बनायें और 'त्रिवरूथ शर्म' को प्राप्त करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्नीषोमा) ज्ञानप्रकाशकशान्तिप्रदौ विद्वांसौ “विज्ञानसौम्यगुणा-वध्यापकपरीक्षकौ” [ऋ० १।९३।१ दयानन्दः] (वृषणा) सुखवर्षकौ (वाजसातये) ज्ञानलाभाय (पुरुप्रशस्ता) बहुप्रशस्तौ (वृषणा) सुखवर्षकौ पुनरुक्तिरादरार्था (उपब्रुवे) अहं प्रार्थये (यौ वृषणः) यथा अन्ये सुखवर्धका जनाः (देवयज्यया) विद्वत्सङ्गत्या (ईजिरे) सङ्गच्छन्ते तथा (ता) तौ (नः) अस्मभ्यं (त्रिवरूथं शर्म वियंसतः) त्रिविधदुःखवारकं सुखशरणं विशिष्टतया प्रयच्छतः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni and Soma, heat and cold, two complementarities of nature, both generous and abundant for the achievement of food, energy and advancement in knowledge and culture, universally praised and adored as generous and abundant, both of which others too serve and adore as generous and abundant by yajna, I glorify, and pray they may give us threefold peace and protection for body, mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानप्रकाशक व शांतिप्रसारक विद्वानांनी इतर लोकांच्या साह्याने लोकात ज्ञान व शांतीचा प्रसार करावा. ज्यामुळे सर्वत्र सुखाची वृष्टी व्हावी. ॥७॥

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